यह एक सामान्य बात है कि अनेक सरकारी चिकित्सकों के संगठन अपना वेतन बढ़वाने की मांग अक्सर करते रहते हैं। यह भी देखने में आता है कि कुछ चिकित्सक ज्यादा पैसे कमाने के लोभ में मौका पाते ही सरकारी स्वास्थ्य सेवा छोड़ कर विदेशी या देशी, निजी या कॉर्पोरेट अस्पताल में पलायन कर जाते हैं। लेकिन कनाडा के चिकित्सकों द्वारा चलाए जा रहे एक अनूठे अभियान ने फिर से विश्वास दिलाया है कि सैकड़ों चिकित्सक आज भी स्वास्थ्य सेवा को ‘सेवा’ मानते हैं, न कि कोई व्यवसाय या कारोबार।

कनाडा के क्यूबेक राज्य के अभी तक 850 से अधिक चिकित्सकों और 150 से अधिक कनिष्ठ चिकित्सकों (जो स्नातकोत्तर अध्ययन के दौर में या फिर प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं) ने सार्वजनिक रूप से अपनी वेतन में वृद्धि की बात को नामंजूर कर दिया है। उनका कहना है कि उनकी अंतरात्मा को वेतन में बढ़ोतरी कैसे मंजूर हो सकती है, जबकि नर्स, अन्य स्वास्थ्यकर्मी और मरीज संसाधनों के अभाव में जूझ रहे हों (विरोध पत्र पढ़ें, वाशिंगटन पोस्ट न्यूज पढ़ें)। उनके अनुसार जब स्वास्थ्य सेवा बजट में कटौती हो रही हो, तब चिकित्सकों का वेतन बढ़ाना किसी भी प्रकार से न्यायोचित नहीं है।

इन चिकित्सकों का मानना है कि सशक्त स्वास्थ्य प्रणाली से ही जन-स्वास्थ्य सुरक्षा सम्भव है। जब नर्स और अन्य स्वास्थ्यकर्मी कम आय, चुनौतीपूर्ण और तनाव से भरी स्थिति में काम करेंगे और जीवनरक्षक स्वास्थ्य सेवाएं मरीज की पहुंच के बाहर होती जाएंगी तो स्वास्थ्य सुरक्षा का सपना कैसे साकार होगा? इन चिकित्सकों ने अपील की है कि कनाडा सरकार चिकित्सकों का वेतन बढ़ाने के बजाय इस धन से जन-स्वास्थ्य प्रणाली को सशक्त करे, ताकि नर्स और अन्य स्वास्थ्यकर्मी अनावश्यक तनाव के बिना बेहतर व्यवस्था में काम कर सकें और स्वास्थ्य सेवाएं सभी जरूरतमंदों तक पहुंच सकें।

यह महत्त्वपूर्ण मुद्दा कनाडा के चिकित्सकों ने उठाया है कि क्यों केवल उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों का ही वेतन बढ़ता रहता है, जबकि स्वास्थ्य बजट में कटौती होती है और स्वास्थ्य सेवा पर आश्रित अन्य लोग इसका कुपरिणाम झेलते हैं। यह भारत में भी हर क्षेत्र में देखने को मिल सकती है कि वरिष्ठ अधिकारियों का केवल वेतन ही नहीं बढ़ता, बल्कि उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले लाभ में भी इजाफा होता है। यही नहीं कई बार किसी पिछली तारीख से बढ़ा हुआ वेतन मिल जाता है। लेकिन निचले पदों पर कार्यरत लोगों, खासकर संविदाकर्मी और दैनिक मजदूरी पर काम करने वालों पर वेतन आयोग की कृपा दृष्टि नहीं रहती। जब से ठेके पर संविदाकर्मी या मजदूर लिए जाने लगे हैं, तब से यह भी गारंटी नहीं कि किए हुए काम का पूरा दाम मिलेगा या नहीं।

