अपने हाल (अगस्त 2018) के विदेश दौरे के दौरान, इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ स्ट्रेटेजिक स्टडीज को संबोधित करते हुए राहुल गांधी ने कहा कि ‘‘आरएसएस भारत का मिजाज बदलना चाहता है। भारत में कोई भी अन्य ऐसी संगठन नहीं है, जो देश की सभी संस्थाओं पर कब्जा करना चाहता हो...आरएसएस की विचारधारा, अरब देशों के मुस्लिम ब्रदरहुड जैसी है। इसका लक्ष्य यह है कि सभी संस्थाओं की केवल एक ही विचारधारा हो और यह विचारधारा, अन्य सभी विचारधाराओं को कुचल दे‘‘। उन्होंने यह भी कहा कि ‘‘मुस्लिम ब्रदरहुड पर अनवर सादात की हत्या के बाद पाबंदी लगा दी गई थी और गांधी की हत्या के बाद आरएसएस को प्रतिबंधित कर दिया गया था...और सबसे दिलचस्प बात यह है कि इन दोनों ही संगठनों में महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया जाता‘‘। इस बयान का जवाब देते हुए भाजपा प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा, ’’राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी संघ से जुड़े थे और राहुल गांधी की संघ की मुस्लिम ब्रदरहुड से तुलना अक्षम्य है‘‘।

संघ से जुड़े कुछ व्यक्तियों ने कहा कि जिसने भारत को न समझा हो, वह आरएसएस को नहीं समझ सकता। आरएसएस की राजनीति की प्रकृति के कई विभिन्न विश्लेषण उपलब्ध हैं। राजनीति विज्ञानियों एवं शिक्षाविदों ने आरएसएस की गतिविधियों के पीछे की राजनीति को उजागर किया है। आरएसएस न केवल एक राजनीतिक संस्था है वरन् वह उससे भी आगे बढ़ कर है। उसकी राजनीतिक शाखा, भाजपा, उसके उन क्रियाकलापों का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है जो उससे जुड़ी हुई असंख्य संस्थाएं करती हैं। भाजपा के सुधांशु मित्तल ने अपने एक लेख में कहा है कि संघ परिवार की संस्थाओं ने देश के लिए बहुत कुछ किया है।

भारत में आरएसएस से जुड़ी सैकड़ों संस्थाएं समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत हैं। हम यहां इन संस्थाओं की संदिग्ध एवं जोड़तोड़ वाली गतिविधियों की चर्चा नहीं कर रहे हैं। हम केवल इस पर अपना ध्यान केन्द्रित कर रहे हैं कि ये संस्थाएं ऐसा क्या नहीं कर रही हैं, जो समाज के विभिन्न वर्गों के हित में ज़रूरी है और जो इन्हें करना चाहिए। उदाहरण के लिए, हम आरएसएस से जुड़ी संस्था भारतीय किसान संघ की बात करें। हम देख रहे हैं कि किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जो गहन कृषि संकट का प्रतीक है। क्या हमने कभी इस संस्था को इस मुद्दे पर बात करते हुए सुना कि कृषि क्षेत्र को बचाने के लिए क्या किया जाना चाहिए और किस तरह सरकार की गलत नीतियों के कारण गांवों की दुर्दशा हो रही है। यही सवाल संघ परिवार की उन संस्थाओं के बारे में भी उठाया जा सकता है, जो आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय हैं। आदिवासी क्षेत्रों में बढ़ती ईसाई-विरोधी हिंसा की खबरें तो मिलती हैं, लेकिन हमने कभी इन संस्थाओं को आदिवासियों के विस्थापन एवं हाशिए पर खिसकते जाने की बात करते नहीं सुना।

आरएसएस परोपकारी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर शामिल होने का दावा करता है। मीडिया में ऐसी खबरें आती रहती हैं कि आरएसएस के कार्यकर्ता किसी भी आपदास्थल पर सबसे पहले पहुंचते हैं। लेकिन हमें केरल में तो यह नजर नहीं आया! यह जानना दिलचस्प होगा कि मुस्लिम ब्रदरहुड भी परोपकारी गतिविधियां करता है परंतु दोनों ही मामलों में ये परोपकारी गतिविधियां सतही होती हैं और इनका मुख्य लक्ष्य एक विशेष प्रकार के सामाजिक रिश्तों को समाज पर लादना होता है। मूलतः, आरएसएस और मुस्लिम ब्रदरहुड दोनों का लक्ष्य ऐसे समाज की स्थापना करना है जो समानता के प्रजातांत्रिक मूल्य के विरूद्ध हो। निश्चित तौर पर आरएसएस और मुस्लिम ब्रदरहुड जुड़वां नहीं हैं परंतु उनमें अनेक समानताएं हैं, जिनमें से सबसे बड़ी यह है कि दोनों का राजनैतिक एजेंडा एक है। अपनी सारी बड़ी-बड़ी बातों के बावजूद, आरएसएस का मूल एजेंडा हिन्दू राष्ट्र की स्थापना है। वह भारतीय संविधान के मूल्यों को पश्चिमी मानता है और समाज को उन मूल्यों के आधार पर संचालित करना चाहता है जो हिन्दू पवित्र ग्रंथों में दिए गए हैं।

