पूंजीवाद को मानव विकास की धुरी और सबकी उन्नति के तौर पर खूब प्रचारित किया जाता रहा है. यही प्रचार करते करते पूंजीवाद लगभग पूरी दुनिया तक पहुँच गया. पूंजीवाद के समर्थक कितना गलत प्रचार करते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण है – 1950 के आस-पास भारत (समाजवादी पूंजीवाद) और चीन (साम्यवाद) में आबादी की औसत उम्र 40 वर्ष थी. वर्ष 1979 तक भारत में औसत उम्र 54 वर्ष और चीन में 69 वर्ष तक पहुँच गयी.

पूंजीवाद का आरम्भ ही गुलामी से होता है. सत्रहवीं शताब्दी में इंग्लैंड और कुछ अन्य यूरोपीय देशों की औद्योगिक क्रांति (जो पूंजीवाद का आधार बना) के मूल में करोड़ों गुलाम थे जिन्हें अफ्रीका और एशिया के देशों से जलपोतों में भरकर मैनचेस्टर जैसे इलाकों में अमानवीय तरीके से रखा गया और उद्योगों में मुफ्त में या बहुत कम तनखाह पर काम कराया गया. यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि उस समय मशीनें कम थीं, इस कारण सारा काम मजदूरों से ही कराया जाता था. इस पूरी प्रक्रिया में लाखों मजदूरों की मृत्यु हुई. पूरे पूंजीवाद का आधार ही इन्ही मजदूरों का खून-पसीना है.

औद्योगीकरण के पनपने के बाद हरेक देश में के दो वर्ग रह गए – अमीर और गरीब. यह फासला साल दर साल बढ़ रहा है. केवल यह फासला ही नहीं बढ़ता, बल्कि अब तो पूंजीपति ही अपनी मर्जी से सरकार चुनते हैं, अपने फायदे की नीतियाँ बनाते हैं और सरकार चलाते हैं. सबका साथ और सबका विकास के नारे वाली सरकार के हमारे देश में ऐसी नीतियाँ समझाना सबसे आसान है – अदानी, अम्बानी समेत तमाम पूंजीपतियों की पूंजी कई गुना बढ़ती जाती है, इसके बावजूद यही लोग बैंक के पैसे वापस नहीं करते. एक तरफ कई गुना बढ़ती पूंजी और दूसरी तरफ दीवालियापन, यह पूंजीवादी नीति है. दूसरी तरफ यही देश है और वही बैंक हैं जिनसे किसान कुछ हजार या लाख का लोन लेते हैं और समय से नहीं चुका पाने पर इतना परेशान किया जाता है कि आत्महत्या कर लेते हैं.

पूंजीवाद की सबसे बड़ी विशेषता है कि अर्थ व्यवस्था के साथ ही धीरे-धीरे सारे प्राकृतिक संसाधन सिमट कर कुछ लोगों के हाथ में चला जाता है, जमीन इनके हाथ में चली जाते है, पहाड, नदियाँ सब कुछ इनका हो जाता है. जो आबादी इनका विरोध करती है उसे नक्सली, माओवादी, आतंकवादी का तमगा दे दिया जाता है. दुनियाभर में यही हो रहा है, और अपने अधिकारों के लिए या अपने जल, जमीन और जंगल की लड़ाई लड़नेवाले बड़ी तादात में सरकार के समर्थन से पूंजीपतियों की फ़ौज से मारे जा रहे हैं.

पूंजीवाद की प्रगति तो देखिये – वर्ष 1990 में देश में कुल 2 अरबपति थे, 2016 में 84, 2017 में 101 और अब 119 अरबपति हैं. इनके साथ ही देश में भूखे लोगों की संख्या लगातार बढ़ती गयी और साथ ही बैंकों का एनपीए भी. वर्ष 2016 में देश की कुल अर्थव्यवस्था 2.3 ट्रिलियन डॉलर थी और उस समय देश में 84 अरबपति थे. चीन में इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था 2006 में थी और तब वहाँ मात्र 10 अरबपति थे. वर्ष 2017 में जो 101 अरबपति थे उनके पास सम्मिलित तौर पर 440 अरब डॉलर की पूंजी थी. अरबपतियों के पास इससे अधिक पूंजी केवल अमेरिका और चीन में है.

इसके विपरीत देश के औसत आदमी की आमदनी महज 1700 डॉलर प्रतिवर्ष है. भारत के धनाढ्यों ने किसी भी देश के किसी भी काल की तुलना में ज्यादा धन ज्यादा जल्दी एकत्रित किया है. यह कहना मुश्किल नहीं है कि हाल हे वर्षों में भारत में पूंजीपतियों ने आम आदमी को और संसाधनों को खूब लूटा है. वर्त्तमान सरकार में यह लूट-पाट और बढ़ गयी है.

वर्ष 2016 में देश के सर्वाधिक अमीर 10 प्रतिशत आबादी के पास राष्ट्रीय आय का 55 प्रतिशत से अधिक जमा था, जो किसी भी देश की तुलना में सर्वाधिक था. वर्ष 1980 में देश के सर्वाधिक अमीर 1 प्रतिशत धनाढ्यों के पास 7 प्रतिशत संसाधन थे जबकि सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी 23 प्रतिशत संसाधनों पर निर्भर थी. वर्ष 2014 तक सबसे ऊपर के 1 प्रतिशत का हिस्सा बढ़कर 22 प्रतिशत तक पहुँच गया, जबकि सबसे नीचे की 50 प्रतिशत आबादी का हिस्सा घटकर 15 प्रतिशत रह गया. स्पष्ट है, बढ़ती आर्थिक असमानताओं के बीच गरीबों का जीवन दूभर होता चला गया.

पूंजीवाद का सबसे बड़ा उदाहरण तो स्टरलाइट कॉपर की हिंसा है. तमिलनाडु के तूतीकोरिन में स्टरलाइट कॉपर द्वारा उत्पन्न प्रदूषण के विरुद्ध आन्दोलन कर रहे लोगों पर 22 मई को पुलिस ने गोलियां चलाई और खबरों के मुताबिक़ कुल 13 लोग मौके पर ही मारे गए. यह पूंजीवाद का चेहरा है – संसाधनों को अपनी जागीर समझिए और बदले में जनता को प्रदूषण से मारिये. आन्दोलन हो तब गोलियों से मारिये. जनता का साथ देने वालों को शहरी नक्सली का तमगा दे दीजिये.