भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक बड़े ही नाटकीय अंदाज में 8 दिसंबर 2016 को रात आठ बजे सरकारी टेलीविजन दूरदर्शन पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए देश के 500 रूपए और 1000 रुपए के करेंसी नोटों के विमुद्रीकरण (नोटबंदी ) की घोषणा की और उस कदम को उसी आधी रात से लागू भी कर-करवा दिया। इसका घोषित मुख्य उद्देश्य काला धन खत्म करना था। तो क्या देश में अब कोई काला धन नहीं रह गया है? जी नहीं, करेंसी के रूप में जमा कर रखा लगभग सारा काला धन बैंकों में वापस लौट कर काला से सफ़ेद धन हो गया। भारतीय रिजर्व बैंक आज तक उसकी गिनती पूरी नहीं कर सका है।

प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले आम चुनावों से पहले कालाधन को समाप्त करने का जो वादा किया था, वह औऱ कुछ नहीं, चुनावी स्टंट ही साबित हुआ है। अतीत में भारतीय जनता पार्टी ने नोटबंदी का जोरदार विरोध किया था। अब शायद जनता से यह आशा की जा रही है कि वह मोदी जी का कहा-किया वादा 'चुनावी जुमला' मान नोटबंदी की सारी तकलीफें भूल जाए, कुछ भी याद न रखे। दरअसल शासक वर्ग और उसके अपने अर्थशास्त्रियों ने काले धन को मिटाने या हटाने की आज तक जो भी योजना पेश की है, उससे कालेधन के पैदा होने में कोई रोक नहीं लगी है, बल्कि स्याह को सफेद करने में मदद ही मिली है। स्याह से सफेद बने इस धन की ताकत और भी ज्यादा होती है।

जनवरी 1946 में 1000 और 10,000 रुपए के नोटों को वापस ले लिया गया था और 1000, 5000 और 10,000 रुपए के नए नोट 1954 में फिर शुरू किए गए थे। 16 जनवरी 1978 को जनता पार्टी की गठबंधन सरकार ने फिर से 1000, 5000 और 10,000 रुपए के नोटों का विमुद्रीकरण किया था, ताकि जालसाजी और काले धन पर अंकुश लगाया जा सके। इंदिरा गांधी की सरकार ने जब 1969 में 14 बड़े व्यापारी बैंको का राष्ट्रीयकरण किया था तो उस समय बैंकों में कुल 4665 करोड़ रुपए ही थे। दिसंबर 1984 तक बैंकों में जमा रकम बढ़ कर 70 हजार करोड़ रुपए हो गई।

आजादी के बाद से अब तक सरकार ने काले धन पर रोक लगाने के कई तरीके अपनाए हैं। बिना आयकर दिए एकत्र किए गए पैसों पर छापा औऱ नए करदाताओं का पता लगाना एक तरीका है। दूसरा तरीका है कालेधन की स्वैच्छिक घोषणा करवाना। आपातकाल के दौरान 1976 में सरकार ने घोषणा की कि जो लाग स्वेच्छा से अपने काले धन की घोषणा कर देंगे, उन्हें दंडित नहीं किया जाएगा। ऐसा करने वालों को कुछ छूट भी दी गई। लेकिन इस उपाय से मात्र 1500 करोड़ रुपए के कालेधन की ही घोषणा हो पाई। जनता सरकार ने 1977 में कालेधन को समाप्त करने के लिए एक हजार रुपए के करेंसी नोटों का प्रचलन बंद कर दिया। लेकिन इस उपाय का भी असर ज्यादा नहीं हुआ और सिर्फ 790 करोड़ रुपए का ही काला

धन बाहर आ सका। 1980 में इंदिरा गांधी की सरकार ने 'विशेष धारक बांड' चलाई। इस बांड को खरीदने वालों के खिलाफ न सिर्फ कानूनी कार्रवाई न करने का आश्वासन दिया गया, बल्कि 10 साल बाद दो फीसदी के हिसाब से सूद समेत सफेद पैसा लौटाने का भी वादा किया गया। इस उदार कदम के बावजूद सिर्फ 963 करोड़ रुपया ही बाहर आ सका जो कालेधन के महासागर का चुल्लू भर ही था। आजादी के बाद काले धन में काफी वृद्धि हुई है, जिसका कोई हिसाब-किताब या लेखा-जोखा नहीं है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार देश का सकल घरेलू उत्पाद औसतन सालाना 5% की दर से बढ़ रहा है, जबकि बैंकों में जमा राशि प्रतिवर्ष 20 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। इस विरोधाभास का कारण काला धन ही है।

