आज समूची दुनिया के देशों में होड़ लगी हुई है . होड़ इस बात की है की कैसे अपने यहाँ अधिक से अधिक विदेशी पूंजी निवेश हो . इसके लिये विदेशी पूंजी को बड़ी रियायतें दी जाती हैं और अक्सर यह भी है की इन रियायतों के कारण उस देश का अपना देसी उद्योग भी बर्बाद करना पड़ता है .

भारत में भी अभी हाल तक समूचे कम्प्यूटर पर आयात कर कम था और कल पुर्जों पर अधिक. जिससे देश में कम्प्यूटर संयोजन करने का कोई लाभ नही था . इस प्रकार की कर व्यवस्था में स्थानीय उत्पादन के लिए कोई गुंजाईश नहीं है और भविष्य में भी उसके बनने की सम्भावना कमज़ोर हो जाती है . आम तौर पर यह सोचना बन्द्द ही हो गया है की हमें अपनी संपदा का स्वयं ही दोहन करना चाहिए. नामी गिरामी अर्थशाष्त्री हमें यही राय देते हैं की विदेशी पूंजी का स्वागत करों , बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आमंत्रित करो . और अधिकांश देशों के नेता और शासक इस राय के समक्ष नत्मस्तक हो चुके हैं.

इसलिए हम पाते हैं की विदेशी पूंजी निवेश से हर देश से हर वर्ष अरबों खराबो रुपया निवेश करने वाले देश में लाभ के रूप में जाता है . ना केवल लाभ बल्कि रोयल्टी और अन्य प्रकार के कई भुगतान अलग अलग मदों में किये जाते हैं . बिना नाम लिए यह वास्तव में तीसरी दुनिया के देशों के लिए एक जकड़न की व्यवस्था है. उन्नत पूंजीवादी देशों ने जैसे अमेरिका, चीन ब्रिटेन, फ़्रांस, जेर्मनी इत्यादि ने दुनिया के देशो को अपने नियंत्रण में ले लिया है और उनका दोहन जारी हैं . यह सही मायने में साम्राज्यवादी शोषण है जिसे सभी बड़े आराम से स्वीकार कर रहे हैं .

शासकों की बदलती सोच

यह है कि आज के शासक वर्ग राष्ट्रवाद या अपने देश में स्वाव्लम्बी विकास की बात नहीं करते हैं . विभिन्न उद्योगपति अपने अपने क्षेत्र में अवश्य ही विदेशी उद्योगपतियों को टक्कर देने की कोशिश करते हैं लेकिन समूचे तौर पर वे अपने पिछले मत से हट गए हैं और अब वे स्व्वाव्लाम्बी विकास की अवधारण से सहमत नहीं हैं.इस बारे में कही कोई चिंता नहीं दिखाई दे रही हैं की हर वर्ष विदेशी कम्पनियां रोयल्टी के नाम पर अरबों खरबों रुपया अपने देश ले जाती हैं .इस प्रकार की निरन्तर मुद्रा के बहिर्गमन पर कभी किसी ने कोई चिंता जाहिर नहीं की है चाहे वर्तमान भुगतान संतुलन का घाटा बढ़ता रहे .शायद वे ऐसा सोचते हैं कि हर वर्ष विदेशी पूंजी निवेश होता रहेगा और इस विधि से घाटे पूरे होते रहेंगे .इसलिए हर सरकार जब विदेशी पूंजी निवेश अधिक होता है तो अपनी पीठ ठोकती है .

बॉम्बे-प्लान १९४४

लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था . राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में और जब यह दिख रहा था की युद्ध के बाद अंग्रेज़ भारत से चले जायंगे, उस समय भारत के प्रमुख उद्द्द्योग्पतियों ने भारत के औद्योगीकराज की १५ वर्षीय योजना बनाए थी . इसे भारत के आर्थिक विकास के लिए प्रस्तावित योजना, कहा गया था. आम तौर पर यह बॉम्बे प्लान या बिरला - टाटा प्लान के नाम से जाना जाता है . इसे रचने वाले भारत की पूंजीवाद के संस्थापक और इसके प्रमुख उद्योगपति या उनसे संलग्न मैनेजर और सिद्धांतकार थे. ये थे सर पुरषोत्तमदास ठाकुरदास, जे आर डी टाटा , घनश्याम दास बिडला,सर अर्देशिर दलाल ,सर श्री राम,कस्तुरभाई लालभाई ,ऐ डी श्रॉफ , और जॉन मथाई .

