उत्तर-पूर्व में जैसे सारे रंग बदरंग हो गये हैं और केसरिया चमक उठा है ! सवाल यह नहीं है कि यह बड़ा चुनाव था या छोटा; सवाल यह है कि यह भारत के तीन राज्यों का चुनाव था और चुनाव ही हैं कि जिनके ईंधन से संसदीय लोकतंत्र की गाड़ी चलती है. भारतीय जनता पार्टी ने सत्ता की अपनी गाड़ी में इन चुनावों के कारण पर्याप्त ईंधन भर लिया है. जिन्होंने इन चुनावों की अहमियत नहीं समझी उनकी टंकी खाली पड़ी है.

इस बारे में अभी कोई विवाद है ही नहीं कि इस वक्त भारतीय जनता पार्टी का मतलब ‘नशा’ है ! मुझे यह ‘नशा’ कहां से मिला ? प्रधानमंत्री के पसंददीदा खेल से मुझे यह ‘नशा’ मिला - नरेंद्र मोदी का ‘न’ और अमित शाह का ‘शा’ बराबर ‘नशा’ ! यह ‘नशा’ आप निकाल दें तो फिलवक्त देश के 29 पूर्ण राज्यों में से 20 में सीधे या मिल कर तथा केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार चला रही भारतीय जनता पार्टी शून्य हो जाएगी. इसलिए पार्टी इस ‘नशे’ को घूंट-घूंट कर नहीं, घटाघट पीये जा रही है. इस नशे को गाढ़ा करने वाला जो, जहां से, जिस तरह, जिस कीमत पर मिले वही सोना है.

संसदीय लोकतंत्र का शुरू से ही यह चलन रहा है कि जो चुनाव जितवा सके वही सबसे बड़ा सर्वमान्य नेता ! नेहरू-खानदान शुरू से यही करता आया और इसलिए सर्वमान्य बना रहा. उसका वह जादू जैसे-जैसे टूटा वैसे-वैसे इस खानदान का रुतबा कम होता गया. भारत की किसी भी राजनीतिक पार्टी में इस बराबरी का दूसरा कोई जवाहरलाल या खानदान पैदा नहीं हुआ. किसी ने कभी तो किसी ने कभी यह या वह चुनाव जीता या जिताया जरूर लेकिन वह जुगनू की चकमक से अधिक कुछ नहीं था. यह ’नशा’ भी 2014 से ही चढ़ा है, चढ़ता ही जा रहा है. दो-एक विक्षेप हुए भी हैं तो वह ‘हैंगओवर’ मान लिया जा सकता है. इसमें भी कोई शक नहीं कि 2014 से अब तक हुए एक-एक चुनाव के पीछे ‘नशा’ ने जिस तरह ‘तन-मन-धन’ झोंक दिया है, उसका भी दूसरा कोई उदाहरण मिलना मुश्किल है. ‘सत्ता मिलना बहुत कठिन होता है, मिल गई सत्ता को टिकाये रखना उससे भी कठिन’ - ‘नशा’ इस उक्ति का मूर्त रूप है. अभी कुछ अौर राज्य हैं जो ‘नशा’ग्रस्त नहीं हैं. उन सबकी तरफ भी अपनी ही शैली में ‘नशा’ बढ़ता जा रहा है. चुनावतज्ञ जानते हैं और बताते हैं कि उन सबमें भी ‘नशा’ ऐसा ही चढ़ेगा. वे ठीक ही कहते होंगे शायद क्योंकि ‘नशा’ करने वाले और ‘नशा’ की संगत में रहने वाले ही सही जानते और कहते हैं.

लेकिन क्या देश भी नशा है ? क्या संसद का और राज्यों में सरकारो का बनना अौर चलना देश के बनने और चलने का पर्यायवाची है ? क्या चुनावी जीत-हार के ईंधन से ही देश चलता है ? अगर देश पार्टियों से अलग और कोई बड़ी इकाई नहीं है तो क्यों ऐसा है कि 70 सालों से पार्टियां जीतती आ रही हैं और देश हारता आ रहा है ? और हम ठंडे मन से सोचें तो पाएंगे कि इन 70 सालों में विचारधारा के मामले में खिंचड़ी सदृश्य कांग्रेस से ले कर वामपंथी, दक्षिणपंथी, जातिपंथी, क्षेत्रपंथी अादि तमाम दावेदारों को हमने केंद्र से ले कर राज्यों तक में आजमाया है. सभी एक-से साबित हुए या एक-दूसरे से बुरे ! देश जिन तत्वों से बनता है और चलता है, उन तत्वों की कसौटी पर देखें तो हमारे हाथ क्या लगता है ?

