भारत की स्वतंत्रता और उसके नए संविधान के लागू होने के साथ ही, देश की प्रगति की नींव रखी गई। हमारे देश के संविधान निर्माताओं का यह सपना था कि देश सभी क्षेत्रों में प्रगति करे, उसके सभी नागरिकों को आगे बढ़ने के समान अवसर उपलब्ध हों और वैज्ञानिक सोच, इस प्रगति का आधार हो। स्वतंत्रता के तुरंत बाद हमारे देश का नेतृत्व आधुनिक भारत के निर्माता जवाहरलाल नेहरू के हाथों में था। देश में एक के बाद एक कई वैज्ञानिक संस्थाएं और संस्थान अस्तित्व में आए और वैज्ञानिकों ने देश की प्रगति में महती योगदान दिया। निःसंदेह, कमियां थीं और गलतियां भी हुईं, परंतु मोटे तौर पर देश, वैज्ञानिक सोच पर आधारित आर्थिक समृद्धि की ओर बढ़ा। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 51ए वैज्ञानिक सोच के विकास को नागरिकों के मूल कर्तव्यों में शामिल करता है।

भारतीय जनता पार्टी, जो इस समय देश पर शासन कर रही है, के नेताओं की सोच इससे अलग है। विज्ञान और तकनीकी ने हमें सभी क्षेत्रों में प्रगति करने में मदद की है - चाहे वह स्वास्थ्य हो, परमाणु ऊर्जा हो, अंतरिक्ष तकनीकी हो या भवन निर्माण। परंतु अब ऐसा लग रहा है कि सत्ताधारी दल और उसके नेता, हमें उल्टी दिशा में धकेलना चाहते हैं।

पिछले सत्तर सालों में हमारे देष में दर्जनों उच्च कोटि के वैज्ञानिक संस्थान अस्तित्व में आए हैं और उन्होंने हमारे देश के समग्र विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। भारतीय जनता पार्टी, देश को किस दिशा में ले जाना चाहती है, उसका अंदाजा हमें एनडीए की पहली सरकार के गठन के साथ ही हो गया था। तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री मुरली मनोहर जोशी ने ज्योतिष और पुरोहिताई जैसे विषयो को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल करवाया था। हाल में, डॉक्टर सत्यपाल सिंह, जो कि केन्द्रीय मानव संसाधन राज्य मंत्री हैं, ने फरमाया कि डार्विन का उद्वविकास का सिद्धांत गलत है क्योंकि हमारे पूर्वजों ने किसी ग्रंथ में यह नहीं कहा है कि उन्होंने बंदरों को मनुष्य बनते देखा। बात यहीं समाप्त नहीं हुई। श्री सत्यपाल सिंह की इस ज्ञानवाणी का आरएसएस से भाजपा में आए राम माधव ने भी समर्थन किया।

सत्यपाल सिंह ने ही कुछ समय पहले कहा था कि हवाई जहाज का अविष्कार राईट बंधुओं ने नहीं किया था बल्कि शिवकर बापोजी तालपाड़े नामक एक भारतीय ने पहली बार यह दिखाया था कि मनुष्य हवा में उड़ सकता है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि स्कूलों और कालेजों के विद्यार्थियों को तालपाड़े जैसे लोगों के योगदान के बारे में बताया जाना चाहिए। डार्विन का उद्वविकास का सिद्धांत, एक लंबे शोध का परिणाम था और चार्ल्स डार्विन ने इस सिद्धांत को दशकों तक श्रमसाध्य अनुसंधान करने के बाद प्रतिपादित किया था। चूंकि विज्ञान, आस्था पर आधारित नहीं होता इसलिए किसी भी सिद्धांत में कमियों को वैज्ञानिकों की आने वाली पीढ़ियां दूर करती जाती हैं और इस तरह विज्ञान का विकास होता है। इसके विपरीत, धार्मिक कट्टरपंथियों की यह मान्यता होती है कि सारा ज्ञान पहले से ही धर्मग्रंथों में मौजूद है और उसे चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि वह दैवीय वाणी है। सिंह-जोशी-राम माधव अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो इस तरह की प्रतिगामी सोच रखते हों। ईसाई कट्टरपंथियों ने भी सृष्टि के निर्माण का अपना सिद्धांत प्रतिपादित कर डार्विन को गलत ठहराने की कोशिश की थी। जाकिर नायक जैसे मुस्लिम कट्टरपंथियों ने भी डार्विन के सिद्धांत को बेतुके तर्कों के आधार पर खारिज किया था।