हालांकि भारत में भी कुछ ऐसे उदाहरण हैं जहां चिकित्सकों ने स्वास्थ्य सेवा को 'सेवा' का काम माना है। तमिलनाडु में वेल्लोर स्थित क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज (सीएमसी) भारत का दूसरे नंबर का शीर्षस्थ मेडिकल कॉलेज और अस्पताल है। गौरतलब है कि दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स को पहले नंबर पर माना जाता है। सीएमसी में वेतन अन्य मेडिकल कॉलेजों की तुलना में शायद सबसे कम है। यहां कार्यरत चिकित्सक, निदेशक और विद्यार्थी आमतौर पर बस से चलते हैं। तमिलनाडु की भीषण गरमी के बावजूद अस्पताल के निदेशक तक के पास वातानुकूलित कमरा नहीं है। लेकिन रोगियों के लिए पूरी सुविधाएं उपलब्ध हैं। कम वेतन और कम सुविधाओं में काम करने के बावजूद यहां के चिकित्सकों की उपलब्धियां बेमिसाल हैं। मसलन, भारत में अनेक अंग-प्रत्यारोपण, सबसे पहली बार एचआईवी की जांच आदि सब इसी अस्पताल में हुए। आज भी देश में एम्स के बाद यहीं सबसे अधिक मरीज स्वास्थ्य सेवा हासिल करते हैं।

यही एक अस्पताल है जहां अनेक दशकों से हर मेडिकल विद्यार्थी और चिकित्सक-प्रोफेसर को अनिवार्य रूप से हर साल ग्रामीण और दुर्लभ इलाकों में जाकर स्वास्थ्य सेवा देनी होती है। इसके विपरीत भारत में अनेक निजी मेडिकल कॉलेज ऐसे हैं जहां वेतन तो बहुत अधिक है, पर चिकित्सकीय कुशलता, शोध कार्य और शिक्षण के साथ समझौता होता है। जाहिर है कि चिकित्सकीय कुशलता, उद्यमिता, शोध कार्य और शिक्षण का वेतन से कोई सीधा ताल्लुक नहीं है।

इसके अलावा, बाबा आमटे के दोनों पुत्र विकास, प्रकाश और दोनों पुत्रवधु भारती और मंदाकिनी, प्रसिद्ध गांधीवादी चिंतक ठाकुरदास बंग के पुत्र अभय और पुत्रवधु रानी बंग, शहीद मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी द्वारा छत्तीसगढ़ के दल्ली राजहरा में स्थापित अस्पताल में काम करते हैं। ऐसे कुछ चिकित्सकों के अनुकरणीय उदाहरण मिल जाएंगे जिन्होंने किसी बड़े शहर में रह कर पैसा कमाने के बजाय गांवों में कुष्ठ रोगियों और आदिवासियों के बीच रह कर भारत के गरीब ग्रामीण वर्ग को चिकित्सा सेवा प्रदान करने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया।

क्यों आवश्यक है अधिकतम आय सीमा तय करना?

अगर हम वास्तव में एक ऐसी व्यवस्था कायम करने में विश्वास रखते हैं जहां कोई भी व्यक्ति अमानवीयता का शिकार न हो तो सिर्फ चिकित्सकों के लिए ही नहीं, बल्कि हर क्षेत्र में- चाहे वह निजी हो या सरकारी- न्यूनतम और अधिकतम आय सीमा, दोनों का ही तय होना अनिवार्य है। विख्यात समाजवादी चिंतक डॉ राममनोहर लोहिया ने कहा था कि न्यूनतम और अधिकतम आय में अंतर 1 : 10 के अनुपात से अधिक नहीं होना चाहिए। अगर अंतर अधिक होगा तो जाहिर है कि समाज में गैर-बराबरी, शोषण, असंतुलन और अन्याय पनपेगा।

ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2017 में विश्व की 82 प्रतिशत सम्पत्ति पर मात्र एक प्रतिशत सबसे अमीर लोगों का कब्जा था। इसी रिपोर्ट के अनुसार, 2016 में भारत की 58 प्रतिशत सम्पत्ति पर एक प्रतिशत अमीर लोगों का स्वामित्व था और 2017 में बढ़ कर यह 73 प्रतिशत संपत्ति पर एक प्रतिशत अमीर लोगों के कब्जे के रूप में हो गया। अगर केवल चंद लोग ही सर्वोत्तम स्वास्थ्य, शिक्षा, जीवनशैली का लाभ उठाएंगे और बाकी जनता जर्जर हालत वाली स्वास्थ्य-शिक्षा और अन्य मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति रहित हालत में जीने के लिए मजबूर होगी, तो समाज में बंधुत्व की भावना कैसे रहेगी?

