वह नज्म लिखी तो अलम्मा इकबाल ने थी जिसमें हर बंद के बाद वे कहते थे - मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है ! मैं जितनी बार उस नज्म को पढ़ता या मन-ही-मन दोहराता हूं, तो भीतर से कोई पूछता है कि इकबाल ने तो अपने वतन की पहचान कर ली थी अौर डंके की चोट पर कहा था कि मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है, अब बताअो, तुम अपने वतन की पहचान क्या अौर कैसे करते हो ? जवाब नहीं दे पाता हूं मैं ! मैं किस तरह अपने वतन को समझूं ( याकि समझाऊं !) कि जहां अकारण स्वामी अग्निवेश की पिटाई हुई, शशि थरूर के घर पर हमला हुअ और सरकार नाम का जो सफेद हाथी हमने पाल रखा है उसकी कोई आवाज सुनाई ही नहीं दी ? अगर देश-समाज ऐसे ही चलना है तो किसी चलाने वाले की जरूरत ही क्यों है ?

अखबार देखता हूं तो हर कोई, जिसे भ्रम है कि वह नेता है, इस देश को बताने में लगा है कि अाप देश हो तो क्या हो और क्यों हो. प्रधानमंत्री कहीं गरज कर ललकारते हुए पूछ रहे थे कि कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमान नामदार बताएं कि उनकी पार्टी मुसलमान पुरुषों की ही पार्टी है कि उसमें मुसलमान स्त्रियों की भी जगह है ? मुझे मालूम नहीं कि प्रधानमंत्री ने ‘नामदार’ विशेषण का इस्तेमाल किस भाषाविशेषज्ञ की सलाह से किया लेकिन यह उनका अपना ‘दिव्यांग’ हो तो भी मुझे कहना ही चाहिए कि राहुल गांधी के अपमान का यह तरीका निहायत ही बोदा और कुरूप था. अपनी कहूं तो मुझे तो इस संदर्भ में ‘नामदार’ का मतलब भी पता नहीं है. जवाब में कांग्रेस की एक प्रवक्ता कह रही थीं कि प्रधानमंत्री की भाषा और तर्क अब सारी मर्यादाएं खो रही है. उन्हें लगा होगा कि क्या जवाब दिया है ! लेकिन यह कोई जवाब नहीं हुआ. बताना तो पड़ेगा ही न कि कांग्रेस इस देश में रहने वाले सभी जायज नागरिकों की पार्टी है कि किसी एक धर्म या मतवादियों की पार्टी है ? कांग्रेस समझ नहीं पा रही है कि वह राजनीतिक जमीन हड़पने की बेजा कोशिश में अपनी जमीन खो रही है. कांग्रेस जितना जनऊ पहनेगी, मंदिरों में माथा टेकेगी, मुसलमानों को अपना बताएगी उतनी ही खोखली होती जाएगी.

दूसरी तरफ खबर है कि शशि थरूर ने जो कहा कि यदि 2019 में भारतीय जनता पार्टी ही फिर से सत्ता में वापस आती है तो भारत के ‘हिंदू पाकिस्तान’ बनने का पूरा खतरा है, उसे ले कर भाजपा के समर्थक किन्ही सुमीत चौधरी ने कोलकाता की किसी अदालत में धार्मिक भावनाओं को आाहत करने तथा संविधान का अपमान करने का केस दर्ज किया और उस अदालत ने थरूर साहब को समन भी भेजा है कि वे 14 अगस्त को पेश हों. अब हमें बता सकें तो हमारे न्यायतंत्र के मुखिया दीपक मिश्रा बताएं कि जिस न्याय-व्यवस्था ने लाखों मुकदमों को सालों से अधर में लटकाये रखा है, उसके पास इतनी फुर्सत भी है अौर कूवत भी कि वह ऐसे अर्थहीन मुकदमों को सुनने के लिए समय निकाले ? अगर ‘हां’ तो फिर इस पूरे न्यायतंत्र पर ही यह मुकदमा क्यों न चलाया जाए कि इसने सारे देश को अंधेरे में रख कर सिर्फ अाराम किया है, काम नहीं ?

हम देख रहे हैं कि 2014 से जो दल भाजपा के साथ कदमताल कर रहे थे, वे अचानक ‘पीछे मुड़’ करने लगे हैं. कुछ वहां से निकल आए हैं, कुछ निकलने के चक्कर में हैं. यह डूबते जहाज से चूहों का भागना है ? दूसरी तरफ बिखरा विपक्ष अपना सर जोड़ कर, एक मंच पर आने की कोशिश कर रहा है. इस कोशिश को सफलता मिलेगी या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि कोशिश कौन कर रहा है अौर कितनी कर रहा है. अभी तो यही दिखाई दे रहा है कि सभी यह कोशिश कर रहे हैं कि वही एकता बने जिसकी धुरी वे रहें. मैं जानता हूं कि राजनीति में जो दीखता नहीं है, वह होता नहीं है, ऐसा मानना खतरनाक होता है फिर भी अपने विपक्ष पर मुझे पूरा भरोसा है. ये इतने कूढ़मगज हैं कि एक-दूसरे का रास्ता काटने में यह देख ही नहीं सकेंगे कि उनके अपने सारे रास्ते बंद होते जा रहे हैं.

