प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर बिना व्यवस्था में कोई गुणात्मक परिवर्तन किए बच्चों को परीक्षा लेकर असफल घोषित करने की तैयारी है। इस बात का कोई तथ्यात्मक प्रमाण न होते हुए भी कि कक्षा 8 तक बच्चों को असफल न करने की नीति से शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता में गिरावट आई है और चरमराई शिक्षा व्यवस्था की अनदेखी करते हुए बच्चों को असफल न करने की नीति वापस लेने की पहल की गई है। पढ़ाई के साथ साथ ही मूल्यांकन करने की बात को छोड़ पुनः बच्चों के ऊपर परीक्षा व्यवस्था थोपी जाएगी। 2015 के विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत में 28.86 लाख बच्चे विद्यालयी व्यवस्था के बाहर हैं। उपयुक्त आयु समूह के 92.3 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक व माध्यमिक विद्यालयों में पंजीकृत हैं। उच्च माध्यमिक स्तर पर यह आंकड़ा 61.8 प्रतिशत है। इसका मतलब यह हुआ कि बच्चों की उपर्युक्त संख्या जिसने कभी विद्यालय को अंदर से नहीं देखा के अलावा एक बड़ी संख्या वैसी भी है जो माध्यमिक से उच्च माध्यमिक की सीढ़ी नहीं चढ़ पाते। इतनी बड़ी संख्या में बच्चों का विद्यालयी व्यवस्था छोड़कर बाहर आ जाने की समस्या का सरकार के पास कोई समाधान नहीं है।

कक्षा 8 तक बच्चों को असफल न करने की नीति का उद्देश्य उच्च माध्यमिक स्तर पर बच्चों की अच्छी संख्या बनाए रखना था। यह वह आयु होती है जब बच्चा पढ़ाई लिखाई में अपने से रुचि लेने लगता है क्योंकि जल्दी ही उसे यह भी तय करना होता है कि वह किन विषयों को लेकर हाई स्कूल अथवा इण्टरमीडिएट की पढ़ाई करेगा। यदि बच्चा माध्यमिक स्तर पर ही विद्यालय छोड़ देता है तो उसे अपने माता-पिता के समान मजदूरी ही करनी पड़ेगी। विद्यालय छोड़ देने पर उसके लिए मजदूरी के दुष्चक्र को तोड़ने की सम्भावना खत्म हो जाती है।

समाज के उच्च वर्ग-वर्ण वाले हिस्से ने अपना वर्चस्व और उनकी संतानों को जो सुविधाएं मिलती हैं उनको कायम रखने के लिए यह भ्रम फैलाया है कि बच्चों को असफल न करने की नीति से शिक्षा का स्तर गिरा है और बहुसंख्यक गरीब वर्ग के बच्चों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए परीक्षा को एक औजार के रूप में इस्तेमाल करना चाहता है। भारतीय जनता पार्टी, जो इस प्रभावशाली वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, की सरकार मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम में बदलाव लाकर कक्षा 8 तक बच्चों को असफल न करने की नीति वापस लेकर परीक्षा लेने की व्यवस्था बहाल करेगी जिसका शिकार कई बच्चे बनेंगे। गाज खासकर ऐसे बच्चों पर गिरेगी जो कमजोर सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से हैं और जो अपने परिवारों में पढ़ने वाली पहली पीढ़ी है। अतः असफल न करने वाली नीति को वापस लेना गरीब विरोधी व प्रतिक्रियावादी कदम है और कोई भी सरकार जो समावेशी विकास की पक्षधर है ऐसा कदम नहीं उठाएगी। भारतीय जनता पार्टी का पारम्परिक वर्ग-जाति-लिंग-धर्म के आधार पर वर्चस्ववादी व्यवस्था को कायम रखने वाला चरित्र एक बार फिर सामने आ गया। विद्यालय बीच में छोड़ने वालों में बडा प्रतिशत लड़कियों का होता है। भाजपा सरकार की नीतियां ऐसी लड़कियों की संख्या और बढ़ा देंगी।

क्या बच्चे शिक्षा के गिरते स्तर के लिए जिम्मेदार हैं? विश्व बैंक का शिक्षा पर हाल ही में जारी एक दस्तावेज ठीक ही कहता है कि सीखे बिना शिक्षा की प्रक्रिया का होना सिर्फ एक अवसर गवांना ही नहीं बल्कि एक बड़ा अन्याय भी है। यदि शिक्षा की प्रक्रिया ठीक से नहीं हो पा रही तो इसके जिम्मेदार शिक्षक हैं। शिक्षकों की लापरवाही का खामियाजा बच्चे भुगतेंगे। सरकारी विद्यालयों की समस्या यह है कि शिक्षकों को पढ़़ाने के लिए कैसे प्रेरित किया जाए? यदि पढ़ाई ठीक से होने लगे तो बच्चे सीखेंगे ही। वर्तमान में दिल्ली सरकार को छोड़कर कोई भी सरकार ऐसी नहीं दिखाई देती जो अपने विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने हेतु प्रयासरत हों। पूर्व में केरल, तमिल नाडू व हिमाचल प्रदेश में इस दिशा में काफी अच्छा काम हुआ है। इन राज्यों में साक्षरता दरें काफी ऊंची हैं।