अगर हम देशभक्त हैं तो भारत के संविधान में जो मूल्य निहित हैं, हम उन मूल्यों को चरितार्थ करें! भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार भारत एक सम्प्रुभतासम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य है। समाजवादी शब्द हमारे संविधान की प्रस्तावना में इसलिए है कि भारत के सभी नागरिकों के लिए सामाजिक और आर्थिक समानता सुनिश्चित होना वांछित है और जनता द्वारा चुनी गई सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह केवल कुछ लोगों के ही हाथों में अधिकांश धन जमा होने से रोके और सभी नागरिकों को एक अच्छा जीवन स्तर प्रदान करे।

महात्मा गांधी ने भी यही मंत्र दिया था कि हर इंसान की जरूरत पूरी करने के लिए तो संसाधन हैं, पर एक भी इंसान के लालच को पूरा करने के लिए संसाधन पर्याप्त नहीं हैं।

राजनीतिक वरुण गांधी ने भी जनवरी 2018 में यह कहा था कि संपन्न सांसदों को सरकारी वेतन नहीं लेना चाहिए। आशा है कि वे खुद इस पर अमल कर रहे होंगे, लेकिन सन्देश साफ है- सरकारी सेवा दे रहे हर व्यक्ति को यह चिंतन करना चाहिए कि उसे कितना वेतन चाहिए, या चाहिए भी कि नहीं। आजकल तो दाता-एजेंसी द्वारा पोषित गैर सरकारी संस्थाओं में कार्यरत तथाकथित ‘सामाजिक कार्यकर्ताओं’ को भी सेवा-क्षेत्र से अनेक गुना अधिक वेतन मिलने लगा है। सभी क्षेत्रों के लोगों को जरूरत से अधिक वेतन नहीं लेना चाहिए (इसमें लेखक भी शामिल हैं)।

हाल ही में समाचार पढ़ा कि उपभोग सामग्री पर निजी अस्पतालों ने 1700 प्रतिशत मुनाफा कमाया। भारत सरकार ने 2016 में जारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के मसौदे में यह कहा कि स्वास्थ्य सबसे अधिक गति से तरक्की करने वाला उद्योग है। अपने देश में निजी मेडिकल कॉलेजों की संख्या अब सरकारी मेडिकल कॉलेजों से अधिक हो गई है। यह वास्तव में चिंताजनक है कि निजी मेडिकल कॉलेज मोटा शुल्क लेकर चिकित्सक तैयार करते हैं। जबकि चिकित्सक बनने के लिए उन्हीं लोगों को आगे आना चाहिए जो सेवाभाव से चिकित्सा सेवा प्रदान कर सकें। जो चिकित्सक स्वास्थ्य-सेवा को धन कमाने के साधन के रूप में देखते हैं, उनकी जन-स्वास्थ्य सेवा में कोई जगह नहीं होनी चाहिए। हमारे देश में कितने ऐसे चिकित्सक हैं जो स्वास्थ्य सेवा का व्यवसायीकरण कर मोटापा कम कराने, शरीर को सुडौल बनाने, गंजे सिर पर बाल उगाने, यौन शक्ति बढ़ाने आदि का भ्रामक प्रलोभन देकर पैसा कमा रहे हैं। वे जन-स्वास्थ्य का काम नहीं कर रहे।

भारत सरकार की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 क्या एक जुमला मात्र है?

भारत सरकार ने 2017 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति जारी की, जिसमें अनेक वादे किए गए हैं। विश्व के सभी देशों ने 2030 तक क्षय रोग या टीबी उन्मूलन का वादा किया है। पर भारत प्रशंसा का पात्र है कि उसने 2025 तक ही क्षय रोग समाप्त करने का वादा किया। लेकिन यह भी सच है कि विश्व भर में सबसे अधिक क्षय रोग के मरीज भारत में ही हैं। क्षय रोग में गिरावट आने की दर अगर मौजूदा ही रही तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 2184 तक ही क्षय रोग उन्मूलन का सपना साकार हो पाएगा। भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद् की पूर्व निदेशक डॉ सौम्या स्वामीनाथन ने कहा है कि कुपोषण क्षय रोग का सबसे बड़ा कारण है। जब तक कुपोषण समाप्त नहीं होगा, तब तक क्षय रोग समाप्त करने का सपना भी पूरा नहीं होगा।