इस ज्ञापन में तीन ख़ास बातें हैं . पहला , इसने नियोजित अर्थव्यवस्था को स्वीकारा ; दूसरा इसने विदेशी पूंजी निवेश रहित योजना का प्रस्ताव रखा ; तीसरा,राज्य का अर्थव्यवस्था के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका को रेखान्कित किया . आइये इन तीनों पर गौर करे.

नियोजित अर्थव्यवस्था

उस समय तक योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था केवल दो देशों में ही थी.सोवियत रूस और जर्मनी . एक सोशलिस्ट देश था और दूसरा फाज़िस्ट.उस समय यह भी समझ थी कि केवल तानाशाही देश ही योजना कृत अर्थव्यवस्था स्थापित कर सकते हैं , पूंजीवादी लोकतंत्र नहीं.लेकिन इस बात को बोम्बे प्लान निर्माताओं ने ठुकरा दिया था . उनका कहना था कि इस बात में कोई तर्क नहीं है कि लोकतंत्र में नियोजित अर्थ र्थ्व्यव्स्था नहीं चल सकती है . हाँ इतना ज़रूर है कि कुछ समय के लिये नागरिक अधिकारों का दमन करना या उस पर रोक लगाना ज़रूरी हो जाय .

इससे पहले कांग्रेस पार्टी ने वर्ष १९३० के दशक में भारत के लिए योजनाबद्ध अर्थव्यवस्था की सोच दी थी. बोम्बे प्लान का लक्ष्य यह था कि ऐसे लक्ष्यों को सामने रखा जाय जो हम एक नियोजित अर्थ्व्यस्था में प्राप्त करना चाहते हैं , विकास की सामान्य दिशा और देश के संसाधनों का उपयोग कैसे किया जाय.इस मंडली ने नियोजित अर्थ्व्व्यव्स्था के चार लक्ष्य रखे.१. वर्तमान प्रति व्यक्ति आय को १५ वर्षों में दुगना करना ;२. इस अवधि में वर्तमान राष्ट्रीय आय की तीन गुना वृधि; ३. कृषि उत्पादन को वर्तमान उत्पादन का दुगना करना; ४. वर्तमान की औद्योगिक क्षमता को ५ गुना वृधि करना.

देसी स्त्रोतों से योजनाओं का वित्त पोषण

इस योजना के वित्त पोषण और जिन संसाधनों की बात करता है वे सभी देसी हैं और देश के भीतर अवस्थित हैं.केवल विदेशी ऋण की बात ही की गई है; यह निजी क्षेत्र के निवेश को महत्व देता है लेकिन कही पर भी विदेशी पूंजी निवेश की चर्चा नहीं है.

मशीन उद्योग को वरीयता

ये प्रस्ताव मशीन उद्योग को वरीयता देती है लेकिन उपभोक्ता सामग्री के निर्माण के लिए भी सचेत है, जैसे कि सोवियत रूस में एक तरफा तरीके से मूल अथवा बुनियादी उद्योगों को प्राथमिक दी गई जिससे उपभोक्ता की सामग्री की वहा कमी हो गई है. लेकिन इस ज्ञापन में इस बात का ध्यान रखा गया है कि मूल उद्यगों को वरीयता देते हुए भी उपभोक्ता उद्योग की अनदेखी नहीं की गई है .इन्हें भी समुचित स्थान निवेश योजना में मिला है. माँ है मूल उद्योग ; जो मशीनें इत्यादि बनाते हैं और जिस पर औद्योगीकरण टिका होता है . इनकी स्थापना से औद्योगिक विकास की गति तेज हो जायगी और विदेशों पर मशीनों इत्यादि की निर्भरता घट जायगी. इससे हमें विद्देशी ऋण की आवश्यता भी कम हो जायगी.

विषय से थोडा हटते हुए, एक बात पर गौर करना ज़रूरी है की उपरोक्त समझ वर्ष १९४४ में ही बन गई थी . चीन की क्रांति के बाद चीन ने भी सोवियेत रास्ता अपनाया .मशीन उद्योग को वरीयता दी और उपभोक्ता उद्योग को नज़रनदाज़ किया . लेकिन दस साल के बाद ही उन्हें इस बात की समझ आयी की सोवियेत तरीके से औद्द्योगीकरण अर्थात बुनियादी उद्योग को एक तरफा तरीके से जोर देना और उपभोक्ता उद्योग को नज़रनदाज़ करना भारी भूल है औरउसके बाद से ही उन्होनें दोनों प्रकार के उद्योगों में एक संतुलन स्थापित किया .

