प्रधानमंत्री जब विश्व आर्थिक मंच के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए दुनिया की कंपनियों के लिए भारत में रेड कार्पेट बिछाने की बात कर रहे थे तब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी चाहते थे कि प्रधानमंत्री विश्व समुदाय को यह जवाब दें कि देश की एक प्रतिशत आबादी के पास कुल संपदा का 73 प्रतिशत हिस्सा क्यों है?

भारत में दो भारत

राहुल गांधी का सवाल जायज है। दुनिया में असमानता बहुत तेजी से बढ़ी है और बढ़ रही है। भारत में स्थिति और भी बदतर है। 2017 में अमीरों की संपत्ति 4.89 लाख करोड़ से बढ़ कर 20.7 लाख करोड़ हो गई है। 2010 के बाद अरबपतियों की संपत्ति में सालाना 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। असंगठित क्षेत्र के एक श्रमिक को अरबपतियों की कंपनियों के एक अधिकारी के साल भर के वेतन के बराबर वेतन पाने के लिए 941 वर्ष कार्य करना होगा। भारत में 2017 में 17 नये अरबपति बनें हैं। देश में अब अरबपतियों की तादाद 101 हो गयी है।

जब डावोस की बैठक के लिए प्रधानमंत्री स्विटजरलैंड पहुंचें हैं, तब ऑक्सफेम द्वारा जारी सर्वेक्षण के मुताबिक देश में 67 करोड़ आबादी की संपत्ति में महज एक फीसदी की वृद्धि हुई है। पिछले वर्ष कुल संपत्ति सृजन का 73 फीसदी हिस्सा एक फीसदी अमीर लोगों के पास पहुंच गया है। पिछले एक साल में दुनियाभर में सृजित 82 फीसदी संपत्ति एक फीसदी लोगों के पास सीमित होकर रह गयी है जबकि 3.7 अरब लोगों की संपत्ति में कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है।

लक्ष्य बराबरी का है

उक्त आंकड़े बतलाते हैं कि भारत और दुनिया में असमानता चरम पर पहुंच चुकी है। जबकि भारत के संविधान में समाजवाद को लक्ष्य बताया गया है तथा राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धांतों में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि सरकार द्वारा बनाई जाने वाली नीतियां असमानता बढ़ाने वाली नहीं होनी चाहिए। आजादी के बाद सरकारों द्वारा अपनाई गई नीतियों के चलते गैरबराबरी लगातार बढ़ती रही है। फिलहाल देश में गैरबराबरी बुलेट स्पीड से बढ़ने का कारण मोदी सरकार की आर्थिक नीतियां हैं। 3 वर्ष पहले कांग्रेस मुक्त भारत के नाम पर भाजपा-नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बनी एनडीए की सरकार में केवल यूपीए सरकार की नीतियों की गति तेज किया है। दिशा में कोई बदलाव नहीं आया है।

अगले आम चुनाव के लिए लगभग डेढ़ साल बाकी है। गुजरात के चुनाव नतीजों से पता चलता है कि मोदी जी का जादू समाप्त हो रहा है। सवाल यह है कि क्या कांग्रेस पार्टी भाजवा-एनडीए का विकल्प देने के लिए तैयार है ? जब भी विकल्प की बात आती है तब नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी की तुलना की जाने लगती है। लेकिन मसला दो व्यक्तियों का नहीं है। मुद्दा नरेंद्र मोदी की नीतियां बदलने का है, वैकल्पिक नीतियों का है।

कांग्रेस की नीतियां

कांग्रेस के भीतर वैकल्पिक नीतियों पर कोई चर्चा होती दिखलाई नहीं पड़ती। हालांकि कांग्रेस पार्टी ने नोटबंदी का विरोध किया। खुदरा क्षेत्र में एफडीआई का विरोध किया। जीएसटी का भी विरोध किया। क्या यह विरोध केवल इसलिए किया गया, क्योंकि कांग्रेस पार्टी विपक्ष में है, या इसलिए किया गया कि कांग्रेस की आर्थिक सोच में कोई बदलाव आया है ? भाजपा तथा मोदीजी जब तक विपक्ष में थे तब तक वे भी जीएसटी और एफडीआई का विरोध किया करते थे। लेकिन सत्ता में आने के बाद उन्होंने दोनों नीतियों को लागू करने के लिए रातदिन एक कर दिया।

यह सर्वविदित है कि कांग्रेस पार्टी की आर्थिक सोच मनमोहन सिंह, चिदंबरम और अहलूवालिया की सोच के अलावा कुछ और नहीं है। इन तीनों की सोच अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक की उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों को लागू करने से जुड़ी हुई है। इस मायने में अरुण जेटली और चिदंबरम की सोच में कोई अंतर नहीं है। दिशा एक ही है, गति का अंतर है। यह बात मोदी बार बार दोहराते भी हैं। डावोस जाते समय टाइम्स नाउ को दिये इंटरव्यू में उन्होंने बार बार कहा भी है कि जीएसटी पारित कराने के लिए हमने मिलजुल कर कार्य किया है। भले ही राहुल गांधी आम सभाओं में इसे गब्बर सिंह टैक्स कहते रहे हों।

