एक ऐसे समय में जब फाँसी की सजा के खिलाफ लिखने का मन था फिर भी लिखने का जरूरी साहस न जुटा पाया क्योंकि उसमें लोग न्याय की बारीकियों पर ध्यान कम देते और मुकेश, पवन, विनय आदि को बचाने की मानसिकता अधिक पढ़ते, साहस कर रहा हूँ कि शीर्षक के शब्दों पर फिर भी लिखा जाए।

दिल्ली में हो रही बलात्कार की घटनाओं पर एक मशहूर दैनिक ने शीर्षक लगाया था ‘रेप कैपिटल’ ! जैसा माहौल था, इस शीर्षक पर उतना हाय-तौबा नहीं मचाया गया। तब ट्रोलर्स को सैलरी पर रखने का चलन भी नहीं था। देश में हर मिनट होते बलात्कार के आंकड़ों को आवाज दें दें तो और भी ऐसे विशेषण आएंगे जिन्हें बर्दाश्त करना मुश्किल होगा। यह मानना होगा कि हमारे देश में स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। सुरक्षा से बहुधा अंदाजा यही लगाया जाता है कि यह कोई कानून-व्यवस्था की समस्या होगी। यकीनन, इसमें कानून-व्यवस्था की एक भूमिका अवश्य है। पर बलात्कार वह बुखार है जो सिर्फ इतनी चेतावनी देता है कि हमारे समाज को दोहरेपन की अश्लील बीमारी हो गयी है। समाज और उसके सदस्यों का दोहरापन जबतक रहेगा, बलात्कार होता रहेगा। हर जघन्य बलात्कार, समाज का फिर-फिर उभरता बुखार है जो चीख-चीखकर कहता है कि दोहरेपन की बीमारी, महामारी बन चुकी है।

मर्दों को पहली रोटी और औरतों को ‘बचा-खुचा’ है दोहरपन क्या है दोहरापन? माँ को पूजते हुए बहु का शोषण है दोहरापन, ननद की खिलखिलाहट और दुल्हन का घूँघट है दोहरापन, बेटे का दुआर और बहु का आँगन है, दोहरापन, मर्दों को पहली रोटी और औरतों को ‘बचा-खुचा’ है दोहरपन, बहन पर बंदिशों के साथ भाई की आवारगी है, दोहरापन, बेटी राज करेगी और बहु उँगलियों पर नाचेगी, है दोहरापन। भाई साइंस पढ़ेगा और बहन कला पढ़ेगी, भाई रेगुलर पढ़ेगा और बहन प्राइवेट पढ़ेगी, भाई इंग्लिश मीडियम पढ़ेगा और बहन हिंदी मीडियम, गधा भाई इंजीनियरिंग-डॉक्टरी करेगा और होशियार बेटी टीचिंग करेगी, भाई बाहर पढ़ने को जाएगा और बहन घर के आस-पास पढ़ेगी, बहन घड़ी बांधे भले न उसमें बँधेगी जरूर और भाई बस घड़ी बदलेगा, बहन, बस से जाएगी और भाई बाइक से जायेगा, उम्रदराज गँवार लड़का, कमउम्र होशियार लड़की से बुजुर्गों के सामने बेहयाई से पूछेगा-खाना बना लेती हैं...और क्या कर लेती हैं?, बाप सज्जन ही होगा, बहु दुश्चरित्र होगी, बेटी चरित्रवान होगी, ससुर बद्तमीज होगा, बाबा, दादा, बाप, बेटा, भाई चरित्रवान होंगे और पड़ोसन चरित्रहीन होगी, मर्द सड़क पर बेहयाई से हल्का होगा और औरत के लिए शौचालय तक न बनेंगे और जो बने हैं वे खतरनाक हैं सफाई की दृष्टि से और सुरक्षा की दृष्टि से भी, ट्रेन में सिगरेट, गुटखा मिल जायेगा लेकिन सैनिटरी नैपकिन नहीं बिकता मिलेगा, कोई आवाज भी नहीं उठाता और समाज ‘आवाज उठाते’ किसी असल मर्द को मेहरा-आवारा कह देगा, दुपट्टा किसी का भाई-बेटा खीचेंगा और इज्जत किसी के बहन-बेटी की चली जाएगी, एक को लाज का गहना पहनना है और एक को बेहयाई की मर्दानगी ओढ़नी है, एक के हँसते हुए दाँत न दिखने चाहिए और एक को लाल दाँतों की मर्दानी हँसी आनी चाहिए, एक पतली कमर की नाजुक चाल चले और एक पसलियाँ फुलाए भौंडी साड़चाल चले, एक दो-पहिये पे दोनों पैर एक तरफ करके बैठे और एक हाथ छोड़ करतब करे, कहाँ तक गिनायें, सबके घर-समाज में है बस थोड़ा अलग-अलग है। कितनों को तो दिखता ही तब होगा जब खुद के साथ होता होगा।