उस समय आज़ादी नज़दीक दिखाई दे रही थी और भारत का पूंजीपति अति उत्साह से भरा हुआ था . उसमें आत्म विश्वास था कि वह बिना विदेशों के ही अपने विकास कर लेगा. उस समय उसका राष्ट्रवाद बहुत जोर मार रहा था.

मूल अथवा बुनियादी उद्योगों में इसने ऊर्जा, धातु औरत खनिज-लोहा इस्पात, अलुमिनियम, मैन्गनीज़.इन्जीनियरिंग सभी प्रकार की मशीनरी, मशीन टूल्स, रसायन-जैसे प्लास्टिक, खाद, रंग, दवाई, हथियार उद्योग; परिवहन में रेल इन्जनें , माल गाड़ी के डिब्बे, जहाज निर्माण, मोटर उद्योग वायुयान और सीमेंट.

इनके आधार पर ही आर्थिक ढांचा खड़ा किया जाना है और इनके अभाव के कारण ही ब्रिटिश साम्राज्य में ही भारत पिछड़ गया, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया ने प्रगति कर ली.

विद्युत को सर्वाधिक महत्व देने के मामले में दस्तावेज कहता है कि १९२० में सोवियत संघ ने १५ वर्ष की विद्युतीकरण की योजना बनायी थी .इसके सफल होने के बाद ही उन्होनें महत्वाकानशी पञ्च वर्षीय योजना को लागू किया .उस समय के उद्योग पतियों ने सोवियत विकास को बहुत ध्यान से विशलैषित किया था और उससे अपने स्वयं के लिये सबक भी सीखे थी.

उपभोक्ता उद्योगों में इसने टेक्सटाइल-सूती, रेशम, ऊनी तीनों शामिल हैं शीशा , चमड़ा , तम्बाकू , तेल इत्यादि. को शामिल किया था . और अधिक विस्त्तर में ना जाकर यह निर्धरित्किया की बाकी सभी चीज़ें उपभोक्ता की रूचि केअनुसार ही बनायी जायंगी .

ज़मींदारी प्रथा का अंत और सहकारी खेती

इस दस्तावेज ने ज़मींदारी प्रथा की समाप्ती की थी और उसके स्थान पर सहकारी खेती द्वारा छोटी जोतों को बड़ा करने का प्रस्ताव दिया था . यह को- ओपरेटव खेती का पक्षधर है . गौर करे कि यह सब प्रस्ताव भारत की सरकारों ने लागू करने की कोशिश की थी. न्यूनतम वेतन

जहां तक आय का प्रश्न है, इन उद्योगपतियों का मानना था कि मजदूरों का एक न्यूनतम वेतन होने चाहिए . दूरगामी दृष्टिकोण लेते हुए उन्होनें कहा कि यदि श्रमिकों का वेतन उचित नहीं होगा तो उद्योगों के उत्पाद खरीदेगा कौन? इसलिए इन्होनें यह प्रस्ताव दिया था कि एक न्यूनतम वेतन अवश्य होना चाहिए .

असमानता

देश में लोगों और वर्गों के मध्य विषमता घटाने और सामजिक वैमनस्यता कम करने के को इन उद्द्योगपतियों ने विशेष स्थान दिया है . ज्ञापन का यह मानना है कि देश में आय की असामनता से देश की आर्थिक संपदा का विकास अवरुद्ध होता है. इससे व्यापक जन मानस की ज़रूरतें , उत्पादन की मात्रा और प्रकृत्ति को प्रभावित नहीं कर पाती हैं . ऐसे समय में उत्पादक संसाधन धनी वर्गों की ज़रूरतों को पूरा करने में निवेशित होते हैं. निर्धन को सही कपड़ा , भोजन, आवास, शिक्षा, और चिकत्सा कुछ भी प्राप्त नहीं होता है . यदि वर्तमान असामनता जारी रही तो लक्षित उत्पादन कभी प्राप्त नहीं कर सकेंगे.

अति महवपूर्ण बात यह है कि इन उद्योग पतियों को यह समझ थी कि असमानता को दूर करने के लिए दौलत और सम्पति का विकेन्द्रीकरण हो. उत्पादन के साधनों का स्वामित्व विकेन्द्रित हो. इसके कई तरीके सुझाये गए हैं जैसे म्रत्यु कर, जो मरने के बाद उस व्यक्ति की सम्पति से दिया जाता ;भूमि जोतों में सुधार , छोटे उद्योगों को पनपाने, और कंपनियों के शयेरों की व्यापक बिक्री जैसे भी कुछ ऐसे तरीके हैं जिनसे गैर बराबरी दूर के जा सकती है.

