मई 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में बनी पहली सरकार का पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा होने में करीब बरस भर ही बचा है. यह सरकार , संसद में अपना अंतिम पूर्ण बजट पेश कर चुकी है। मई माह में कर्नाटक विधान सभा के चुनाव पूरे हो जाएंगे. फिर, इसी वर्ष राजस्थान , मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों के चुनाव होने हैं। अटकलें हैं कि अगला लोक सभा चुनाव भी थोड़ा पहले कराया जा सकता है. मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार, 17 वीं लोकसभा के गठन के लिए चुनाव अगले वर्ष मई के पहले कराने होंगे. संविधान के तहत केंद्र अथवा किसी राज्य की सरकार अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा होने के पहले भी राष्ट्रपति या राज्यपाल के माध्यम से मध्यावधि चुनाव कराने की उसकी संस्तुति पर निर्वाचन आयोग को आदेश जारी करवा सकती है. लेकिन सरकार का निर्धारित कार्यकाल पूरा हो जाने के बाद नया चुनाव स्थगित करना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है.

चुनाव कराने के अंतिम निर्णय की घोषणा के बाद विस्तृत चुनाव कार्यक्रम तैयार करने और फिर उसके अनुरूप देश के विभिन्न राज्यों में अनेक चरण में मतदान कराने, पुनर्मतदान, मतों की गिनती, मतगणना के परिणामों की अधिकृत घोषणा, अलग - अलग दलों और उनके चुनाव- पूर्व अथवा चुनाव - पश्चात मोर्चा के विधायी निकाय की औपचारिक बैठक में उसके निर्वाचित प्रत्याशियों के नेता का चयन, चयनित नेता की नई सरकार बनाने की औपचारिक दावेदारी , प्रतिस्पर्धी दलों - मोर्चा की नई सरकार बनाने की प्रति-दावेदारी की सरल अथवा जटिल प्रक्रियाओं के उपरान्त नई सरकार के औपचारिक शपथ ग्रहण को पूरा होने में माह - दो माह लग ही जाते हैं.

मोदी जी अक्सर अपने स्वप्न का " न्यू इंडिया " बनाने की बात कहते है. इसका निर्माण 2019 तक तो नही ही हो सकता है. जाहिर है, वह अपने मौजूदा शासन काल से आगे की बात सोच और कह रहे हैं. पर इसका अवसर उन्हें मिलेगा या नहीं, यह अगला चुनाव ही तय करेगा. लेकिन क्या यह भी हो सकता है कि वह नया चुनाव कराये बिना और नए जनादेश के बगैर भी सत्ता में बने रहें? उनके शब्दकोष में असम्भव - अकल्पनीय कुछ भी नहीं लगता है. राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि उन्हें ऐसे बहुत सारे काम पूरे करने हैं जिनके लिए उन्हें प्रधानमंत्री पद पर आसीन किया गया है. कहा जाता है कि इन कार्यों में भारत को " हिन्दू -राष्ट्र " घोषित करने की जमीन तैयार करना भी शामिल है. लेकिन इस कार्य में मौजूदा संविधान बाधक है. मौजूदा संविधान में कहीं भी न्यू इंडिया का जिक्र नहीं है. संविधान सभा द्वारा 26 नवम्बर 1949 को पारित और 26 जनवरी 1950 से पूर्ण बल से लागू संविधान की प्रस्तावना और कालांतर में उसके विधि - सम्मत संशोधन में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि ' इंडिया दैट इज भारत', सर्वप्रभुता संपन्न , समाजवादी , धर्म -निरपेक्ष , लोकतांत्रिक गणराज्य है.