लेकिन रास्ता बंद होने का डर कहीं दूसरी जगह व्याप रहा है. घबराये प्रधानमंत्री विपक्ष पर ‘गंभीर आरोप’ लगाते घूम रहे हैं कि ये सब मुझे हटाने के लिए एक हो रहे हैं. तो मैं जानना चाहता हूं कि श्रीमान, इसमें गलत क्या है ? क्या यह उनका जायज, संविधानसम्मत अधिकार नहीं है ? क्या यही वह लोकतांत्रिक प्रक्रिया नहीं है जिस पर चल कर प्रधानमंत्री बनने को बेहाल मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कितने ही दलों से समझौते किए थे अौर मनमोहन सिंह को कुर्सी से हटाया था ? विपक्ष का काम ही यही है अन्यथा वह विपक्ष नहीं है. हम देखेंगे तो सिर्फ इतना कि ऐसा करने के चक्कर में विपक्ष कोई अनैतिक या असंवैधानिक काम तो नहीं कर रहा है ? इसी के साथ हम यह भी देखेंगे कि सत्ताधारी दलों का गंठजोड़ भी तो कोई अनैतिक या असंवैधानिक करतब नहीं कर रहा है ? एक सावधान, सजग लोकतांत्रिक जनता के लिए यह सब देखना औरर आंकना इसलिए जरूरी है कि राजनीतिक दलों का अंतिम सत्य एक ही है : सत्ता; जनता का अंतिम सत्य भी एक ही है : संस्कार और संविधान. इसलिए प्रधानमंत्री की यह आपत्ति कि ये सब मिल कर मुझे सत्ता से हटाना चाहते हैं, बचकानी है और भयभीत मन की चुगली खाती है.

अपनी सत्ता के ख्याल से इतने भयभीत हैं ये लोग कि जनता और उसके सवाल अब गलती से भी इनकी जबान पर नहीं आते. उत्तरप्रदेश जा कर कोई एनार्की की बात न करे; सारे देश में महिलाओं के साथ हो रहे अकल्पनीय दुराचार की बात किए बिना कोई अपनी उपलब्धियों का बखान करे; खेती-किसानी को दी जा रही ‘रिकार्ड छूट’ के लिए अपनी पीठ ठोकते लोग पल भर भी न झिझकें कि पिछले ९० दिनों में ६०० से ज्यादा किसानों ने आात्महत्या कर ली है और आत्महत्या का दायरा राष्ट्रव्यापी होता जा रहा है, तो पूछना ही पड़ता है : ये किस देश के लोग हैं ?किसान-मजदूर-छोटे व्यापारियों की अात्महत्या अब किसी एक राज्य की बात नहीं रह गई है. नागरिक जीवन विकृतियों और विद्रूपताओं से इस तरह गजबजा रहा है कि सामान्य जीवन जीना ही महाभारत की लड़ाई लड़ना बन गया है. आप भले सड़क पर न चलते हों - क्योंकि अाप तभी चलते हैं जब सड़कें बंद कर दी जाती हैं - लेकिन सड़क पर चलने वाला आम नागरिक बेहद परेशान है. जीविका भी नहीं बची है, जीवन भी नहीं बचा है. बाजार में उन सारी चीजों के दाम बढ़ते ही चले जा रहे हैं जिनसे उसका घर चलता है. वह परेशान आम आादमी अपने धैर्य की अंतिम बूंद तक निचोड़कर जीने की कोशिश में लगा है, आप कानूनी, गैर-कानूनी तमाम रास्तों को अंतिम हद तक निचोड़ कर अपनी सरकार बनाने में लगे हैं. आापकी सभाओं में,आपके आयोजनों में, आपकी जीवन- शैली में और आपकी चिंताओं में कहीं यह देश है भी क्या, यह पूछने का मन करता है लेकिन कहीं पूछने की जगह ही नहीं बची है.

गांधी ने हमारे शासकों को एक ताबीज दिया था : कोई भी फैसला करने से पहले अपने अहंकार का शमन करो और उस सबसे गरीब व्यक्ति का चेहरा सामने रखो कि जिसे तुमने देखा हो; और फिर खुद से पूछो कि तुम जो फैसला करने जा रहे हो उससे इस आदमी की किस्मत में कोई फर्क पड़ेगा ? जवाब हां हो तो निर्द्वंद आगे बढ़ो, जवाब ना हो तो उस फैसले को रद्द कर दो. अब यह ताबीज बेअसर हो गया है क्योंकि अब आपकी स्मृति में वह चेहरा बचा ही कहां है जिसे याद करने की बात गांधी कहते हैं.