राज्य की भूमिका

इस ज्ञापन का सबसे महत्त्वपूर्ण अंग है आर्थिक विकास में राज्य की भूमिका / राज्य का क्या स्थान होगा?

जहाँ तक राज्य की भूमिका का सवाल है इसे तीन हिस्सों में देखा जा सकता है १. राज्य का स्वामित्व , २ राज्य का प्रबंधन और३. राज्य का नियंत्रण. उपरोक्त तीनों में सबसे महत्त्वपूर्ण राज्य का नियंत्रण है न कि स्वामित्व और / अथवा प्रबन्धन . समस्त उत्पादन के साधनों को एकत्रित करके सामजिक रूप से निर्धारित लक्ष्यों की ओर लाये जाने से सही सामाजिक् कल्याण हो सकता है अथवा नहीं. राज्य के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वह बड़े क्षेत्र में स्वामित्व अथवा आर्थिक गतिविधियों का प्रबंधन करे .

राज्य के स्वामित्व का सवाल उन सभी परिस्थितियों में आयेगा जहां राज्य ने एक उद्यम

का वित्त पोषण किया है जो जन कल्याण और सुरक्षा के लिए आवश्यक है . वे उद्योग जो नए हैं अथवा जिस क्षेत्र में स्थापित हो रहे हैं वहाँ के लिए नए हैं , और इन दोनों ही दशाओं में कम से कम प्रार्म्भिक दौर में वित्तीय सहायता की ज़रूरत है यदि बाद में निजी उद्योग इस योग्य है कि वह उनका परिचालन कर सकता है , लेकिन सार्वजनिक हित में यह ज़रूरी है कि राज्य का उस पर नियंत्रण रहे.

अन्य प्रकार के उद्योगों में राज्य स्वामित्व स्थायी तौर पर रहेगा . ऐसे उद्योगों में जहाँ राज्य नियंत्रण के आम तरीके के अलावा राज्य के स्वामित्व की ज़रूरत होती है. ऐसे उद्योग जो युद्ध सामग्री किए निर्माण करते हैं और पोस्ट और टेलीग्राफ जैसे अति महत्त्वपूर्ण संचार व्यवस्था ऐसे ही उद्यगों के उदाहरण हैं.

ऐसी इकाइयां जिन पर आंशिक अथवा पूरे तौर पर राज्य का स्वामित्व है,जैसे सार्वजिक सेवाये, बुनियादी उद्योग, ऐकाधिकार उद्योग,उद्योग जो कम उपलब्द्ध संसाधनों का उपयोग करते हैं और वे उद्योग जिन्हें आम तौर पर राज्य से सहायता मिलती है ,ऐसो पर राज्य का नियंत्रण होना चाहिए. नियंत्रण के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं :मूल्यों का निर्धारण, लाभानाश का सीमा निर्धारण; श्रमिको के काम करने की दशा और मजूरी के निर्धारण, सरकारी निर्देशकों का कम्पनियों के निर्देशक मंडल में नियुक्त करना ,कार्य कुशलता का लेखा जोखा .

राज्य के प्रबन्धन के कई रूपं हो सकते हैं एक तो उन इकाइयों का प्रबंधन जिन पर राज्य का स्वामित्व है . लेकिन यह कोई आवश्यक नहीं है कि उन सभी कंपनियों जिन पर राज्य का स्वामित्व है , राज्य द्वारा ही प्रबंधन किया जाय . ऐसी दशा में कई प्रकार के प्रबंधन हो सकते हैं. १. राज्य के द्वारा;२. निजी क्षेत्र द्वारा; ३.सार्वजनिक निगमों द्वारा.

दस्तावेज, एक बीच के सूत्र, रास्ते के पक्ष में है जिसके अनुसार कुछ उद्योग सरकारी क्षेत्र के लिए छोड़ दिया जाने चाहिए और बाकी निजी क्षेत्र के लिए छोड़ दिये जाने चाहिये .

पूंजीवाद और समाजवाद

इस पून्जीर्पति वर्ग और उसके सिद्धान्त्कारों ने उस समय के अध्धयन से यह नतीजा निकाला कि समाजवाद और पूंजीवाद में अंतर को कुछ ज़्यादा ही तूल दिया जाता है.

