इस बात में कोई दो राय नहीं कि स्वतंत्रता के सात दशकों में कई बार ऐसे मौके आये हैं, जब हमारी सरकारों ने विदेश नीति के मोर्चे पर कुछ ऐसा किया, जिससे न सिर्फ उसकी खामियां उजागर हुईं, देश के तौर पर हमें उसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। इसके बावजूद यह नीति इस तथ्य को लेकर प्रायः सारी दुनिया में सराहना की पात्र रही है कि सरकारें बदलने पर भी इसमें कोई बड़ा बदलाव नहीं आता। देश को इसके दो फायदे होते हैं। पहला यह कि हमारे घरेलू मतभेदों का कहीं बाहर ढ़िंढोरा नहीं पिटता और वे विदेशनीति के साथ कोई घालमेल नहीं कर पाते। दूसरा यह कि घोषित राष्ट्रीय मूल्यों और प्रतिबद्धताओं से किसी समझौते की जरूरत नहीं पड़ती।

लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जब भी विदेश यात्राओं पर जाते हैं, चूंकि चार साल की सत्ता के बाद भी वे गम्भीर राजनय की बारीकियों को समझ नहीं पाये हैं, कुछ न कुछ ऐसा जरूर कर आते हैं, जिससे घरेलू मतभेदों का शोर तो विश्वव्यापी हो ही जाये, स्थायी विदेश नीति के फायदे भी प्रभावित हो जायें। इसके लिए कभी वे इस सुविचारित सिद्धांत का उल्लंघन करके कि देश की सीमा के पार जाते ही सारे भारतीय एक हो जाते हैं, अपने राजनीतिक विरोधियों यानी विपक्ष पर बेवजह बरसते हैं और कभी राष्ट्रीय नायकों के बीच गर्हित भेदभाव पर उतर आते हैं।

रूस के ऐतिहासिक सोची शहर में वहां के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन के साथ अपनी अनौपचारिक मुलाकात को भी, जिसे कई मायनों में यादगार बताया जा रहा है, उन्होंने इस भेदभाव का अपवाद नहीं बनने दिया। कालेसागर के तटवर्ती सोची शहर से आई खबरें बताती हैं कि उक्त मुलाकात के दौरान दोनों नेताओं ने न सिर्फ एक साथ नौका विहार बल्कि छात्रों को संबोधित किया और देश-दुनिया के कई मुद्दों पर चर्चा के साथ पुरानी यादें ताजा कीं। अब ‘मोदी जी’ के अपने लोग गिनकर बता रहे हैं कि यों यादें ताजा करने में उन्होंने इतनी बार पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी का नाम लिया। लेकिन उनके पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि आधुनिक भारत के निर्माता और भारत सोवियत संघ {तब रूस जिसके संघ का घटक था} दोस्ती की आधारशिला रखने वाले पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू का इस दौरान एक बार भी जिक्र क्यों नहीं हुआ?

क्या इसलिए कि कश्मीर और चीन के मामलों में की गई कथित गलतियों को लेकर उन पर बार-बार तोहमतें लगाने वाले मोदी कर्नाटक विधानसभा चुनाव में प्रचार के दौरान उन्हें लेकर बोला गया अपना एक झूठ पकड़ लिये जाने के बाद उन्हें लेकर इतने कुंठित हो चले हैं कि विदेश में भी उनसे बदला चुकाने पर उतर आये हैं? अगर हां तो सवाल है कि पुतिन ने इसे लक्ष्य किया तो क्या सोचा होगा? वैसे भी पिछले कुछ समय से हमारी विदेश नीति में जो बदलाव आये हंै, उनसे रूस के लिए बहुत अच्छे संकेत नहीं गये हैं। इसलिए कि ‘चालाक’ मोदी जैसे घरेलू वैसे ही विदेश नीति के मोर्चे पर भी दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं। उनके पिछले चार सालों में दुनिया जान गई है कि वे इजरायल के भी सगे दिखना चाहते हैं और फिलिस्तीन के भी, अमेरिका को भी अपना मित्र बताते हैं और रूस से पुरानी दोस्ती का हवाला भी देते हैं। सवाल स्वाभाविक हैं कि पुतिन कहें या रूस या कि भारत-रूस दोस्ती के लिए उनकी इस चालाकी का क्या अर्थ है और क्या इस तरह वे गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के संस्थापक देश को अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अविश्वसनीय बनाने की राह पर नहीं चल पड़े हैं?

