अजब विडंबना है कि हाल में पुलवामा हमले में सीआरपीएफ के 40 जवानों की मौत से भारत में जहां गम का माहौल है, इस खौफनाक प्रकरण के बाद उपजे जटिल घटनाक्रम में सोशल मीडिया का इस्तेमाल घृणा और दुष्प्रचार फैलाने के लिए किया जा रहा है.

सीआरपीएफ ने इस प्रवृत्ति पर ध्यान दिया है और वे इस पर लगाम लगाने का प्रयास कर रहे हैं. उन्होंने स्पष्ट रूप से आतंकवादियों की 'नकली' तस्वीरों को लाइक और शेयर करने से मना किया है. उन्होंने इन झूठी और मनगढ़ंत छवियों को प्रसारित न करने की हिदायत भी दी है. इस मामले में सहायता के लिए उनसे webpro@crpf.gov.in पर संपर्क किया जा सकता है.

इस बीच, सोशल मीडिया पर वायरल हुई एक तस्वीर में राहुल गांधी को पुलवामा हमले को अंजाम देने वाले आत्मघाती आतंकवादी आदिल अहमद डार के साथ दिखाया गया है. टाइम्स ऑफ़ इंडिया के अनुसार, उस नकली तस्वीर को 'निधि पठानिया' के नाम से यह कहते हुए जारी किया गया है कि राहुल गांधी के एक बेहद करीबी सहयोगी ने आतंकवादी हमले में मदद दी.

ऐसी ही एक अन्य तस्वीर, जिसे दो दिनों में 12,000 बार प्रसारित किया गया, रुसी सैन्य अधिकारी मैक्सिम अलेक्सांडरोविच रजुमोवस्की की है. दरअसल, यह तस्वीर मूल रूप से 1 सितम्बर 2004 की है जब आतंकवादियों ने बेसलान स्कूल की घेरेबंदी कर 1,100 से अधिक लोगों (मुख्य रूप से बच्चों) को बंधक बनाया था.

मेजर सुरेंद्र पुनिया द्वारा सीआरपीएफ जवानों और ताबूतों की मनगढ़ंत तस्वीरें शेयर किये जाने के बाद से झूठी व मनगढ़ंत तस्वीरों को व्यापक रूप से प्रसारित करने के चलन में तेजी आयी. इनमें से पहली तस्वीर मूल रूप से 2017 में छत्तीसगढ़ के सुकमा में सीआरपीएफ के जवानों के पर किया प्राणघातक हमले से संबंधित है.

दूसरी तस्वीर, जिसे सबसे पहले जुलाई 2011 में द सीएटल टाइम्स द्वारा जारी किया गया था (और जिसका अब कोई सुराग नहीं है), में सैनिकों को एक ड्रिल के समय पसीना पोछते हुए दिखाया गया है. इंडिया स्पेंड और बिजनेस स्टैंडर्ड जैसे अखबारों ने क्रमशः अपने स्रोत का हवाला दिया है.

इसके अलावा मीजींग बसुमतारी की एक वायरल फोटो, जिसमें यह दावा किया गया है कि वह असम से ताल्लुक रखनेवाले आरपीएफ के मारे गये जवानों में से एक था, एक झूठी कहानी बता रही है. मीजींग ने खुद साफ़ किया कि वह एक फर्जी वायरल फोटो है और वह अभी भी जिन्दा और सलामत है.

राष्ट्रवादी प्रचार और नकली कहानी बनाने की संस्कृति, जो भारत को आंतरिक रूप से तकलीफ पहुंचाती है, निश्चित रूप से निराशाजनक है. सोशल मीडिया देशभक्ति के निर्माण और पुलवामा हमले का राजनीतिकरण करने के नाम पर भारतीय नागरिकों के बीच हिंसा, घृणा और तीखेपन को उकसाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है.

उन रास्तों, जिनके जरिए पुलवामा हमले को अंजाम दिया गया, की जांच करने और इसके राजनीतिक / खुफिया सिद्धांतों को सत्यापित करने के बजाय सोशल मीडिया वास्तविक कहानी और पूरी सच्चाई को ढकने की कोशिश कर रहा है. अपनी कहानियों के साथ ये वायरल तस्वीरें और ज्यादा अलगाव व असंतोष पैदा करने की इरादे से सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों के जेहन में सूक्ष्मता से प्रवेश करती हैं.

यो तो पिछले एक दशक में सोशल मीडिया ने अरब जगत में विद्रोह के माध्यम से और ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन के दौरान विरोध प्रदर्शनों को एकजुट करने और सीमाओं को मिटाने में एक अहम भूमिका निभायी है, लेकिन इसमें एक सजग प्रहरी की कमी शिद्दत से खलती है. इसकी वजह से विश्वसनीयता खतरे में पड़ती है, साक्ष्य की प्रामाणिकता कमजोर होती है और दुष्प्रचार फैलता है.

चूंकि मीडिया की भूमिका को राजनीतिक व्यवस्था और नागरिक समाज से अलग-थलग कर नहीं आंका जा सकता, इसलिए झूठे आख्यानों को नियंत्रित करना वक़्त की अनिवार्य जरुरत है. इस किस्म की चुनिंदा हरकत ने सच के बाद के युग में भारत के आगमन को उजागर किया है, जहां बहसें काफी हद तकतथ्यात्मक विवरण, नीति और जांच के बजाय भावनाओं पर आधारित होती है.

सोशल मीडिया की सर्वव्यापकता के साथ-साथ समाचार रिपोर्टिंग की झूठी संतुलन ने लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप में मीडिया के प्रति विश्वास को और अधिक धक्का पहुंचाया है.