यह छिपी हुई बात नहीं है कि भारतीय जनसंघ और उसकी उत्तरवर्ती भारतीय जनता पार्टी (भाजपा ) जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) को अपनी ' मातृ संस्था ' कहती है, उसे यह संविधान कभी रास नहीं आया. आरएसएस का भारत के स्वतंत्रता संग्राम में कभी भी सांगठनिक योगदान नहीं रहा. उसने संविधान निर्माण के समय भी उसके मूल स्वरुप का विरोध किया था. उसके स्वयंसेवकों ने स्वतंत्र भारत का मौजूदा संविधान बनने पर उसकी प्रतियां जलाईं थी. आरएसएस को प्रस्तावना में शामिल सेक्यूलर ( धर्मनिरपेक्ष / पंथनिरपेक्ष ) पदबंध नहीं सुहाता है. उसके अनुसार धर्मनिरपेक्ष शब्द मात्र से भारत के धर्मविहीन होने की बू आती है जबकि यह जनसंख्या के आधार पर हिन्दू धर्म - प्रधान देश है. आरएसएस का राजनीतिक अंग मानी जाने वाली भाजपा का हमेशा से यही कहना रहा है कि आज़ादी के बाद से सत्ता में रहे अन्य सभी दलों, ख़ासकर कांग्रेस, ने वोट की राजनीति कर अल्पसंख्यक मुसलमानों का तुष्टीकरण किया है और हिन्दू हितों की घोर उपेक्षा की है जिसका एक उदाहरण हिंदुत्वपंथियों द्वारा 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में ध्वस्त कर दी गई बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर के निर्माण में विधमान राजनीतिक - सांविधिक अवरोध हैं.

विश्व के एकमेव हिन्दू राष्ट्र रहे पड़ोसी नेपाल में जबर्दस्त जन -आंदोलन के बाद राजशाही की समाप्ति के उपरान्त अपनाये नए संविधान में इस हिलायवर्ती देश को धर्मनिरपेक्ष घोषित किये जाने के प्रति आरएसएस और मोदी सरकार की खिन्नता छुपाये छुप नहीं सकी. मोदी सरकार ने इसके प्रतिकार के रूप में कुछ वर्ष पहले नेपाल की कई माह तक अघोषित आर्थिक नाकाबंदी कर दी.

भाजपा किसी भी देश को इस्लामी घोषित किये जाने से चिढ़ती है और साफ कहती है कि उसे "मज़हबी राष्ट्र" का सिद्धांत मंजूर नहीं है. फिर भी, भाजपा समेत आरएसएस के सभी आनुषांगिक संगठन भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के पक्षधर रहे हैं. मोदी जी का न्यू इंडिया, आरएसएस के सपनों के हिन्दू -राष्ट्र का ही एक भ्रामक सर्वनाम है जिसकी सारी परतें, प्याज़ के छिलकों की तरह खुलने में समय लगेगा. क्योंकि मौजूदा संविधान में भले ही अब तक एक सौ से भी अधिक संशोधन किये जा चुके हैं पर उसके मूल चरित्र को पलटना असंभव नहीं तो आसान भी नहीं है.

न्यू इंडिया के लिए नया संविधान बनाने की मोदी जी की मंशा की स्पष्ट झलक इस बरस के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर ' एक राष्ट्र एक चुनाव ' के उनके खुलेआम दिए एक वक्तव्य से भी मिली है. इस वक्तव्य की व्याख्या यह है कि लोकसभा और देश की सभी विधान सभाओं के चुनाव एक ही साथ करा लिए जायें ताकि विभिन्न राज्यों में अलग - अलग चुनाव न कराना पड़े, चुनाव कराने के राजकीय खर्च में कमी हो, सरकारें चुनावी दबाब में लोक -लुभावन पग उठाने के चक्कर से बच कर ' स्थिरता ' से राजकाज चला सके. आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, लोकसभा चुनाव कराने पर राजकीय खर्च प्रति मतदाता 2014 में 17 रूपये पड़ा था. इस तथ्य को पुरजोर तरीके से रेखांकित किया जाना चाहिए कि भारत एक संघ-राज्य है जिसके सभी राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव, केंद्र की विधायिका के निम्न सदन, लोकसभा के चुनाव के साथ ही कराने की अनिवार्यता का कोई संवैधानिक प्रावधान ही नहीं है. संविधान के रचनाकारों ने ' एक व्यक्ति, एक वोट, एकसमान मूल्य ' के सिद्धांत को अपनाया. उनके पास स्वतंत्र भारत की पहली लोकसभा के साथ ही सभी राज्यों को विधानसभाओं के भी चुनाव संपन्न कराने की व्यवस्था का प्रावधान करने का विकल्प खुला था। पर उन्होंने संघ-राज्य, भारत में संवैधानिक लोकतंत्रं की आवश्यकताओं के मद्देनज़र बहुत सोच -समझ कर केंद्र के केंद्रीयतावाद की संभावित प्रवृति पर अंकुश लगाना और राज्यों की संघीयतावाद को प्रोत्साहित करना श्रेयस्कर माना.

