वैश्विक आतंकवाद ने भयावह स्वरुप अख्तियार कर लिया है. 9/11 2001 से हालात बिगड़ने शुरू हुए और यह सिलसिला अब भी जारी है. ट्विन टावर्स पर हमले के बाद से, आतंकवाद को एक धर्म विशेष से जोड़ने की कवायद शुरू हो गयी और अमरीकी मीडिया ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ शब्द गढ़ा. साम्राज्यवादी अमरीका के कच्चे तेल के संसाधनों पर कब्ज़ा ज़माने के प्रयास ने पश्चिम एशिया में जबरदस्त उथल-पुथल मचा दी. आतंकवाद ने अपने पैर पसारने शुरू कर दिए. इसके जवाब में, प्रतिक्रियावादियों की कुत्सित हरकतें शुरू हो गईं. सन 2011 में नॉर्वे के एक युवा अन्द्रेस बेहरिंग ब्रेविक ने अपनी मशीनगन से 86 व्यक्तियों की हत्या कर दी. श्वेतों की बहुसंख्या वाले देशों में प्रवासी मुसलमानों के प्रति भय के बातावरण और वैश्विक स्तर पर इस्लाम के प्रति नफरत के भाव ने एक-दूसरे को मज़बूत किया और नतीजे में वैश्विक आतंकवाद ने अत्यंत भयावह रूप ले लिया.

श्रीलंका में 20 अप्रैल 2019 को तीन चर्चो व दो पांच सितारा होटलों पर आत्मघाती आतंकियों द्वारा किये गए हमले में ईस्टर मना रहे 250 निर्दोष ईसाई मारे गए. इस हमले की ज़िम्मेदारी इस्लामिक स्टेट ने ली है परन्तु श्रींलंका सरकार का कहना है कि इसके पीछे एक स्थानीय अतिवादी इस्लामिक संगठन, तोहीत जमात, का हाथ है. श्रीलंका के रक्षा मंत्री रुवान विजयवर्धने के अनुसार, यह हमला, न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में मस्जिदों पर हुए हमले का बदला लेने के लिए किया गया. न्यूजीलैंड में हुए हमले में 53 लोग मारे गए थे. वह हमला एक ऑस्ट्रेलियाई प्रवासी द्वारा किया गया था, जो श्वेत श्रेष्ठतावादी था. श्रीलंका में जमात को प्रतिबंधित कर दिया गया है.

श्रीलंका की इस त्रासद घटना के बाद, मीडिया में एक बार फिर इस्लामिक आतंकवाद की चर्चा होने लगी और आतंकी हमलों के लिए इस्लाम को ज़िम्मेदार बताया जाने लगा. आतंकवाद पर कोई लेबल चस्पा करने से पहले हमें वर्तमान परिदृश्य और अतीत का गंभीरता से विश्लेषण करना होगा. कहानी की शुरुआत होती है अमरीका द्वारा तालिबान और मुजाहिदीन को खड़ा करने से. इसके लिए पाकिस्तान में मदरसे स्थापित किये गए, जिनमें सऊदी अरब में प्रचलित इस्लाम के वहाबी-सलाफी संस्करण के ज़रिये युवाओं को आतंकवाद की राह पर चलने के लिए प्रवृत्त किया गया. इस्लाम का यह संस्करण अति-कट्टरपंथी है और शरिया का विरोध करने वालों पर निशाना साधता है.

पाकिस्तान में अमरीकी के सहयोग और समर्थन से जो मदरसे स्थापित किये गए, उनमें जिहाद और काफिर जैसे शब्दों के अर्थ को तोडा-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया. इसका नतीजा था अल कायदा. अमरीका ने अफ़ग़ानिस्तान में काबिज रुसी सेना से लड़ने के लिए कट्टर युवाओं की फौज तैयार करने के लिए 800 करोड़ डॉलर और सात हज़ार टन असलाह उपलब्ध करवाया. यही थी आतंकवाद की शुरुआत. वियतनाम युद्ध में पराजय से अमरीकी सेना का मनोबल काफी गिर गया था और इसलिए उसने अपनी सेना की बजाय, रूस से लड़ने के लिए एशियाई मुसलमानों की फौज का इस्तेमाल किया. अमरीका का प्राथमिक और मुख्य लक्ष्य था पश्चिम एशिया के तेल संसाधनों पर कब्ज़ा.