दोहरापन लिंगभेद तक नहीं है

ये जो दोहरापन है, केवल लिंगभेद तक नहीं है। घर से निकलकर समाज, फिर संस्कृति, राजनीति और फिर अंततः देश तक यह चरित्र हावी हो जाता है। शहर के मॉल में जिससे हैंडशेक करेंगे, गाँव के दक्खिन टोले में उसे जाके पहचानेंगे भी नहीं, देश से प्यार करने का उम्दा नाटक करेंगे और देशवासियों से जाति, धर्म, क्षेत्र पूछेंगे, देश से प्यार करेंगे और देश की बेटी को दहेज़ की आग में जला देंगे, देश से प्यार करेंगे और देश की बेटी को पेड़ पर टांगकर इज्जत टटोलेंगे, राम टीवी में भील शबरी का जूठा खाएंगे और घर पर चाय अलग रखे कप में परोसी जाएगी, देश से प्यार करेंगे और दंगे में सबक सिखाएंगे कि माँ की विधर्मी कोख क्यों चुनी, फोन करके कोई नहीं पैदा होता कहीं, लेकिन देश से प्यार करते हुए नार्थ ईस्ट की बेटी को चिंकी कह देंगे, मुसलमान को आतंकी, कश्मीरी को पाकिस्तानी और नक्सलवादी को देशद्रोही। घर के नाराज की नाराजगी ढूंढते हैं, उसे डांट-मार-गालियाँ दे किसी पड़ोसी को भद्दगी करने का मौका नहीं देते। घर का नाराज, हर बार समझदार हों जरूरी तो नहीं कि उनमें सहनशीलता हो। सहनशीलता का धैर्य भी तो बुजुर्गों से शिक्षा और संस्कार के उचित प्रशिक्षण की मांग करता है। कैसी रही है हमारी शिक्षा व्यवस्था ? क्या कश्मीर की संस्कृति पर कन्याकुमारी के बच्चे सिलेबस में पढ़ते हैं? क्या नागालैंड की संस्कृति के बारे में उत्तर प्रदेश का बच्चा नौकरी पाने तक कुछ भी जान पाता है? ऐसे ही करेंगे देश से प्यार बिना देश को जाने-समझे ? अरे, ऐसे तो देश क्या, देश के मैप से भी प्यार नहीं करते !