इस बीच, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का हालिया कथन कि आरएसएस चंद मिनट में अपनी फौज खड़ी कर लेगा, सांविधिक राजकाज में खुरपेंच है। उन्होंने बहुत सोच -समझ कर ही यह बयान दिया है. वह भलि भांति जानते है कि आरएसएस के दीर्घकालिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसके पास मोदी-राज संभवतः अंतिम मौका है. वह इस बात से भी अवगत हैं कि मोदी सरकार के हाथ से समय रेत की तरह फिसला जा रहा है और जिस लंपट पूंजीवाद के धनबल पर मोदी-राज कायम हुआ वह हवा के एक झोंके भर से उसी तरह ख़त्म भी हो सकता है जिस तरह ताश के पत्तों के बनाये महल ज़रा -सी फूँक से बिखर जाते हैं. भागवत जी के बयान से उनका कुछ दर्प साफ़ झलकता है कि आरएसएस के पास, भारत सरकार की आधिकारिक सेना के समानांतर एक हथियारबंद सेना मौजूद है, कि भारतीय सेना से ज्यादा अनुशासन संघ की सेना में है, कि भारत सरकार की सेना जंग की तैयारी करने में छह महीने लेगी जबकि आरएसएस के स्वयंसेवकों को ऐसा करने में महज तीन दिन लगेंगे. बेशक आरएसएस ने बाद में भागवत जी के बयान को मीडिया में तोड़-मरोड़कर पेश किया गया बताकर लोगों का ध्यान आरएसएस की गुप्त रणनीति से हटाने की कोशिश की है. पर कुछ सवाल तो खड़े हो ही गए हैं कि भारत की फौज से बड़ी कोई निजी फौज देश में कैसे हो सकती है? क्या आरएसएस को भारतीय सेना पर भरोसा नहीं है?, क्या कोई गृहयुद्ध की तैयारी चल रही है? मोदी सरकार इस पर चुप क्यों है?, क्या मोदी सरकार सिर्फ मुखौटा है? और क्या आरएसएस भारत की राजसत्ता की बागडोर कभी खुद ही संभाल सकता है?

आरएसएस को सैद्धांतिक रूप से भारत का संविधान सहज - स्वीकार्य नहीं लगता है. भागवत जी के बयान से लगता है कि आरएसएस को सेना का बेजा इस्तेमाल करने में मौजूदा संविधान अड़चन लगता है. इसलिए मोदी सरकार पर संविधान पलटने का दबाब है. यह रेखांकित करना जरूरी है कि जिन्हे आरएसएस के बारे में समुचित प्रामाणिक जानकारी नहीं है वही इसकी स्थापना के 93 बरस बाद भागवत जी के खुल्लम खुल्ला बयान से चौंक सकते हैं. वर्ष 2025 में आरएसएस की स्थापना की शताब्दी जयन्ती है. संकेत हैं कि वह चाहता है कि तब तक भारत, विधिवत हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाए.

गौरतलब है कि जब नाजी हिटलर के घोर दमनकारी और फासीवादी राजकाज का दुनिया भर में प्रतिरोध शुरू हुआ तब आरएसएस के द्धितीय सरसंघसंचालक, सदाशिवराव माधवराव गोलवलकर ( " गुरु जी " ) ने अंग्रेजी में ' वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड ' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी. इसमें स्पष्ट लिखा है कि भारत के हिंदुओं को हिटलर से सबक सीखनी चाहिए. आरएसएस ने अपने गुरु गोलवलकर की इस पुस्तक से कभी पल्ला नही झाड़ा है. पर उसने इस पुस्तक का ज्यादा प्रकाशन और प्रचार करने से पीछे हटना, बल्कि छुपा देना ही रणनीतिक कारणों से श्रेयष्कर समझा.