क्या है काला धन

भारतीय अर्थव्यवस्था में काला धन या काली अर्थव्यवस्था का पदार्पण द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हुआ था। उन दिनों कुछ आवश्यक चीजों की राशनिंग और कंट्रोल की वजह से चोरबाजारी की शुरुआत हुई थी। चोरबाजारी से शुरू हुए इस धंधे ने पहले काला बाज़ार और फिर काली अर्थव्यवस्था का रूप धारण किया। आजादी के बाद इस काली अर्थव्यवस्था का धीरे-धीरे विस्तार होता रहा। जब इसने आधिकारिक अर्थव्यवस्था की बराबरी प्राप्त कर ली तो अर्थशास्त्रियों ने इसे समानांतर अर्थव्यवस्था का नाम दे दिया। काली आमदनी, कालाधन, काली अर्थव्यवस्था, भूमिगत अर्थव्यवस्था, गैरकानूनी अर्थव्यवस्था और समानांतर अर्थव्यवस्था जैसे कई नामों वाली इस आर्थिक बीमारी के प्रति जनसाधारण में समझ स्पष्ट नहीं है। जनसाधारण की समझ में काला धन वह धन है जो बक्सों में बंद है अथवा सट्टे या गैर-कानूनी कार्यों में लगाया जाता है।

लेकिन यह तो काले धन का अंशमात्र है। काले धन के बहुत बड़े भाग का उपभोग बैंक जमा समेत वित्तीय संपत्ति उपलब्ध करने में किया जाता है। कर वंचित आय की भी एक विशाल धनराशि बैंकों में जाती है। फिर बैंकों द्वारा सरकार की योजनाओं समेत अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में आर्थिक सहायता देने में लगाई जाती है। कानून द्वारा निर्धारित कर देने के बाद बचे पैसे की सीमा से अधिक पैसा या कर न देकर जमा किया हुआ धन काला धन कहलाता है।

किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में अगर उसके आर्थिक विकास के अनुपात से अधिक रकम जमा हो तो यह इस बात का सबूत है कि उस देश में कोई समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही है। कालाधन कई तरीकों से बनता है, जिनमें करों में चोरी, नाजायज कमाई, तस्करी और प्रशासनिक भ्रष्टाचार प्रमुख हैं। पर सबसे अधिक कालाधन उत्पादन प्रणाली से ही आता है। इसी में सबसे अधिक काला धन लगा भी हुआ है। व्यापारियों और उद्योगपतियों का गठजोड़ जिस प्रकार जितना ही अधिक पैसा जमा करता है, उससे कालेधन की मात्रा उतनी ही अधिक बढ़ती है।

1985 -86 के बजट प्रस्ताव में इस बात का प्रावधान रखा गया था कि व्यापारी कर चुकाने के बाद बचे लाभ में से ही राजनीतिक दलों को चंदा दे सकते हैं। यह कोई भी समझ सकता है कि व्यापारी और उद्योगपति इस तरह का चंदा कर चुकाने के बाद बची हुई अपनी कमाई में से नहीं देंगे। चंदा देने के लिए उनके पास काले धन का प्रबंध रहता है, जिसे राजनीतिक दाल सहर्ष स्वीकार करते हैं। इस चंदे के एवज में शासक दल से अपेक्षा की जाती है कि कालेधन के खिलाफ कोई कड़ा रुख नहीं अपनाया जाएगा। ऐसा होता भी है। इतना ही नहीं, इस पूंजीपति वर्ग को उनके फायदे के लिए सरकार द्वारा विभिन्न प्रकार की छूट भी दी जाती है। इस बार के बजट में कई विदेशी कम्पनियों को राजनीतिक दलों को चंदा देने को 1976 के पूर्वकालिक भाव से कानूनी घोषित कर दिया गया है।

सत्ता वर्ग और काला धन रखने वाले पूंजीपति वर्ग के बीच इस प्रकार के मधुर संबंधों के कारण ही आज की राजनीति का जोर काले धन पर नहीं है, बल्कि काले धन का राजनीति पर कब्जा हो गया है। आयकर, बिक्री-कर, उत्पादन कर, सीमा-कर आदि के अधिकारियों में व्याप्त भ्रष्टाचार की वजह से कर के नियमों का कड़ाई से पालन नहीं हो पाता। इसके फलस्वरूप करों की चोरी होती है। थोक, खुदरा एवं उत्पादन स्तर पर काला धन के बनने की एक श्रृंखला शुरू हो जाती है। कालाधन की वृद्धि में सरकार तथा बैंकों की गलत नीतियों ने भी