आजादी की गाड़ी जहां पहुंची ही नहीं

क्या कांग्रेस क्या भाजपा क्या कोई पार्टी, आखिर कश्मीर, नक्सलवाड़ी या फिर देश के इक्का-दुक्का और हिस्से, आग वहीं सुलग रही है नफरत की, जहाँ देश भारत अपना पहुँचा नहीं आजादी के बाद जैसे बाकी हिस्सों में पहुंचा। भूमि-सुधार तक तो हमने करने नहीं दिया, शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, बिजली, रोजगार से हम सबको जोड़ न सके । आजादी के बाद रियासतें जोड़ते हुए राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई पर हर तरफ मुकम्मल नहीं हो सकी, तो इतने विशाल देश में कुछ विरोधी स्वर पनपना इतना अस्वाभाविक भी नहीं। स्पेन जैसे विकसित देश जो कि क्षेत्रफल में इतना छोटा है, उसका सबसे समृद्ध राज्य कैटेलोनिया स्पेनिश राष्ट्रवाद से अलग होना चाहता है। सही और गलत से इतर भी बहसें होती हैं। भारत के विरुद्ध स्वर अगर इक्के-दुक्के हैं तो वह अस्वाभाविक नहीं है और उनका सामना हमें मिलजुलकर मजबूती से करना है। सामना करने में ‘अनेकता में एकता’ का ही मन्त्र काम आएगा, जो भविष्य के लिए देश संजोना है। असंतुष्टों को संवाद के ढेरों मौके देने होंगे और नागरिक की गरिमा के साथ। कलम चलती रहे और ध्यान रहे कहीं- कहीं बन्दूक उठाने की भी तैयारी रहे, पर अंतिम विकल्प के तौर पर ही। समझना होगा कि ‘कांग्रेस का मोदीमुक्त भारत का आह्वान’ या ‘मोदी का कांग्रेसमुक्त भारत का आह्वान’ दोनों ही संविधानसम्मत नहीं है। लोकतंत्र है, बहुदलीय व्यवस्था हैं अपने देश में । देश की बीमारियों से मुक्ति का आह्वान होना चाहिए। बाहरी दुश्मन के लिए सेना है आंतरिक दुश्मनों के लिए समाज को भूमिका निभानी होगी। पड़ोस के चूल्हे में देखना होगा कि आग बची है या नहीं। पहचान के सारे वितान जैसे जाति, वर्ग, समुदाय, संप्रदाय, धर्म आदि किसी व्यक्ति के इतिहास के पन्नों से मिलकर बने होते हैं तो वे विभिन्नता को पल्ल्वित करें पर कभी विभेद की दीवार बनकर अपनी राष्ट्रगत एकता को छिन्न-भिन्न न करने पाएं। संस्कृति और सभ्यता का सर्वोच्च मूल्य व्यक्ति की स्वतंत्रता है, पहचान का कोई वितान उस स्वतंत्रता के आड़े नहीं आना चाहिए। पहचान व्यक्ति की है, व्यक्ति के लिए है। व्यक्ति, उस पहचान के लिए नहीं है, व्यक्ति तो अपनी उपलब्धियों से नयी- नयी पहचान गढ़ता रहता है।

दो नागरिकों के बीच मतभेद करने वाली संस्कृति

देश के किसी भी दो नागरिक में जो बांटने की वजह पैदा करे उसे देशहित में समाप्त होना होगा अथवा परिष्कृत होना होगा चाहे वह जाति हो, वर्ग हो, धर्म हो, क्षेत्र हो लेकिन हमारा दोहरापन देखिये जातिद्वेष पालते हुए हम देशप्रेमी हैं, सम्प्रदायद्वेष पाले हुए हम देशप्रेमी हैं, वर्गद्वेष पाले हुए हम देशप्रेमी हैं, क्षेत्रद्वेष पाले हुए हम देशप्रेमी हैं, धर्मद्वेष पाले हुए हम देशप्रेमी हैं, लिंगद्वेष पाले हुए हम देशप्रेमी हैं! इन द्वेषों से 'कट्टरपने का पाकिस्तान' पैदा होता है। पाकिस्तान इस पिछले वाक्य में विशेषण है। यह एक नकारात्मक विशेषण इसलिए है क्योंकि पाकिस्तान एक ऐसा असफल राष्ट्र है जहाँ न संविधानवाद है, न धर्मनिरपेक्षता है और न ही उदारवादी संस्कृति है। है तो बस कट्टरपन। अपने देश में बहुसंख्यक आबादी हिन्दुओं की है और दूसरा समुदाय मुसलमानों का है। ये दोनों समुदाय अगर द्वेषों की राजनीति करेंगे तो देश का चरित्र कट्टर बनेगा। केंद्र की प्रचंड बहुमत की सरकार इस बहुधर्मी धर्मनिरपेक्ष देश में बिना एक मुसलमान सांसद के अगर कट्टरपन प्रवृत्ति की ओर जाती दिखेगी तो ‘हिन्दू पाकिस्तान’ के विशेषण का खतरा होगा।