नगालैंड देश के सबसे विपन्न राज्यों में आता है और वहां यह हाल रहा इस बार कि 196 उम्मीदवारों में से 114 करोड़पति थे. यह भी जान लें हम कि 196 उम्मीदवारों में केवल 5 महिलाएं थीं. वाम की पताका जहां दो दशकों से अधिक से लहराती आ रही थी उसके 297 उम्मीदवारों में से 35 करोड़पति थे. मेघालय का समाज मातृसत्ता वाला समाज है जहां शादी के बाद पति पत्नी के घर जाता है और बच्चे मां का उपनाम धारण करते हैं. घर की सबसे छोटी बेटी पैतृक संपत्ति की वारिस होती है. यह है मेघालय का समाज; और मेघालय की राजनीति ? उसने 372 उम्मीदवारों में से, जिनमें 152 करोड़पति थे, केवल 33 महिलाओं को टिकट दिया. यह हमारी नई राजनीतिक संस्कृति की घोषणा है. इसकी नींव वहां दिल्ली में हैं जहां बैठे सांसदों की औसत संपत्ति 14 करोड़ रुपयों की बैठती है. 525 सांसदों में से 442 करोड़पति हैं जो 2014 में देश का सबसे मंहगा चुनाव-युद्ध जीत कर आए हैं. अब ऐसी संसद और ऐसी विधानसभाएं देश-समाज का विकास किस चश्मे से देखेंगी? कभी देश का सबसे दरिद्र अादमी हमारे लिए चुनौती हुआ करता था, क्योंकि गांधी ने उसे ही कसौटी बना दिया था; अाज वही जमीन पर हो कि जंगल में कि जल में कि हवा में, निरंतर हमारे निशाने पर है- चुनौती के रूप में नहीं, शिकार के रूप में !

अब विकास खोजे कहीं मिलता नहीं है याकि जो मिलता है उसे ही आप विकास मान लें. विकास के दानवाकार आंकड़ों जरूर मिलते हैं. लेकिन हम जान गये हैं कि आंकड़ों का कोई सच नहीं होता. हर सत्ता के पास आंकड़ों के अपने कारखाने होते हैं जो मन मुताबिक, सुविधाजनक आंकड़ों का उत्पादन करते रहते हैं. जब लोक से मिलने वाली सत्ता सरकारों के लिए पर्याप्त नहीं पड़ती अौर वे कानून बना कर अपरिमित सत्ता व अधिकार अपने हाथ में करने लगती हैं, तब लोकतंत्र विफल होने लगता है. जब शिक्षा समाज का स्वाभाविक उपकरण न रह कर, शिक्षा के नाम पर खुलने वाली दूकानों में बंद हो जाती है और सरकारें उन दूकानों की पहरेदारी से अधिक कुछ करने लायक नहीं रह जाती हैं तब समाज नकली और अमानवीय होने लगता है. इसे आप इस तरह समझें कि शिक्षा की बेहतरीन दूकानों की सजती जा रही है कतारों के बावजूद हमारा देश बेहिसाब भ्रष्ट और बेहद क्रूर होता जा रहा है! इस समाज में सबसे अधिक प्रतिष्ठित वह है जो सबसे अनैतिक रास्तों से सत्ता-संपत्ति हासिल करता है. अौर यह सिर्फ राजनीतिज्ञों पर लागू नहीं होती है, यह किसी माल्या या नीरव मोदी तक सीमित नहीं है बल्कि यह नशा हम सब पर हावी है क्योंकि हम सब इसी स्कूल की पैदावार हैं.

बुरी शिक्षा बेरोजगारी का कारखाना होती है. हमारे यहां ऐसे कारखाने अनगिनत हैं. बेरोजगारी हमारे वर्तमान को विषाक्त करती है, हमारे भावी को निराशा, हतवीर्यता अौर अपराध की तरफ धकेलती है. इसलिए ही तो वह अभिशाप है. आज पूरा देश इसकी गिरफ्त में है. गांव पामाल हो गये हैं. कुशिक्षा ने उसकी जड़ों में मट्ठा डाल दिया है, हमारे तथाकथित ‘मीडिया’ ने उसमें जहर घोल दिया है. वहां का सारा स्वरोजगार हमारी नीतियों ने चुन-चुन कर खत्म कर दिया है; और उनकी कब्र पर बने कस्बे-नगर-महानगर नये ‘स्लम’ बन गये हैं जिनमें गुंडों की टोलियों का राज व वेश्याओं का व्यापार भर बच गया है. यहां अब कोई राज या कानून नहीं चलता है, इनके साथ तालमेल बिठा कर सब अपना धंधा चला रहे हैं.

कोई भी समाज अपनी एकता व समरसता की ताकत से बहुतेरी मुश्किलों का सामना कर लेता है. जब उसी एकता व समरसता को आप निशाना बनाते हैं तो समाज दम तोड़ने लगता है. यही रणनीति हमें गुलाम बनाने व गुलामी को मजबूत करने में काम आई थी, वही रणनीति आज दूसरी तरह से वही काम कर रही है. न सपने बचे हैं, न प्रतिबद्धता अौर न बुनियादी ईमानदारी ! बच गये हैं चुनाव जिनके आंकड़ों से सब खेल रहे हैं जबकि देश दम तोड़ रहा है.