अच्छा खासा योगदान किया है। बैंकों ने भारी पैमाने पर सावधि-जमा खाते में रकमें जमा की हैं। जमा करने वाला रकम कहां से लाता है, बैंक इसकी जांच-पड़ताल नहीं करता। सात वर्षों में वह रकम दुगनी ही नहीं हो जाती, बल्कि स्याह मुद्रा से सफेद मुद्रा में बदल जाती है। सरकार भी समय-समय पर सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्रों की कंपनियों को छूट देती है। ये कंपनियां इस जमा धन पर 15 से 18 प्रतिशत तक सालाना ब्याज देती हैं। इन कंपनियों में भी काला धन ही जमा हो रहा है। जब ये कंपनियां जमाकर्ताओं को रकम लौटाएंगी तो वह कालाधन सफेद मुद्रा होकर रहेगी।

काले धन को सत्ता की शह

हमारे देश में कालाधन क्यों बनता है? इस संबंध में अर्थशास्त्रियों के बीच मुख्यतः तीन तरह के मत प्रचलित हैं। पहली धारणा के अनुसार जब करों की दर अधिक होती है तो व्यक्ति करों की चोरी करने लगता है, जिसके फलस्वरूप काला धन बनता है। पर डॉ केएन काबरा जैसे कुछ अर्थशास्त्रियों का मत है कि करों की दर में कमी होने से कर वसूली में कोई खास असर नहीं पड़ता। बल्कि कर वसूलने वालों को सुविधा ही होती है। उदाहरण के लिए 1971 -72 से लेकर 1978 -79 की अवधि में करों की दर में उत्तरोत्तर कमी के बावजूद निम्न आय सीमा के अनुपात में उपरी आय सीमा के लोगों द्वारा दिए जाने वाले करों की कुल राशि में वृद्धि नगण्य थी। बाद के वर्षों में भी ऐसा ही हुआ।

दूसरे मत के अनुसार कंट्रोल, कोटा, परमिट और लाइसेंस प्रणाली के कारण कुछ वस्तुओं का वितरण सही ढंग से नहीं हो पाता है। फलस्वरूप इन वस्तुओं की आपूर्ति कम पड़ जाती है और काले धन की बनने की जमीन तैयार होती है। कई दशकों तक चीनी, जूट, स्टील और सीमेंट जैसे उद्योगों पर लगाए गए कंट्रोल के कारण कालेधन के बनने की प्रक्रिया में वृद्धि हुई। अर्थशास्त्र पर अनुसंधान करने वाले संस्थान, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च के एक अध्ययन के अनुसार सिर्फ 9 वर्ष में इन वस्तुओं पर लगाए गए कंट्रोल ने 844 करोड़ रुपए का काला धन पैदा किया। वांचू समिति और गाडगिल कमिटी ने भी स्वीकार किया था कि कन्ट्रोल, कोटा और लाइसेंस प्रणाली के कारण प्रशासनिक अधिकारियों के हाथों में कुछ ऐसे अधिकार आ जाते है जिसके फलस्वरूप भ्रष्टाचार बढ़ता है और कालाधन बनता है।

तीसरे मत के अनुसार राष्ट्रीय राजनीति भी काला धन को बढ़ावा देती है। यह सर्वविदित है कि चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक दलों को धन की जरूरत पड़ती है। इसके लिए सियासी पार्टियां उद्योगपतियों और व्यापारियों द्वारा दिए चंदे पर निर्भर करती हैं। चंदे की बड़ी-बड़ी रकम कालेधन का ही एक हिस्सा होतीं हैं। राजनीतिक दलों में सत्तारूढ़ दल को खासतौर पर चंदा देने वाले व्यापारी और उद्योगपति जानते है कि उनकी काली कमाई के बल पर जीतने वाला दल काले धन के खिलाफ भौंक तो सकता है, पर काले धन के रखवालों को काट नहीं सकता है। 1968 में सरकार ने राजनीतिक दलों को व्यापारी वर्ग से मिलने वाले चंदे पर रोक लगा दी थी। इसके बावजूद राजनीतिक दलों को परोक्ष रूप से पूंजीपति वर्ग से चंदे मिलते रहे।

काले धन को सफेद धन में बदलने के कई तरीकों में से एक तरीका है विभिन्न राज्यों और संस्थाओं द्वारा संचालित लॉटरी के पुरस्कृत टिकटों को काला धन रखने वालों द्वारा विजेताओं से खरीदा जाना। विजेता अगर खुद रकम प्राप्त करने जाता है तो उसे पुरस्कृत राशि में से ही विभिन्न प्रकार के कर चुकाने पड़ते हैं। पर काला धन रखने वाले इन विजेताओं को पुरस्कृत राशि से भी अधिक रकम देकर टिकट ले लेते हैं। इस तरह उनका काला धन सफेद हो जाता है।