राहुल गांधी गैरबराबरी और बेरोजगारी के सवालों को बार बार उठा रहे हैं। इसकी जरूरत भी है। लेकिन सवाल उठाने भर से उनकी जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती। जब उन्होंने देश के 73 प्रतिशत संसाधन 1 प्रतिशत आबादी के कब्जे में चले जाने पर सवाल उठाया तब उन्हें जवाब भी देना होगा कि वे कैसे इस स्थिति को बदलेंगे।

वर्तमान आर्थिक नीतियों पर चल कर क्या गैरबराबरी और बेरोजगारी कम नहीं की जा सकती है? ऐसी स्थिति में कांग्रेस पार्टी को वैकल्पिक आर्थिक नीतियों के बारे में विचार-परामर्श करना होगा। जिन राज्यों में काग्रेस की सरकारें हैं वहां वैकल्पिक आर्थिक नीतियों पर काम भी करके लोगों के बीच अपनी विश्वसनीयता बनानी होगी। कांग्रेस नेतृत्व इस ओर ध्यान देता नहीं दिखलाई पड़ता। कांग्रेस को लगता है कि कुछ लोकलुभावन योजनाएं बनाकर वोटरों को आकर्षित किया जा सकता है।

वैकल्पिक नजरिया और कांग्रेस

देश में ऐसे कई विद्वान और अनुभवी अर्थशास्त्री हैं जो वैकल्पिक आर्थिक नीतियों पर कार्य करते हैं तथा गत कई दशकों से जब देश का बजट आता है तब वैकल्पिक बजट भी निकालते हैं। इस समूह के साथ कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को नजदीकी तौर पर कार्य करने की जरूरत है। वर्तमान विकास माडल रोजगार पैदा नहीं कर रहा है तथा देश का ग्रोथ रेट बढ़ने से देश के आम नागरिकों की आमदनी नहीं बढ़ रही है। इस तरह वर्तमान माडल संपूर्ण समाज की तरक्की और समृद्धि के लिए अुनपयोगी हो गया है।

कांग्रेस पार्टी को बाजार और राज्य के प्रति भी अपना नजरिया स्पष्ट करना पड़ेगा। बाजार को स्वतंत्र काम करने देने की सोच को बदलना होगा। सभी यह जानते हैं कि इस समय बाजारवाद दुनिया की मुख्यधारा का मूल विचार बन चुका है। बार बार यह पूछा जाता है कि बाजार लोगों के लिए है या लोग बाजार के लिये है? इसी तरह कल्याणकारी राज्य को ध्वस्त कर, पूरे सार्वजनिक क्षेत्र को ध्वस्त कर समाज और देश को बाजार के हवाले करने के कई देशों के उदाहरण भी आज दुनिया के सामने हैं।

कांग्रेस पार्टी दुनिया के अनुभव से कुछ सीखने को तैयार है या नहीं यह अहम प्रश्न है। विश्व बैंक और आईएमएफ को भी अब खुले बाजार की सीमाएं समझ में आने लगी हैं। खुद प्रधानमंत्री ने डावोस के भाषण में कहा कि वैश्वीकरण की चमक फीकी पड़ रही है। खुले बाजार की वकालत करने वाले खुद संरक्षणवाद की नीति अपना रहे हैं। इन परिस्थितियों में कांग्रेस पार्टी को विकास की परिभाषा का पुर्नअवलोकन करना पड़ेगा।

विकास के नये माडल की तलाश के लिए कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व तैयार दिखलाई नहीं पड़ता। यदि ऐसी कोई तैयारी होती तो पार्टी के नेतृत्व द्वारा प्रेस कांफ्रेंस या नेताओं के भाषणों के माध्यम से बताया गया होता। आल इंडिया कांग्रेस कमेटी में कभी इस पर चर्चा हुई होती। असल में कांग्रेस पार्टी को वैकल्पिक विकास के माडल को तलाशने के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है। आजादी के पहले जब गांधी जी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी चला करती थी तब के आर्थिक प्रस्तावों का पुर्नअवलोकन भर करने की जरूरत है।

नया मडाल कैसा हो

विकास का वैकल्पिक माडल, वर्तमान विकास के माडल की तरह केंद्रीकृत पूंजी, ऊर्जा और उच्च तकनीक पर आधारित नहीं हो सकता। वैकल्पिक माडल में जल-जंगल-जमीन को कोर्पोरेट को केवल मुनाफा कमाने के लिए सौंप देने की नीति समाहित नहीं हो सकती। विकेंद्रीकरण के आधार पर ही वैकल्पिक माडल विकसित किया जा सकता है। महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कांग्रेस पार्टी वर्तमान लीक से हट कर कुछ सोचने को तैयार है या नहीं। पार्टी के भीतर जयराम रमेश और मणिशंकर अय्यर जैसे कुछ नेता लीक से हट कर बात करते दिखलाई देते हैं लेकिन उनका पार्टी में वजूद बहुत कम है। मणिशंकर अय्यर को तो फिलहाल कांग्रेस से बाहर कर दिया गया है।