प्रसंगवश, इधर पुतिन ने चौथी बार रूस की कमान संभालकर ताकतवर वैश्विक नेता के रूप में अपनी नयी पहचान बनायी है। भारत के नरेन्द्र मोदी से पहले जर्मनी की एजेंला मार्केल उनसे मिल चुकी हैं और फ्रांस के इमैनुअल मैक्रों मिलने जाने वाले हैं। ये सभी देश ईरान से हुए परमाणु करार से अमेरिका के अलग हो जाने के फैसले से नाराज और उसके परिणामों को लेकर चिंतित हैं। फिर भी अमेरिका जिद छोड़ने तैयार नहीं है और धमका रहा है कि जो भी देश ईरान से परमाणु संबंध रखेगा, उससे वह सब रिश्ते तोड़ लेगा। इस धमकी को घुड़की कहें तो भी यह नहीं कह सकते कि इससे अंतरराष्ट्रीय पटल नये तनाव से ग्रस्त नहीं हुआ है।

स्थिति का दूसरा पहलू भारत और ईरान के पुराने व्यापारिक, आर्थिक व सांस्कृतिक संबंधों तक जाता है। ईरान भारत को कच्चा तेल बेचता है जबकि भारत उसके यहां चाबहार बंदरगाह विकसित कर रहा है, जो खुद भारत की आर्थिक व सामरिक जरूरत है। ऐसे में प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी पर यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है कि भारत-ईरान रिश्तों पर अमरीकी छाया न पड़े। रूस इस काम में हमारा मददगार हो सकता है क्योंकि वह ईरान का भी मित्र है और हमारा भी। स्वाभाविक ही ज्यादातर देशवासियों की दिलचस्पी इसमें है कि इस बाबत पुतिन से मोदी की क्या बात हुई। लेकिन इस बाबत कोई कुछ नहीं बता रहा। चूंकि जून में शंघाई सहयोग संगठन और जुलाई में ब्रिक्स की बैठक में मोदी पुतिन से फिर मिलने वाले हैं, इसलिए वक्त का तकाजा था कि इस दिशा में अपनी ओर से पहल कर बात करते।

यह इसलिए भी जरूरी था कि विदेश नीति के लिहाज से भारत के लिए यह वक्त चुनौतियों से भरा हुआ है और उसका संतुलन जरा-सा भी गड़बड़ाया तो अनेक मुश्किलें पेश आ सकती हैं। इसलिए कि सीरिया व यूक्रेन के मसले पर भी अमेरिका व रूस में तल्खियां काफी बढ़ी हुई हंै और अमेरिका जता रहा है कि वह रूस पर तो नये प्रतिबंध लगायेगा ही, जो देश उसके साथ खुफिया व रक्षा संबंध रखते हैं, उनको भी नहीं बख्शेगा। चूंकि हम रूस से बड़े-बड़े रक्षा सौदे करते रहे हैं, हमारे सामने संकट उपस्थित है कि अमेरिका और रूस दोनों को सगा बनाने की अपने प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षा को कैसे साधें? खासकर जब रूस से केवल पुरानी दोस्ती को बनाए रखना ही नहीं, आगे बचाकर रखना भी जरूरी है।

अभी पाकिस्तान और रूस के बीच रक्षा सौदे शुरु हो गए हैं, जो भारत के लिए तो कतई अच्छी बात नहीं है। अब तक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत-पाक मसले पर रूस ने हमेशा भारत का साथ दिया है। अब रूस और पाक के संबंध व्यापार से आगे बढ़े तो भारत रूस को कैसे साधेगा, यह भी बड़ा सवाल है और इसे लेकर इतने भर से संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि मोदी कह रहे हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और राष्ट्रपति पुतिन द्वारा बोये गये रणनीतिक साझेदारी के बीज अब विशेषाधिकारप्राप्त रणनीतिक साझेदारी में तब्दील हो गये हैं।

अगर वे दोनों देशों की घनिष्ठ और परखी हुई मित्रता का पूरा इतिहास इसलिए याद नहीं करना चाहते कि उसमें पंडित नेहरू का भी जिक्र आता है, तो देश को कैसे आश्वस्त कर सकते हैं कि आगे पूरी तरह संतुलित विदेशनीति की राह में उनके तुच्छ आग्रह रोड़े नहीं बन जायेंगे? विडम्बना यह कि जब उन्हें इस संतुलन की राह हमवार करने में लगना चाहिए, वे और उनके लोग इसे लेकर ‘खुश’ हैं कि उन्होंने किसी भी वैश्विक नेता को नाम से बुलाने वाले या अचानक उसके घर पहुंच जाने वाले निजी संबंध विकसित कर लिये हैं! कर लिये हैं तो हासिल बतायें उसके।