कालाधन का कितना बड़ा पहाड़

इस देश में कितना पैसा काला है, इसका पता लगाना मुश्किल है। अर्थशास्त्रियों की मान्यता है कि काला धन सामान्य पैसे की तुलना में दो से ढाई गुना गतिशील होता है। कालेधन की इस गतिशीलता के कारण ही उद्योग, व्यापार, जमीन-जायदाद की खरीद-फरोख्त, फ़िल्म निर्माण, नाजायज विदेशी मुद्रा की खरीद-बिक्री में और फर्जी नामों में से कितना काला धन कहां पड़ा हुआ है, इसकी गिनती बहुत ही मुश्किल है। इन कठिनाइयों के बावजूद अर्थशास्त्रियों ने करेंसी नोटों के जीवनकाल और उनकी गतिशीलता, कर चोरी की दर तथा सर्वेक्षण जैसे कई आधार अपना कर समय-समय पर काले धन की मात्रा तय करने की कोशिश की है। प्रमुख अर्थशास्त्रियों में से केल्डोर ने 1953-54 में 600 करोड़ रुपए, वांचू ने 1961-62 में 700 करोड़ रुपए, 1963-64 में 1000 करोड़ रुपए, 1968 -69 में 1400 करोड़ रुपए, रांगनेकर ने 1961-62 में 1150 करोड़ रुपए, 1963 -64 में 2350 करोड़ रुपए, 1968-69 में 2833 करोड़ रुपए, 1969 -70 में 3080 करोड़ रुपए, गुप्ता और गुप्ता ने 1968-69 में 4504 करोड़ रुपए, 1969-70 में 5458 करोड़ रुपए, 1977-78 में 34,335 करोड़ रुपए, 1978-79 में 46,866 करोड़ रुपए, ली अमिल ने 1978-79 में 12163 करोड़ रुपए और एनएस प्रसाद ने 1978-79 में 12,611 करोड़ रुपए का कालाधन होने का अनुमान लगाया था। एक फौरी अनुमान के तहत 1983-84 में 508,277 करोड़ रुपए का संचित काला धन था।

2018 में देश में कितना काला धन है इसकी प्रामाणिक गणना नहीं है। आर वैद्यनाथन ने अनुमान लगाया है कि यह लगभग 7,280,000 करोड रूपए हैं। भारतीयों द्वारा विदेशी बैंको में चोरी से जमा किए गए धन का कोई अनुमान नहीं है। 28 अक्टूबर 2016 को भारत में 17.77 लाख करोड़ मुद्रा सर्कुलेशन में थी। 31 मार्च 2016 की रिज़र्व बैंक ऑफ़ इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार सर्कुलेशन में नोटों की कुल कीमत 16,।42 लाख करोड़ थी। रिपोर्ट अनुसार, 9,02,6।6 करोड़ नोटों में से 24% बैंक नोट सर्कुलेशन में थे। मोदीजी की नोटबंदी घोषणा के बाद रिज़र्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल और आर्थिक मामलों के सचिव शक्तिकांत ने एक प्रेस कांफ्रेंस में बताया कि सभी मूल्यवर्ग के नोटों की आपूर्ति में 2011 और 2016 और बीच में 40% की वृद्धि हुई थी, 500 और 1,000 पैसों में इस अवधि में क्रमश: 76% और 109% की वृद्धि हुई।

कालेधन ने समाज में एक ऐसे संस्कृतिविहीन नवधनिक वर्ग को भी जन्म दिया है जो नैतिक मूल्यों की छीछालेदारी करने की प्रक्रिया में एक प्रमुख घटक है। इस वर्ग ने काले पैसे के बल पर राजनीति में घुसपैठ की और समाज के आर्थिक, राजनीतिक-सामाजिक जीवन को प्रदुषित कर दिया। काला धन पर नियंत्रण लगाना वर्तमान परिस्थतियों में भी संभव है। लेकिन यह देखा गया है जब कभी सरकार ने कालाधन रखने वालों के खिलाफ कठोर कदम उठाने का फैसला किया तो कालेधन के दबाव में सरकार पीछे हट गई। सरकार ने कभी भी इस समस्या को ईमानदारी से हल नहीं करना चाहा। सरकार ऐसा कर भी नहीं सकती, क्योंकि कालेधन का चुनाव में प्रयोग होता है औऱ उसका सबसे अधिक फायदा सत्तारूढ़ दल ही उठाता है।