देश भर में कांग्रेस पार्टी इन दिनों जन आंदोलनों के साथ खड़ी दिखलाई देती है। आम लोगों की धारणा यह है कि कांग्रेस पार्टी यह केवल इसलिए कर रही है, क्योंकि वह विपक्ष में है तथा अपने खोये हुए जनाधार को पाने के लिए उसे विभिन्न मंचों की जरूरत है। मिसाल के तौर पर गुजरात को देखा जा सकता है। गुजरात में कांग्रेस जो कुछ भी हवा बना पाई वह इसलिए कि उसने तीन युवाओं का साथ लिया।

जिग्नेश के माध्यम से उसने दलितों के साथ रिश्ता बनाया। हार्दिक पटेल के माध्यम से पटेलों के साथ, और अल्पेश के माध्यम से ठाकुरों के साथ। यह केवल सोशल इंजीनियरिंग तक सीमित रिश्ता नहीं था। जिग्नेश दलितों के सम्मान का सवाल तो उठा ही रहे हैं लेकिन उन्होंने दलितों को भूमि देकर आर्थिक तौर पर ताकत देने की वकालत की। हार्दिक पटेल सीधे-सीधे पटेलों के लिए आरक्षण-रोजगार की बात कर रहे थे। तीनों युवाओं ने जिन सवालों को उठाया है उनका समाधान वर्तमान विकास के माडल में किया जाना संभव नहीं है। नये सिरे से नया आर्थिक माडल विकसित करने की जरूरत है।

वैकल्पिक सोच की जरूरत केवल आर्थिक मोर्चे पर ही नहीं, कांग्रेस पार्टी को यह सोचना जरूरी है कि वह किन कारणों से आम जन से कटती चली गयी है ? उसका मतदाता क्यों दूर होता चला गया है ? उसका जन आधार क्यों सिकुड़ता चला गया है ?

भाजपा में कांग्रेसी संस्कृति

दिलचस्प बात यह है कि नरेंद्र मोदी जो कल तक कांग्रेस मुक्त भारत की बात कर रहे थे, वे बार बार दोहरा रहे हैं कि मैं आजादी मिलने के पहले की कांग्रेस की बात नहीं कर रहा, आजादी के बाद कांग्रेस ने जिस कांग्रेस संस्कृति को जन्म दिया, जिसका असर लगभग सभी पार्टियों पर पड़ा है। उस संस्कृति से देश को मुक्त कराना चाहता हूं।

जातिवाद, परिवारवाद, भ्रष्टाचार, तुष्टिकरण को वे कांग्रेस संस्कृति के प्रतीक के तौर पर बता रहे हैं जिससे मुक्त कराने का दावा वे कर रहे हैं। वास्तविकता यह है कि भारतीय जनता पार्टी में कांग्रेस के सभी दुर्गुण जड़ें जमा चुके हैं। कांग्रेस संस्कृति भाजपा पर हावी हो चुकी है। आडवानीजी ने पहले ही कहा था कि भाजपा कांग्रेस की बी टीम बनती जा रही है। आज यही स्थिति देश के सामने है, जिसके चलते कांग्रेस और भाजपा में आम मतदाता बहुत अधिक अंतर नहीं देख पा रहे हैं। यह अंतर दिखलाई दे इसकी कोशिश कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को करनी होगी, तभी भाजपा का कोई विकल्प दिया जा सकेगा।

कांग्रेस-भाजपा का एकाधिकार

कांग्रेस के एकाधिकार को तोड़ने के लिए डा राममनोहर लोहिया ने गैरकांग्रेसवाद की रणनीति बनाई थी। वह सफल भी रही। 1967 के बाद गैरकांग्रेस सरकारें राज्य और केंद्र में लगातार बनती चली गयीं। अब भाजपा देश के 19 राज्यों में सरकारें बना चुकी है। उसका भी एकाधिकार लगभग कायम हो गया है। भाजपाई एकाधिकार कांग्रेस के एकाधिकार से अधिक खतरनाक है।यह धर्म के नाम पर समाज में हिंसा फैला रही है।

देश में फिर से एक बार पुरातनपंथी संकीर्ण सोच लागू कर रही है। भाजपा के नेता हर संभव तरीके से मनुवाद समाज पर थोपने पर आमादा है। ऐसी स्थिति में भाजपा के रोड रोलर को रोकने के लिए विपक्षी एकता आवश्यक हो गयी है। यह एकता वैकल्पिक नीति, सिद्धांतों, कार्यक्रमों पर आधारित होगी, तभी देश की वर्तमान समस्याओं का हल हो सकेगा। लेकिन पहले लाख टके का सवाल खड़ा है, क्या कांग्रेस पार्टी अपनी नीतियां बदलने को तैयार है ?