आतंकवाद हमेशा से एक छोटे समूह की सोची समझी साजिश रही है, पर अब यह समूह बहुत बड़ा और पहले से अधिक उग्र होता जा रहा है और इसमें शामिल लोग कहीं और से नहीं आते बल्कि हमारे बीच में ही रहते है. बीजेपी के शासन में आते ही भीड़वाद और ट्रोलवाद – आतंक के दो नए पैमाने बन कर उभरे हैं. सबसे महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि आतंक के इन दो नए आयामों को सरकारी और राजनैतिक समर्थन भरपूर तरीके से मिल रहा है. ट्रोल पर लगाम लगाने वाला कोई नहीं है, जबकि भीड़वाद में शामिल और कानून का मजाक बनाने वालों के स्वागत में केंद्रीय मंत्री भी अगुवाई करते नजर आते हैं. बहुत समय नहीं बीता है जब अख़लाक़ को मारने वालों की अंतिम यात्रा तिरंगे में लपेटकर निकाली गयी थी, बिलकुल वैसे ही जैसे सीमा पर युद्ध में शहीद होने वाले सैनिकों की अंतिम यात्रा होती है. हाल में केंद्र सरकार ने जब दिखावे के लिए सख्ती की तब भी सोशल मीडिया पर हत्या और अंकुश लगाने को कहा गया तो उसने आनन-फानन में सभी प्रमुख समाचारपत्रों में पूरे पृष्ठ का विज्ञापन प्रकाशित किया. इसमें कुल दस बिन्दुओं के माध्यम से गलत खबर को पहचानने के तरीके बताये गए थे. इसका कितना असर हो सकता है, इसे तो बिदर की घटना ने ही बता दिया. मई २०१८ से अब तक बच्चा चुराने के नाम पर ही अलग अलग जगहों पर २८ लोग भीड़ द्वारा मारे जा चुके हैं. मई में झारखंड में ७ लोग मारे गए, जबकि जुलाई में ६ लोग महाराष्ट्र में मारे गए. हत्यारी भीड़ का एजेंडा और राजनैतिक रुझान सर्वविदित है, राज्य बदल जाते हों, हमले का कारण बदलता हो पर राजनैतिक रंग भगवा ही रहता है. बच्चों की फ़िक्र करती भीड़ जब बच्चियों से बलात्कार होता है या फिर उनका शोषण होता है तब सोती रहती है.

इस तरह की जितनी भी घटनाएँ होती हैं, कातिलों के पक्ष में हमेशा एक ही पार्टी सामने आती है और यह किसी से छुपा नहीं है. पहले पार्टी के एमएलए या एमपी बचाव करते वक्तव्य देते हैं और फिर पार्टी प्रवक्ता दिनभर टीवी चैनलों पर निर्लज्ज होकर कातिलों का बचाव करते हैं. ऐसा एक बार नहीं, बल्कि ऐसी किसी भी घटना के बाद होता है. सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र और राज्य सरकारों को इस मसले पर खूब लताड़ा, पर सरकारी समर्थन और संरक्षण प्राप्त भीड़तंत्र में कुछ अंकुश लगेगा, ऐसा नहीं लगता. जिस कार्यवाही में पुलिस बल कातिलों का साथ देता हो, उसे कौन रोकेगा? भीड़ द्वारा निर्मम हत्या, एक सोची समझी साजिश है यदि ऐसा नहीं है तो हमेशा मुसलमान या फिर अल्पसंख्यक ही क्यों मारे जा रहे हैं?