दिल्ली के एक्टिविस्ट , शम्शुल इस्लाम ने उक्त पुस्तक की मूल प्रति ढूंढ कर उसके स्कैन किये पन्नों को ज्यों - का - त्यों समावेश कर ' गुरु जी ' की बातों की पोल खोलने वाली, एक नई पुस्तक लिख डाली जो अमेजॉन से कोई भी खरीद सकता है. वी एंड आवर नेशनहुड डिफाइंड ' पुस्तक पहली बार 1939 में छपी थी. कुछ लोग़ इसे आरएसएस का बाइबिल कहते हैं. इस पुस्तक से और आरएसएस की गतिविधियों पर गौर करने से स्पष्ट हो जाता है कि उसके लिए ' हिन्दू ' का मतलब ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था और ' राष्ट्र ' का मतलब ' मनुवादी फासीवाद है. एक बात साफ है कि वह कोई सांस्कृतिक संगठन नहीं है. उसके उदेश्य राजनीतिक हैं. समाज सेवा और एकात्म मानववाद के उसके घोषित लक्ष्य महज जुमले हैं. आरएसएस ने खुद भी अपने राजनीतिक उदेश्य काफी हद तक सबके सामने रख दिए हैं. यह उदेश्य है हिंदुस्तान को ' हिन्दू राष्ट्र ' बनाना. पर, ' हिन्दू ' और ' राष्ट्र ' का उसका वह मतलब नही है जो आम लोग समझते है.

आरएसएस की स्थापना 1925 में के. बी. हेडगेवार ( ' डॉक्टर जी ') ने की थी। पर, उसे वैचारिक एवं संगठनिक आधार ' गुरु जी ' ने ही प्रदान किया. आरएसएस की स्थापना महाराष्ट्र में ब्राह्मणवाद के खिलाफ सशक्त आंदोलनों की प्रतिक्रिया में सवर्ण जातियों द्वारा हिन्दू के नाम पर अपना प्रभुत्व बहाल करने के लिए की गई थी. ये आंदोलन 1870 के दशक में ज्योतिबा फुले के नेतृत्व में ' पिछड़ी ' जातियों ने और 1920 के दशक में बाबासाहब डा. भीमराव अम्बेडकर की अगुवाई में दलितों ने छेड़े थे. ये महज संयोग नही कि आरएसएस के अब तक के सभी प्रमुख, महाराष्ट्र के चित्तपावन ब्राह्मण रहे है. बाद में 1994 में एक गैर-ब्राह्मण, लेकिन सवर्ण ही ( ठाकुर / क्षत्रीय), राजेन्द्र सिंह उर्फ रज्जू भैया आरएसएस के चौथे प्रमुख बने जो उत्तर प्रदेश के थे.

आरएसएस के वैचारिक आधारों पर और बात करने से पहले उसके सांगठनिक तंत्र को समझ लेना अच्छा रहेगा. आरएसएस के ' अखिल भारतीय सह - बौद्धिक प्रमुख कौशल किशोर की " प्रेरणा " से 1992 में " लक्ष्य एक कार्य अनेक ' नाम की एक पुस्तक छपी. इसके अनुसार, आरएसएस के नियंत्रण में अखिल भारतीय स्तर के 25 और प्रांतीय स्तर के 35 संगठन हैं. इनमें भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और विद्या भारती प्रमुख है. इसी पुस्तक के अनुसार तब देश भर के 25 हज़ार स्थानों पर आरएसएस की नियमित शाखाएं लगती थीं. पुस्तक वर्ष 1992 की है. इसलिए जाहिर - सी बात है कि उसके बाद के इन करीब 26 बरस में उनकी संख्या में कई गुना बढ़ोत्तरी ही हुई होगी. बहरहाल, उक्त पुस्तक के अनुसार इन शाखाओं की एक महत्वपूर्ण भूमिका ' राष्ट्र का हिंदूकरण और हिंदुओं के सैन्यकरण ' की कार्यनीति को आगे बढ़ाना है.