मुजाहिदीन, तालिबान, अल कायदा, इस्लामिक स्टेट और उनकी स्थानीय शाखाओं ने जो कुछ किया और कर रहे हैं, वह मानवता के लिए एक बहुत बड़ी त्रासदी है. अमरीका ने ही इस्लाम के विरुद्ध विश्वव्यापी भय उत्पन्न किया, जिसकी समान और विपरीत प्रतिक्रिया के रूप में अन्द्रेस बेहरिंग ब्रेविक और ब्रेंटन टेरंट जैसे लोग सामने आये और पागलपन का चक्र पूरा हो गया. ऐसा लगता है कि दुनिया ने ‘खून का बदला खून’ का सिद्धांत अपना लिया है. युवाओं के दिमाग में ज़हर भर कर आतंकवाद के जिन्न को पैदा तो कर दिया गया परन्तु अब उसे बोतल में बंद करना असंभव हो गया है. ब्रेविक और टेरंट जैसे लोग प्रवासी मुसलमानों को सभी मुसीबतों की जड़ बता रहे हैं. इस तरह की सतही समझ अन्य लोगों की भी होगी.

आतंकी हिंसा के अलावा, नस्लीय हिंसा से भी हमारी दुनिया त्रस्त है. श्रीलंका में ‘बोधू बल सेना’ (बौद्ध शक्ति बल), मुसलमानों और ईसाईयों को निशाना बना रहा है. श्रीलंका में ही तमिल (हिन्दू) भी निशाने पर हैं. म्यानमार में आशिन विराथू नामक एक बौद्ध भिक्षु, हिंसा के इस्तेमाल की वकालत कर रहा है और रोहिंग्या मुसलमानों पर हमले करवा रहा है. भारत में प्रज्ञा ठाकुर जैसे लोग उन स्थानों को निशाना बना रहे हैं, जहाँ मुसलमान बड़ी संख्या में इकठ्ठा होते हैं. प्रज्ञा पर मालेगांव और अजमेर बम धमाकों में लिप्त होने का आरोप है. आज दुनिया भर में साम्प्रदायवादी ताकतें, धर्म का लबादा ओढ़ कर अपने राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए हिंसा के इस्तेमाल को उचित बता रही हैं. त्रासदी यह है कि चूँकि उनकी भाषा पर धर्म का मुलम्मा चढ़ा होता है इसलिए इन ताकतों द्वारा फैलाई जा रही नफरत का शिकार पूरे समुदाय बन जाते हैं.

श्रीलंका में आतंकी हमले के बाद भारत में बुर्के पर प्रतिबंध लगाये जाने की मांग की जा रही है. शिवसेना के मुखपत्र सामना का सम्पादकीय पूछता है कि रावण की लंका में बुर्के पर प्रतिबन्ध लग गया है, राम की अयोध्या में कब लगेगा. यह श्रीलंका के घटनाक्रम को गलत रूप में प्रस्तुत करना है. वहां के राष्ट्रपति ने अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग लरते हुए किसी भी ऐसा वस्त्र को पहनने पर प्रतिबन्ध लगाया है जिसके कारण व्यक्ति का चेहरे छुपता हो. सम्बंधित आदेश में नकाब या बुर्का शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है.

इसके कारण भारत में भी बवाल मच गया है. जानेमाने कवि और लेखक जावेद अख्तर ने कहा है कि वे देश में बुर्के पर प्रतिबन्ध के खिलाफ नहीं हैं परन्तु इसके साथ-साथ, घूँघट प्रथा, जो कुछ इलाकों में आम है, पर भी प्रतिबन्ध लगाया जाना चाहिए. इस बीच, केरल मुस्लिम एजुकेशनल सोसाइटी ने राज्य में अपनी सभी 150 शैक्षणिक संस्थाओं में लड़कियों पर ऐसा कोई भी कपडा पहनने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है जिससे चेहरा ढँक जाता हो. यह प्रशंसनीय है क्योंकि सुधार की पहल, समुदाय के अन्दर से हुई है. सच यह है कि किसी को भी महिलाओं पर कोई ड्रेस कोड लादने का अधिकार नहीं है. बजरंग दल जैसी संस्थाएं महिलाओं के जीन्स पहनने का विरोध करता आईं हैं. महिलाओं के लिए ड्रेस कोड लागू करना, देश पर पितृसत्तात्मक मूल्य लागू करने का एक तरीका है.

श्रीलंका और न्यूजीलैंड की घटनाएं विश्व समुदाय के लिए खतरे की घंटी हैं. दुनिया को इस बात पर विचार करना ही होगा कि राजनैतिक लक्ष्यों को पाने के लिए धर्म का इस्तेमाल कैसे रोका जाये. आतंकी हिंसा का एक मुख्य कारण है अमरीकी साम्राज्यवाद का तेल के संसाधनों पर कब्ज़ा करने का प्रयास और तेल उत्पादक क्षेत्र में प्रतिक्रियावादी और संकीर्ण शासकों को प्रोत्साहन. अमरीका के इन प्रयासों को नियंत्रित कर और पूरे विश्व में प्रजातान्त्रिक सोच को बढ़ावा देकर, दुनिया को इस कैंसर के मुक्ति दिलाई जा सकती है.