सिंह के बयान से देश के वैज्ञानिक समुदाय को गहरा धक्का लगा। कई वैज्ञानिकों ने अपनी पीड़ा और क्षोभ व्यक्त करने के लिए मंत्रीजी को एक पत्र लिखा। इसमें कहा गया कि उनका बयान भ्रामक है। “इस बात के पर्याप्त और निर्विवाद प्रमाण हैं कि मनुष्यों और वानरों के पूर्वज एक ही थे”। पत्र में यह भी कहा गया कि मंत्री का यह दावा कि वेदों में मनुष्यों के सारे प्रश्नों के उत्तर हैं, अतिशयोक्तिपूर्ण है और ‘‘भारतीय वैज्ञानिक परंपरा के उन सैकड़ों अनुसंधानकर्ताओं का अपमान है जिन्होंने अत्यंत परिश्रम से विज्ञान के क्षेत्र में शोध और खोजें की हैं”।

“जब कोई मंत्री, जो देश में मानव संसाधन के विकास के लिए उत्तरदायी हो, इस प्रकार के दावे करता है तो उससे वैज्ञानिक समुदाय के वैज्ञानिक सोच और तार्किकता को बढ़ावा देने के प्रयासों को धक्का लगता है। इससे आधुनिक वैज्ञानिक शोध और शिक्षा प्रगति में बाधा आती है। इसके अतिरिक्त, इस तरह के वक्तव्यों से वैश्विक स्तर पर देश की छवि धूमिल होती है और देश में किए जा रहे वैज्ञानिक शोध पर अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय का विश्वास घटता है”, पत्र में कहा गया।

यह भी दावा किया जा रहा है कि कौरवों का जन्म हमारे पवित्र ग्रंथों में बताई गई तकनीकी से हुआ था और इसी के आधार पर बालकृष्ण गणपत मातापुरकर नामक व्यक्ति ने मानव अंगों के पुनर्जनन की तकनीकी का पेटेंट भी करवाया है। वे गांधारी द्वारा सौ पुत्रों को जन्म देने और कर्ण के कुंती के कान से पैदा होने की कथाओं से अत्यंत प्रभावित हैं। इस सिलसिले में भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के मुखिया वाय सुदर्शन के विचार भी दिलचस्प हैं। उनके अनुसार, महाभारत के अध्ययन से यह साफ हो जाता है कि उसमें वर्णित हथियार, परमाणु संलयन या परमाणु विखंडन के सिद्वांत पर आधारित थे। उनका यह भी दावा है कि लौह युग के भारत में स्टेम सेल तकनीकी मौजूद थी।

कहने की ज़रुरत नहीं कि हमारे नीति-निर्माताओं की यह सोच, देश में वैज्ञानिक शोध और वैज्ञानिक समझ दोनों को गंभीर क्षति पहुंचाने की क्षमता रखती है। इन दिनों ऐसे विषयों पर शोध को प्रोत्साहन दिया जा रहा है जो केवल कल्पना की उपज हैं। हाल में भारत सरकार ने ‘पंचगव्य’ (गौमूत्र, गोबर, घी, दही और दूध के मिश्रण) पर शोध के लिए भारी धनराशि आवंटित की है। यह साबित करने की हर संभव कोशिश की जा रही है कि राम सेतु (एड्म्स ब्रिज), भारत और श्रीलंका को जोड़ने वाला एक पुल था, जिसका निर्माण भगवान राम ने वानर सेना की मदद से किया था। यह साबित करने के प्रयास भी हो रहे हैं कि सरस्वती नाम की नदी कभी भारत की धरती पर बहा करती थी और यह भी कि रामायण और महाभारत ऐतिहासिक घटनाक्रम पर आधारित हैं।

इन सब प्रयासों के दो उद्देश्य हैं - पहला, यह साबित करना कि हमारे शास्त्रों में पहले से ही सारा ज्ञान उपलब्ध है और वैज्ञानिकों को अब उसे प्रकाश में लाने और सही साबित करने के लिए ही शोध करना चाहिए। दूसरा, दुनिया की सारी वैज्ञानिक सफलताएं और खोजें, भारत में की गईं और वह भी इस देश में मुसलमानों और ईसाईयों के आगमन से पहले। यह दरअसल भारत को केवल हिन्दुओं और हिन्दू धर्म का देश बताने के प्रयासों का हिस्सा है। पिछले कई दशकों मे भारत में वैज्ञानिक शोध की मजबूत नींव तैयार हुई है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कई वैज्ञानिक संस्थान अस्तित्व में आए हैं। क्या हमारे देश का वैज्ञानिक समुदाय इन सारी उपलब्धियों पर पानी फेरने के प्रयासों का विरोध कर सकेगा? क्या हमारी आने वाली पीढ़ियां तार्किक ढंग से सोच सकेंगी और वैज्ञानिक शोध को आगे ले जा पाएंगी?

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

(अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)