जैसा कि पुस्तक शीर्षक से ही स्पष्ट है आरएसएस के जितने भी संगठन, समितियां और मंच हो, सबका एक अंतिम लक्ष्य है और वह ' हिन्दू -राष्ट्र ' है. लेकिन हिन्दू राष्ट्र में क्या -क्या होगा और क्या -क्या नहीं होंगे यह तय कैसे होगा , कब तय होगा , कौन तय करेगा ऐसे अनगिनत प्रश्न हैं जिनके उत्तर एक झटके में नहीं दिए जा सकते हैं. नया संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए मौजूदा संविधान की समीक्षा कर उसे बदलने के लिए आवश्यक विधिक उपायों की संस्तुति करने के वास्ते एक कमेटी बनाने की चर्चा है. आरएसएस के पूर्व प्रचारक एवं सिद्धांतकार और भाजपा के पदाधिकारी रहे, के एन गोविंदाचार्य इस काम में लगे हैं. उन्होंने यह स्वीकार भी किया है. उनका कहना है कि मौजूदा संविधान में " भारतीयता " नहीं है और इसलिए उसकी जगह नया संविधान बने. गौरतलब है कि भारत के संविधान की समीक्षा के लिए पहले भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान एक कमेटी बनी थी. पर उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला. इसी सन्दर्भ में, यह उल्लेख करना गैर - मुनासिब नहीं होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान ही 1998 में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने, जो अभी राजस्थान के राजयपाल हैं, भरी विधान सभा में कहा था कि उन्होंने राज्य पुलिस को सारे अपराधियों को " लिक्विडेट " ( सफाया ) करने के आदेश दे दिए है. विधान सभा के तत्कालीन अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने, जो खुद अधिवक्ता रहे हैं और अभी बंगाल के राजयपाल हैं, मुख्यमंत्री के इस कथन की संवैधानिक वैधता परखे बगैर सदन की कार्यवाही के लिखित रेकॉर्ड से नहीं हटाया. भारत के संविधान तहत जीवन का अधिकार मूलभूत अधिकार है जिसका कार्यपालिका और विधायिका हनन नहीं कर सकती है. संविधान के तहत सिर्फ न्यायपालिका को क़ानून की समुचित प्रक्रियाओं के बाद ही किसी भी नागरिक को दुर्लभतम आपराधिक मामले में किसी को उसके जीवन के अधिकार से वंचित कर मृत्युदंड देने का अधिकार है. कल्याण सिंह सरकार के उक्त प्रकरण का मीडिया और अन्य ने समुचित संज्ञान नहीं लिया. लेकिन कुलदीप नायर सरीखे पत्रकार और मानवाधिकारवादियों के इसका विरोध करने के लिए लख़नऊ की सड़क पर उतरने के उपरान्त इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ में एक जनहित याचिका दाखिल की गई. याचिका में सदन को कार्यवाही के लिखित रिकार्ड के साथ - साथ सदन की पत्रकार दीर्घा में अपनी ड्यूटी के लिए उपस्थित इस स्तम्भकार की नोटबुक की प्रति भी संलग्न की गई. पत्रकारों के ऐसे नोट्स अदालत में " मेटेरियल " साक्ष्य के रूप में विचारार्थ दाखिल किये जा सकते है. बहरहाल , उच्च न्यायालय की लखनऊ पीठ ने उक्त जनहित याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि कल्याण सिंह को संभवतः पता नहीं होगा कि "लिक्वीडेशन " का विधिक अर्थ क्या होता है.