2005 में प्रोफेसर यशपाल की अध्यक्षता में गठित एक समिति ने राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के स्वरूप पर एक दस्तावेज प्रस्तुत किया जिसने विद्यालय स्तर पर ही आंतरिक सतत् एवं समग्र मूल्यांकन प्रक्रिया की संस्तुति की जिसे बाद में शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009, में शामिल कर लिया गया। कई राज्यों ने अपनी अपनी समझ के अनुसार सतत् एवं समग्र मूल्यांकन की प्रक्रियाएं स्थापित कीं। यह बात तो सबको समझ में आ गई कि पढ़ाई लिखाई के अलावा सामाजिक व भावनात्मक परिपक्वता भी जरूरी है। हलांकि पढ़ाई लिखाई छोड़ कर किसी अन्य विषय को बहुत प्राथमिकता नहीं दी गई। उदाहरण के लिए पहले से पढ़ाए जा रहे औपचारिक विषयों के मूल्यांकन में तो अंक दिए जाते रहे व अन्य विषयों में अक्षर ग्रेड दिए गए जबकि संस्तुति यह थी कि सभी विषयों में ग्रेड ही दिए जाएं।

ज्यादातर लोगों ने सतत् एव समग्र मूल्यांकन का अर्थ निकाला लगातार परीक्षाएं लेते रहना जिससे छात्रों पर बोझ और भी बढ़ गया। राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के स्वरूप, 2005, के मुताबिक मूल्यांकन प्रक्रिया शिक्षण का अंतरंग हिस्सा होनी चाहिए ताकि बच्चे अनावश्यक दबाव, परेशानी, चिंता या अपमान न झेलें और एक सामाजिक नागरिक बन सकें। किंतु बच्चों को असफल न करने वाली नीति को वापस लेकर बच्चों को ही शिकार बनाया जा रहा है।

यहां इस बात का जिक्र करना संदर्भ से बाहर नहीं होगा कि भारत सरकार, 15 वर्ष की आयु के बच्चों का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ज्ञान व कौशल का आंकलन करने के लिए होने वाला, ’पीसा’ परीक्षण अपने यहां नहीं होने देती क्योंकि उसे डर है कि अन्य 72 देशों की तुलना में, जहां यह परीक्षण होता ह,ै भारत की स्थिति काफी दयनीय होगी। जो सरकार खुद परीक्षा से बचना चाहती है वह अपने 6 से 14 वर्ष के बच्चों की परीक्षा लेना चाहती है!

भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने पूर्व में परीक्षा का हव्वा घटाने के जो भी प्रयास हुए, जैसे सी.बी.एस.ई. की कक्षा 10 की बोर्ड परीक्षा की अनीवार्यता समाप्त कर दी गई थी, उन्हें पलट रही है।

किसी भी मुल्क में परीक्षा के नाम पर इतनी बड़ी धोखा धड़ी नहीं होती होगी जितनी भारत में होती है। कुछ राज्यों में शिक्षा विभाग के अधिकारियों व विद्यालय प्रबंधन की मिली भगत से व्यापक पैमाने पर नकल कराई जाती है जिससे परीक्षा की पूरी प्रकिया का ही मजाक बना दिया गया है। अतः शिक्षा की गुणवत्ता सिर्फ प्राथमिक या माध्यमिक स्तर पर ही नहीं आगे के स्तरों पर भी प्रभावित है। हाई स्कूल या इण्टरमीडिएट किए हुए या महाविद्यालय और विश्वविद्यालय से पढ़े छात्रों की गुणवत्ता पर भी प्रश्न चिन्ह हैं। यानी यह स्पष्ट है कि परीक्षा लेने से तो शिक्षा के स्तर में गुणात्मक सुधार नहीं होता।

यह बेहतर होता यदि सरकार बच्चों को असफल न करने वाली नीति को वापस लेने पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाए सतत् व समग्र मूल्यांकन लागू करने की प्रकिया पर ध्यान देती। इस मूल्यांकन प्रक्रिया से शिक्षा की गुणवत्ता सुधारी जा सकती थी जबकि परीक्षा लेने से ऐसा होगा ही इसकी कोई गारंटी नहीं।

यदि शिक्षा का अर्थ सीखने की दृष्टि से ज्ञान हासिल करना है तो शिक्षा की प्रक्रिया से परीक्षा को च्युत करना होगा। भारत में कई विद्यालय हैं जिन्होंने बिना परीक्षा लिए शिक्षा की उच्च गुणवत्ता बनाए रखी है।