देशप्रेम और राष्ट्रवाद में अंतर है

इन नाना प्रकार के द्वेषों से जो कट्टरता उपजती है स्त्री के खिलाफ, जाति के खिलाफ, धर्म के खिलाफ, इस कट्टरता से देश के चरित्र के कट्टर बनने का खतरा होता है। देश अपने देशवासियों के चरित्र से बनता है, जंगल, पहाड़, मॉल, कारखाने से नहीं! हम देशभक्तों को समझना चाहिए कि इस देश में नामकरण की प्रक्रिया चरित्र-आधार पर रही है। फिर ‘रेपिस्तान’ के शब्दप्रयोग से अधिक चिंता अपने मन पर जमें ‘दोहरेपन’ की गाढ़ी काई को लेकर होनी चाहिए। विचारणीय यह है कि भारत के सिविल सेवा के अधिकारी अभी भी औपनिवेशिक मूल्यों को ढोते हुए जन-सेवकों की जी-हुजूरी क्यों कर रहे हैं और ‘भारत भाग्य- विधाता’ नागरिकों पर रौब क्यों गांठ रहे हैं? देशप्रेम और राष्ट्रवाद में अंतर है। अमेरिकन अपने झंडों की बनी चड्ढियाँ पहने अफेंडेड नहीं होते, हम विशेषणों से हो जाते हैं। इसतरह के विशेषण यह चेतावनी देते हैं कि अभी हम अपने ‘दोहरेपन’ पर काम नहीं कर कर रहे हैं। एक सच्चा देशभक्त यकीकन सबसे पहले अपने आपको ‘दोहरेपन के द्वेषों’ से स्वयं को मुक्त करेगा और बाकियों को इससे मुक्त होने में मदद करेगा। हमारे पूर्वजों ने तो वसुधैव कुटुंबकम का स्वप्न देखा था जिसमें हमें राष्ट्र की सीमा से भी ऊपर उठना था पर फ़िलहाल देश के भीतर की सीमाओं को तो जल्द जल्द ढहाने की कोशिश में हमें लग ही जाना चाहिए ताकी हमारे आदिपुरुषों,वैज्ञानिकों, मनीषियों को संतोष मिले कि अर्जित बोध व्यर्थ नहीं गया। जगतगुरु की पदवी तो वसुधैव कुटुंबकम की थाती पर ही संभव है और हम तो भारतीयों से ही अनगिन द्वेष पाले हुए हैं। आधुनिक भारत ने अपनी संस्कृति, अपने इतिहास और राजनीति के मूल्यों के आधार पर संविधान को अपना पथप्रदर्शक बनाया है। यह वही संविधान है जिसमें भारत की सभी विभिन्नताओं का समावेशन था। जहाँ-जहाँ हमें स्वयं के भीतर संविधान की प्रस्तावना से विरोध दिखता है, दरअसल वहाँ-वहाँ हम देशद्रोही हैं। ‘हम भारत के लोग’ यह समझें कि देशप्रेम का अर्थ देशवासियों से प्रेम है। यह नीति जितनी ही प्रयोग में आएगी, भटके द्वेषी भी प्रेम में आएंगे और देशद्रोही से देशप्रेमी बनेंगे।