पूंजीवाद की अहस्तक्षेप की नीति का सिद्धांत अब पूरे तौर पर बदल चूका है. राज्य का हस्तक्षेप अब इतना व्यापक और अंदर तक हो चुका है जिससे पूंजीवाद में इतनी तब्दीली आ चुकी है वह अब पहचाना ही नहीं जा रह है . इसी प्रकार सोवियत राज्यों ने भी पूंजीवाद के कई विशिष्टाएँ अपना ली हैं .इसलिए व्यवहारिक दृष्टिकोण से पूंजीवाद और समाजवाद के बीच के अंतर का महत्व बहुत घट गया है.इन दोनों के ब्नीच की खाई काफी कम हो गई है . दोनों में ही साझे के क्षेत्र हैं . इन दोनों को न्यायोचित तरीके से मिलाकर लागू किया जा सकता है.

यह बात जो इस समूह ने इतनी आसाने सी कह दी , उसे कहने में पश्चिम के विद्वानों ने तीस साल और लगा दिये. शासके विद्वानों की इस विषय पर पुस्तकें १९७० के दशक के प्रारम्भ में ही आनी शुरु हो गयी थी . इस प्रकार हम देखते हैं की यह समूह ऐसी बहुत से घटनाक्रमों का विशलेषण बहुत आसानी से कर रहा था और इस लिहाज़ से वह अपने समकालीनों से बहुत आगे बढ़ा हुआ था .

दस्ताव्वेज अंग्रेज़ी समाजवादी जी डी एच कोल को उध्रत करता है कि “ उत्पादन के विभिन्न स्वरूपों का तुरंत समाजीकरण करने से कोइ लाभ नहीं है; न ही इसकी ज़रूरत ही है .. यह बेहतर रहेगा कि यदि कुछ समय के लिए इनका का समाजीकरण कर लिया जाय और उसके बाद उन्हें निजी हाथो में बचाव की उचित शर्तों के साथ वापस सौंपा जा सकता है , यदि समाजीकरण से अच्छे नतीजे नहीं आते हैं तो ही . एक ही उत्पादन की प्रक्रिया में कुछ हिस्से सामाजिक इकाइयों द्वारा निर्मित किये जा सकते हैं और बाकी निजी कंपनियों के द्द्वारा .. इनकी बीच की विभाजन रेखा जितनी कमतरी से नापी जायगी उतना ही अच्छ होगा. और अलग अलग लोगों को अपनी इच्छानुसार पेशा मिल जाने की संभावना रहेगी. “

इस प्रकार हम देखते हैं कि देश के प्रमुख उद्योग पति , बावजूद इसके कि रूस में समाजवादी क्रांति हो चुकी थी और मजदूरवर्ग काफी आगे बढ़ चुका था , इसके बावजूद के वे समाजवाद के विरोध में थे, इस समूह ने अपनी महत्ववाकान्षा को नहीं छोड़ा था. और वह यह थी कि भारत के बाजार पर उनका नियंत्रण हो , और इसमें विदेशी पूंजी का हिज्स्सा नहीं हो और आज जो है वह भी धीरे कम होता जाय.

जिस प्रकार से उन्होनें समाजवाद और पूंजीवाद के मध्य के साझे के बिंदु तलाशे वैसा काम पश्चिम के विद्वानों ने काफी अरसे के बाद कियाथा. इसलिए ही वे इसका मुकाबला भी कर सकी. राज्य के हस्तक्षेप को और विशेश तौर पर उसके नियंत्रण को इन लोगों ने ज़रूर बताया, यद्यपि उन्होनें इतने बड़े राजकीय क्षेत्र की बात नहीं की थी लेकिन बाद के दिनों में इसी से विशाल राजकीय क्षेत्र का विकास हुआ था.

यह नेहरु जैसे पून्जीवादी सिद्धांतकारों की योग्यता थी कि उन्होनें पूंजीवाद की ज़रूरत को समाजवाद का मुलम्मा चढाकर पेश किया और उसमें ये सफल रहे. इस पूंजीपति को भी नेहरु के समाजवाद में खुशी मिल रही थी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी राजकीय क्षेत्र को समाजवाद के बराबर दर्जा दे दिया. मार्क्सवादी पार्टी के लिए भी यह एक अत्यन्त पवित्र क्षेत्र हो गया था.लेकिन शीघ्र ही , उस समय पूंजीपति वर्गों की योजना बदल दी गयी और इसमें विदेशी पूंजी निवेश एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गया था. लेकिन यह चर्चा फिर कभी .