जिस बात पर चर्चा लगभग नहीं होती है, वह यह है कि स्वतंत्र भारत में 26 जनवरी 1950 से पूर्ण बल से लागू संविधान, उसकी रचियता संविधान सभा के गठन के पहले से, और ब्रिटिश सांविधिक राजतंत्र के करीब दो सौ वर्ष के औपनिवेशिक शासन में ही नहीं, उसके पूर्ववर्ती मुग़ल बादशाहों के शासन और उनके भी पूर्व के सम्राटों , राजाओ -महाराजों आदि के भी राज में सभी नागरिकों के कुछेक विधिक अधिकार थे. नागरिकों ने इनमें से जिसका सर्वाधिक आनंद लिया उसे मोटे तौर पर प्राकृतिक अधिकार कहा जा सकता है. इन अधिकारों का स्वामित्व किसी के पास नहीं है, फिर भी वे भौगोलिक सीमाओं, आर्थिक, राजनीतिक , सामाजिक , सांस्कृतिक , धार्मिक , जातीयता , नस्ल , त्वचा के रंग , भाषा - बोली , शारीरिक कद - काठी, आयु , लैंगिक फर्क और अन्य किसी भी विभाज्यकारी मानदंडों के पार पूरे ब्रम्हांड और उसकी सभी आकाशगंगाओं न सही पृथ्वी ग्रह के सभी जैव, प्राणियों, वनस्पतिओं और अजैव पदार्थों के लिए प्राकृतिक रूप से कमोबेश उपलब्ध है. यह दीगर बात है कि पृथ्वी ग्रह के पास प्राकृतिक प्रकाश का अपना कोई स्रोत नहीं है। पृथ्वी के बाशिंदों को प्राकृतिक प्रकाश अपने सौर मंडल से प्राप्त होता है। भारत जैसे भौगोलिक सीमाओं के भीतर सौर ऊर्जा -प्रकाश जितनी प्रचुरता से सहज, सरल, निःशुल्क उपलब्ध है वह उतनी प्रचुरता से सभी भौगोलिक सीमाओं के भीतर उपलब्ध नहीं है। इसलिए उन भौगोलिक सीमाओं के भीतर के बाशिंदों को धूप के सेवन के लिए कुछ धन खर्च कर समुद्र तट पर जाना -रहना पड़ता है। लेकिन कोई भी राष्ट्र -राज्य , सौर ऊर्जा को हथिया नहीं सकता है ना ही उसको उस तरह से बेचने या नीलाम कर सकता है जिस तरह से भारत समेत कई देशों की सरकारों ने अप्रचुर परिमाण में उपलब्ध ध्वनि तरंग दैर्घ्य ( स्पेक्ट्रम ) टेलिकॉम कंपनियों को बेचे या नीलाम किये है. भारत का मौजूदा संविधान , नागरिकों के इन प्राकृतिक अधिकारों के प्रति स्वाभाविक रूप से सुस्पष्ट नहीं है. लेकिन भारत के उच्चतम न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों ने भी 2 -जी , 3 -जी के कथित घोटालों से सम्बंधित मामलों में ऐसे निर्णय अथवा दिशानिर्देश दिए है जो नागरिकों के प्राकृतिक अधिकारों के संरक्षण की आवश्यकता पर जोर देते हैं. जाहिर है कि मानव सभ्यता की प्रौधोगिक प्रगति के फलस्वरूप , धूप , हवा और पानी जैसे इन प्राकृतिक अधिकारों के समुचित संरक्षण के लिए संविधान में समुचित संशोधन की आवश्यकता है. इन प्राकृतिक अधिकारों के अलावा नागरिकों के मानवाधिकार है जिनका श्रोत संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 10 दिसंबर 1948 को पारित ' सार्वभौमिक मानवाधिकार ' है जिस पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में भारत भी शामिल है. ये मानवाधिकार , सारे अधिकारों की जननी है।

लेकिन भारत का संविधान , नागरिकों के उन मूलभूत अधिकारों के प्रति अत्यंत स्पष्ट है जिनका राष्ट्र -राज्य और उसके नागरिकों के बीच जन्मदात्री और उसके शिशु के बीच नाभिनाल जैसा सम्बन्ध अथवा अनुबंध है. इस सम्बन्ध और अनुबंध में कार्यपालिका ( सरकार) और न्यायपालिका तो क्या विधायिका भी संविधान से इतर की दखलंदाजी नहीं कर सकती है. ये मूलभूत अधिकार , भारत के संविधान के भाग -3 में आर्टिकल ( धारा ) 12 से आर्टिकल 35 तक में शामिल , परिभाषित और व्याख्यायित हैं. इंदिरा गांधी सरकार के शासनकाल में 25 जून 1975 को घोषित आंतरिक आपातकाल के दौरान उस सरकार द्वारा 1976 में पेश उस 42 वे संविधान संशोधन विधेयक को विधायिका ने पारित कर दिया था जिनके तहत कुछेक मूलभूत अधिकारों में कटौती कर दी गई, विधायिका द्वारा पारित अधिनियमों की संवैधानिकत वैधता की समीक्षा करने के उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों की शक्ति पर अंकुश लगा दिए गए, प्रधानमंत्री कार्यालय को व्यापक अधिकार दे दिए गए, संसद को संविधान के किसी भी भाग में संशोधन करने के लिए प्राधिकृत कर यह प्रावधान कर दिया गया कि इसकी कोई न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती है.