इसी तरह 2017 राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति और सतत विकास लक्ष्य 2030 के चलते भारत सरकार ने वादा किया है कि गैर संक्रामक रोगों की मृत्यु दर 2025 तक 25 प्रतिशत कम होगी और 2030 तक 33 प्रतिशत। गौरतलब यह है कि, आम जनता जिन स्वास्थ्य चुनौतियों, आपदाओं से जूझ रही है, उनमें से अधिकांश से बचाव मुमकिन है। उदाहरण के लिए पांच साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु का सबसे बड़ा कारण निमोनिया है, जिससे बचाव और इलाज मुमकिन है। फिर भी विश्व-स्तर पर सबसे अधिक बच्चे निमोनिया से भारत में ही मरते हैं। गैर-संक्रामक रोगों से 70 प्रतिशत मृत्यु होती है, जिनमें ह्रदय रोग, पक्षाघात, अनेक प्रकार के कैंसर, श्वास संबंधी रोग आदि शामिल हैं।

इन गैर-संक्रामक रोगों का खतरा काफी हद तक टाला जा सकता है अगर तम्बाकू और शराब का सेवन बंद हो, सभी नागरिकों को शारीरिक व्यायाम और श्रम करने का अवसर मिले, पौष्टिक आहार मिले, स्वच्छ हवा में सांस लेने को मिले आदि। एक ओर सरकार की छत्रछाया में ऐसे अनेक उद्योग पनप रहे हैं, जिनके उत्पाद गैर संक्रामक रोगों का खतरा बढ़ाते हैं जैसे कि शराब और तम्बाकू उद्योग, वहीं जो विकास मॉडल और नीतियां हमारी सरकार अपना रही है, वह अधिकांश नागरिकों के लिए, स्वच्छ हवा में सांस लेना, रोजाना व्यायाम और श्रम करना, पौष्टिक आहार लेना आदि दुर्लभ बनाती जा रही है। एक ओर अमीर वर्ग के लिए जहां व्यायामशाला यानी जिम आदि खुल रहे हैं, एक कंपनी स्वच्छ हवा के सिलेंडर बेच रही है, दूसरी ओर अधिकतर नागरिक नारकीय हालत में जीवन जीने के लिए मजबूर हैं। न तो उनके पास रहने के लिए हवादार घर हैं, न ही उनके बच्चों के खेलने के लिए सुरक्षित सार्वजानिक स्थान।

बहरहाल, कनाडा के चिकित्सकों द्वारा उठाया गया ऐतिहासिक कदम वास्तव में सराहनीय और अनुकरणीय है। लेकिन यह केवल चिकित्सकों तक ही नहीं सीमित रहना चाहिए। चाहे वे समाज सेवी होने का दावा करने वाले राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधि हों या फिर वे सरकार के अधिकारीगण हों, वकील हों या अन्य पेशेवर, उद्योगपति हों या व्यापारी, सबके वेतन की अधिकतम सीमा तय करनी होगी, तभी समाज में व्याप्त विषमताएं दूर हो पाएंगीं।

सरकार से वेतन पाने वाले, सरकारी अस्पताल में इलाज करवाएं इसके अलावा हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जस्टिस सुधीर अग्रवाल और जस्टिस अजीत कुमार ने अपने फैसले में कहा है कि सरकार से वेतन पाने वालों को सरकारी अस्पतालों में ही इलाज कराना चाहिए और बड़े अधिकारियों या मंत्रियों को कोई विशेष सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। वे भी सामान्य लोगों की तरह ही इलाज कराएं। अगर ऐसा हो जाए तो सरकारी चिकित्सालयों की स्थिति काफी सुधर जाएगी और इस देश के गरीब को भी अच्छी चिकित्सा सेवा मुहैया हो जाएगी। साथ ही न्यायालय ने सरकारी अस्पतालों में रिक्त पदों पर भर्ती के आदेश भी दिए।

भारत ने 190 से अधिक देशों के साथ संयुक्त राष्ट्र महासभा में 2030 तक सतत विकास लक्ष्य पूरा करने का वादा किया है। हमारा मानना है कि बिना समाजवादी व्यवस्था कायम किए,हर एक व्यक्ति का सतत विकास मुमकिन नहीं।