अभी हाल में दिल्ली में बीजेपी की तरफ से सोशल मीडिया से सम्बंधित अधिवेशन में कहा गया कि मेनस्ट्रीम मीडिया तो सरकार के विरोध में है, इसलिए सोशल मीडिया पर इसके समर्थकों को पहले से अधिक सक्रिय होने की आवश्यकता है. सच तो यह है कि मेनस्ट्रीम मीडिया तो पूरी तरह से सरकार के कब्जे में है, जहाँ गलत खबरों और गलत विसुअल्स का वर्चस्व है. सोशल मीडिया पर सत्ताधारी समर्थक कैसा तांडव मचा रहे है, यह किसी से छुपा नहीं है. गलत जानकारियाँ, गलत फोटो, गलत आंकड़े ही नहीं पर लगातार अभद्र भाषा और धमकी वाले पोस्ट तो आम हो गए हैं. खुले आम जान से मारने, बलात्कार करने और इसी तरह की और धमकियां दी जाने लगीं हैं. जिन्हें धमकियां दी जा रही हैं, वे आम लोग भी हैं, नामी-गिरामी लोग भी हैं और बड़े राजनेता और मंत्री भी हैं. पहले राजनाथ सिंह और हाल में सुषमा स्वराज का मुद्दा सबके सामने है. हाल में एक टीवी चैनल पर बीजेपी के आईटी सेल के किसी भूतपूर्व अधिकारी से जब सोशल मीडिया पर भाषा को लेकर प्रश्न किया गया, तब उन्होंने इसके स्तर का समर्थन करते हुए कहा, पिछले 70 वर्षों से हमारी आवाज बंद कर दी गयी थी क्यों कि यहाँ सामंतवादी प्रथा थी और अब मोदी सरकार ने लोगों को आजादी दे दी है.

उनकी नजर में अभद्र भाषा, धमकी इत्यादि आजादी है. यह आजादी भी तब तक है जब तक आप एक समूह या एक पार्टी के साथ खड़े रहते हैं, उसके झूठ को सच बता कर प्रचार करते हैं, जिस दिन आप यह बंद कर देंगे उसी दिन आप की जबान भी खामोश करने की धमकियाँ मिलने लगेंगी. इसी तथाकथित आजादी का उपयोग ऐन वक्त पर भीड़ जुटाकर किसी को मारने के लिए भी किया जा रहा है. कभी गाय के नाम पर, कभी गाय के मांस पर तो कभी बच्चा चोरी के नाम पर देश में जगह जगह अल्पसंख्यकों, गरीबों और पिछड़ी जाति के हिन्दुओं को मारने का काम भीड़ खुले आम टीवी चैनलों के कैमरों के आगे कर रही है. साल भर ऐसी घटनाएँ होती हैं और पूरे साल में एक बार प्रधानमंत्री जी ऐसे घटनाओं को रोकने की अपील कर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं. अभी हाल में सर्वोच्च न्यायालय में इस सम्बन्ध में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि ऐसे मामलों से निपटने के लिए हमारे यहाँ पहले से ही पर्याप्त कानून हैं, किसी नए कानून को बनाने की जरूरत नहीं है. सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों से ऐसे मामलों पर सख्ती बरतने को कहा.

इसके बाद तो ऐसी घटनाओं की बाढ़ आ गयी. ऐसे अधिकतर मामले कैमरे के सामने होते हैं, फिर भी पुलिस अज्ञात लोगों के नाम केस दर्ज कर मामले को रफादफा करने का भरसक प्रयास करती है. इसके बाद बीजेपी के नेताओं के बयान आने शुरू होते हैं जिसमे भीड़ को देशभक्त बताने की कोशिश होती है. यदि कभी गलती से कुछ लोग पकड़ भी लिए जाते हैं तो कुछ ही दिनों में केस ख़त्म हो जाता है और लोग जेल से बाहर आ जाते हैं. एक ऐसा भी मामला है, जिसमे एक अदालत ने अभियुक्तों को सजा दी, लेकिन उससे बड़ी अदालत ने सजा हटा दी. एक केन्द्रीय मंत्री तो इस सजा हटाने के फैसले से इतने आह्लादित हो गए कि अपना काम छोड़कर फूलमाला और मिठाई लेकर जेल से निकलते अभियुक्तों का स्वागत करने पहुँच गए.

भीड़वाद और ट्रोलवाद के शिकार बिलकुल अलग-अलग वगों के लोग हो रहे हैं. भीड़वाद के शिकार अल्पसंख्यक, गरीब और पिछड़ी जातियों के लोग हो रहे हैं जबके ट्रोल का शिकार मध्यम और उच्च वर्ग हो रहा है. सोशल मीडिया की भागीदारी दोनों में है.

कोई भी रोग फैलता है तो इसका इलाज तभी संभव है जब एक सही डॉक्टर सही परीक्षण कर रोग को समझे और फिर सही दवा दे. पर समाज के इन रोगों का इलाज हाल-फिलहाल में संभव नहीं लगता क्यों कि इसको रोग समझने को न सरकार तैयार है और न ही अधिकतर न्यायालय. और, पुलिस तो अनेक मामलों में ऐसी घटनाओं में खुद ही अभियुक्तों का साथ देती दिखाई देती है.