जब 21 मार्च 1977 को आंतरिक आपातकाल समाप्त घोषित कर दिया गया, तो उसी बरस कराये गए लोकसभा चुनाव के फलस्वरूप बनी मोरारजी देसाई सरकार ने भारत के संविधान को 42 वे संविधान संशोधन से पहले की स्थिति में लाने के जनता पार्टी के चुनावी घोषणा -पत्र में किये गए वादे के मुताबिक़ 43 वां और 44 वां संविधान संशोधन कर स्थिति बहुत हद तक दुरुस्त कर दी. बाद में, 31 जुलाई 1980 को उच्चतम न्यायालय ने रही- सही कसर पूरी कर 42 वे संविधान संशोधन के उन दो प्रावधानों को भी असंवैधानिक करार दे दिया जिसके अनुसार किसी भी संविधान संशोधन की किसी भी आधार पर न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण रोक लगा दी गई थी. 42 वे संविधान संशोधन की इस विलम्बित न्यायिक समीक्षा से निकला सन्देश स्पष्ट और जोरदार था कि अगर कार्यपालिका और विधायिका को नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में कोई भी कटौती करनी है तो सिर्फ सविधान संशोधन अधिनियम बनाने से काम नहीं चलेगा बल्कि उन्हें नया संविधान बनाना पड़ेगा.

अब सवाल यह है कि भारत का नया संविधान कौन , कैसे बना सकता है. क्या यह मुमकिन है कि मोदी सरकार, न्यू इंडिया का संविधान रचने हेतु मौजूदा संसद को नई संविधान सभा में परिणत कर दे जिसमें सत्तारूढ़ मोर्चा को लोकसभा में करीब दो -तिहाई बहुमत प्राप्त है और राज्य सभा में साधारण बहुमत न होने के बाबजूद वह बहुमत का सूक्ष्म प्रबंधन कर सकती है? और यह नहीं तो वह नया संविधान बनाने के अपने किसी कदम को वित्त विधेयक के रूप में निरूपित कर उच्च सदन की सहमति की आवश्यकता को ही ठीक उसी तरह दरकिनार कर दे जैसा उसने हाल में कई विधेयकों को वित्त विधेयक होने का दावा कर किया है?

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के राजनीतिक अध्ययन केंद्र के पूर्व छात्र एवं रांची में बसे एक्टिविस्ट उपेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार इनमें से कोई भी उपाय असंवैधानिक होगा। उनका कहना है कि नया संविधान रचने के लिए भी मौजूदा संविधान में ही प्रावधानित जनमत संग्रह ही एकमात्र विकल्प है. लेकिन स्वतंत्र भारत में किसी भी मुद्दे को लेकर जनमत संग्रह के प्रावधान का उपयोग आज तक नहीं किया गया है. अब देखना यह है कि मोदी जी अपने स्वप्न के न्यू इंडिया के संविधान के लिए जनमत - संग्रह से आगे बढ़ते है या फिर कुछ और ही अकल्पनीय कदम उठाते है. इतना तो तय है कि अगर वह न्यू इंडिया के लिए नया संविधान रचते है तो उसमें " भारतीयता " और संवैधानिकता का निर्वाह आसान नहीं होगा.

(लेखक एक बहुभाषी न्यूज़ एजेंसी के विशेष संवाददाता पद से हाल में सेवानिवृत्त होने के बाद से दिल्ली में स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं.)