दिखावे के ‘सरोकारों’ से मर ही जायेगा लोकतंत्र
दिखावे के ‘सरोकारों’ से मर ही जायेगा लोकतंत्र
विपक्षी दलों द्वारा संसद न चलने देने से नाराज भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद आगामी 12 अप्रैल को उपवास पर बैठने वाले हैं. केन्द्रीय संसदीय कार्य मंत्री अनंत कुमार ने घोषणा की है कि संसद में कोई कामकाज नहीं हो पाने से दुखी एनडीए के सांसद 23 दिनों का अपना वेतन नहीं लेंगे. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी विपक्षी दलों के लोकतांत्रिक तकाजे को अबतक के सबसे निम्नतम स्तर पर बता चुके हैं. कुल मिलाकर, सरकार और सत्तारुढ़ भाजपा बजट सत्र के उत्तरार्द्ध में संसद में बने गतिरोध के बहाने विपक्षी दलों के लोकतांत्रिक तकाजों पर सवालिया निशान लगाते हुए इसे एक मुद्दा बनाने की कोशिश में है. इसी क्रम में, वह स्वयं को लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए सबसे अधिक प्रतिबद्ध साबित करने की जुगत में भी है.
पर, विगत 5 मार्च को शुरू हुए संसद के बजट सत्र की दूसरी पारी की हकीकत क्या है? हर बार की तुलना में इस संसदीय सत्र में विपक्षी दलों के हंगामे की ओट लेकर खुद सरकार और सत्तारूढ़ दल ने सदन को चलाने में उदासीनता दिखाई. उसकी रूचि संसद में गतिरोध बनाये रखने में कहीं ज्यादा थी. इसका एक उदहारण यह है कि16 मार्च को राज्यसभा में सदन की कार्यवाही के शुरु होने के बाद किसी तरह का विरोध और हंगामा नहीं था. लेकिन सभापति वैंकेया नायडू ने सदन की कार्यवाही को दिनभर के लिए स्थगित करने का फैसला सुना दिया. उन्होने सदन की कार्यवाही को स्थगित करने के अपने फैसले के औचित्य को साबित करने के लिए कहा कि विपक्ष केवल पंजाब नेशनल बैंक घोटाले पर पर चर्चा की मांग कर रहा है. जबकि पंजाब नेशनल बैंक में घोटाले पर ही चर्चा के बजाय बैंकों में हुए सभी घोटाले पर चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए.इसी तरह, लोकसभा में 5 मार्च से 19 मार्च तक की अवधि के दौरान 11 दिन सदन की कार्यवाही पहले 11 बजे प्रश्नकाल के लिए शुरू हुई और उसके बाद 12 बजे के बाद सदन की कार्यवाही दिनभर के लिए स्थगित कर दी गई.
अब सवाल यह है कि संसद को चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार की है या विपक्षी दलों की? लोकतांत्रिक परिपाटी के हिसाब से अगर देखें तो संसद को सुचारू रूप चलाने के लिए सरकार को पहलकदमी करनी होती है और अपना अड़ियल रवैया छोड़कर उसेअतिरिक्त लचीलापन दिखाना होता है. महत्वपूर्ण प्रश्नों पर सरकार के रुख पर सवाल खड़े करना और उन प्रश्नों पर चर्चा के लिए सरकार को बाध्य करना विपक्ष का स्वाभाविक काम है. लेकिन विपक्ष द्वारा उठाये गए सवालों को सरकार या सत्तारूढ़ दल द्वारा अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ लेने से गतिरोध खड़ा होता है और लोकतंत्र का दम घुटने लगता है.सरकार और मीडिया के बड़े हिस्से द्वारा संसद के न चलने के मसले को चालाकी से सिर्फ पैसे की बर्बादी के सवाल में सिमटाया जा रहा है. लोकतांत्रिक मूल्यों के जाया होने से ज्यादा बड़ा नुकसान पैसों का जाया होना है? लोकतांत्रिक मूल्यों का तकाजा है कि विपक्ष चाहे कितना भी कमजोर क्यों न हो उसके सवालों को तवज्जो देना सरकार की प्राथमिक और नैतिक जिम्मेदारी है. बहुसंख्यकों के वर्चस्व का नाम लोकतंत्र है या अल्पसंख्यकों समेत सभी समुदायों की आवाज़ को बराबर तरजीह देने का?
हकीकत देखें तो देश में आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं के सवाल अभी कायदे से मुखरित होना बाकी ही है. जब कभी भी अपने सवालों को लेकर समाज के इन तबकों में जरा सी भी हलचल होती है तो उसे तत्काल देश की ‘मुख्यधारा’ के खिलाफ करार दिया जाता है. मसलन ऊना, भीमा कोरेगांव से लेकर अनुसूचित जाति / जनजाति अत्याचार कानून को व्यावहारिक रूप से कमजोर कर देने के मसले पर दलितों की प्रतिक्रिया को स्वाभाविक के बजाय अनुचित ठहराने के लिए तरह – तरह के तर्क इन दिनों रचे जा रहे हैं. इन अहम मुद्दों पर ‘दुखी’ होकर भाजपातो क्या किसी भी दल के सांसद के उपवास बैठने की अभीतक कोई सूचना नहीं है. अपने समुदाय की दुर्दशा पर ‘नाराजगी’ जताते हुए भाजपा के चार – पांच दलित सांसदों नेजरुर प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी है. लेकिन प्रेक्षकों की माने तो राजनीति में ‘नाराजगी’ की ‘चिट्ठी’ को आम तौर पर प्रेशर कुकर के सेफ्टी वाल्व के तौर पर ही देखा जाता है.
मंदिरों के प्रति ज्यादा लगाव दर्शाने वाली और संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहते नहीं थकने वाली भाजपा की सरकार का इन दिनों ज्वलंत मुद्दों पर रुख क्या है? प्रश्न चाहे पंजाब नेशनल बैंक घोटाले का हो या नोटबंदी के हासिल का या अनुसूचित जाति / जनजाति अत्याचार कानून और विश्वविद्यालयों में आरक्षण की व्यवस्था को व्यावहारिक रूप से कमजोर कर देने का या किसानों की दुर्दशा का या फिर पेट्रोल – डीजल समेत रोजमर्रा की जरूरत वाले सामानों की आसमान छूती कीमतों का, सरकार का रवैया या तो उपेक्षा का रहा है या फिर भरमाने वाला. सरकार ने इन मसलों पर न तो संसद में और न ही संसद के बाहर देश को आश्वस्त करने वाला कोई जवाब दिया है. और हाल में संसद के स्थगित होने के पीछे जैसी प्रवृति दिखाई दी है उससे तो यही लगता है कि अगले लोकसभा चुनाव तक सरकार इन मसलों पर संसद में कोई भी जवाब देने से बचना चाहती है. तो क्या तबतक सत्तारूढ़ दल और उसके सांसदसंसद में कोई कामकाज नहीं हो पाने से ‘दुखी’ होकर लोकतंत्र को बचाने हेतु ‘उपवास’ जैसा प्रहसन रचते रहेंगे? दिखावे के इस किस्म के ‘सरोकारों’ से लोकतंत्र बचने के बजाय मर नहीं जायेगा?