अब हम देखें कि मुस्लिम ब्रदरहुड के क्या लक्ष्य हैं। वह भी समानता के प्रजातांत्रिक मूल्यों व प्रजातांत्रिक संस्थाओं को पश्चिमी बताता है और कहता है कि इस्लामिक मूल्यों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। उसके लिए इस्लामिक मूल्यों का अर्थ है लैंगिक और सामाजिक असमानता।

दोनों के द्वार केवल पुरूषों के लिए खुले हैं, दोनों स्वर्णिम अतीत की बातें करते हैं और आधुनिक मूल्यों (जिन्हें वे पश्चिमी बताते हैं) के विरोधी हैं। यह तो हुई दोनों संस्थाओं के बीच समानताएं।

आरएसएस ने प्रशिक्षित प्रचारकों की एक बड़ी फौज तैयार कर ली है जो विभिन्न संस्थाओं का गठन करती है और उनके जरिए आरएसएस के एजेंडे को आगे बढ़ाती है। इसके विपरीत, मुस्लिम ब्रदरहुड केवल अपने झंडे तले काम करता है। यहां यह जोड़ा जा सकता है कि अमरीका में सन् 1920 के दशक में उदित ईसाई कट्टरतावाद भी कुछ इसी तरह का था। अनेक देशों में औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद ऐसे संगठनों ने जन्म लिया जो धर्म को अपनी वैधता का आधार बनाते हैं और समानता के मूल्य के विरूद्ध हैं। भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने 1885 में अपनी स्थापना के बाद से ही एक समावेशी राष्ट्र के निर्माण की दिशा में काम करना शुरू किया, जिसमें सभी धर्मों के लोगों के लिए स्थान था। कांग्रेस, सामाजिक समानता की हामी थी। इसके विपरीत, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा-आरएसएस का गठन सामंती और जमींदार वर्गों ने किया और बाद में इनमें समाज के श्रेष्ठि और मध्यम वर्ग का एक तबका शामिल हो गया। ये दोनों ही संस्थाएं स्वर्णिम अतीत का महिमामंडन करती हैं और अपने-अपने धर्मों के ग्रंथों और राजाओं के शासन को सर्वश्रेष्ठ बताती हैं। आरएसएस ने बड़ी चतुराई से दर्जनों ऐसे संगठन बना लिए हैं जिससे उसके प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के बीच श्रम विभाजन हो गया है और अब वे समाज के विभिन्न तबकों में हिन्दू राष्ट्र के एजेंडे को लागू करने और भारतीय संविधान में निहित मूल्यों का विरोध करने में जुटे हुए हैं। संबित पात्रा ने राहुल गांधी के वक्तव्य को अक्षम्य बताया और यह कहा कि कोविंद, मोदी, वाजपेयी इत्यादि की संघी पृष्ठभूमि है। यह कहना मुश्किल है कि उन्होंने यह क्यों नहीं बताया कि महात्मा गांधी के हत्यारे गोडसे, पास्टर स्टेन्स और उनके दो बच्चों को जिंदा जलाने वाला दारासिंह और प्रमोद मुतालिक, जिनकी श्रीराम सेने ने पब में जाने वाली लड़कियों पर हमले किए थे, की भी या तो संघी पृष्ठभूमि थी या उनका संघ से कोई जुड़ाव था। मुस्लिम ब्रदरहुड को कई देशों में आतंकी संगठन घोषित कर दिया गया है और आरएसएस के दो प्रचारक अजमेर धमाकों के सिलसिले में जेल में हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ये दोनों केवल पुरूषों की ऐसी संस्थाएं हैं जो प्रजातांत्रिक मूल्यों की विरोधी हैं और अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए धार्मिक पहचान का उपयोग करती हैं। उनके सांगठनिक ढांचे और काम करने के तरीके में कुछ मामूली अंतर हो सकते हैं।