राजनैतिक प्रतिद्वंदिता के कारण भाजपा के हिंदुत्व का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस के राहुल गाँधी ने धार्मिक स्थलों में जाकर पूजा अर्चना शुरू कर दी है ; यानि जनता को धर्मं के आधार पर आकर्षित करने की कोशिश की जा रही हैं . इस प्रकार की धार्मिक प्रतिद्वंदिता के नतीजे हम १९८० के दशक में देख चुके हैं जिसका अंत 1989 से 1992-3 के साम्प्रदायिक दंगों में ही हुआ और भारत की राजनीति के सेकुलर आधार पर गहरी चोट कर गया था .इससे यह भी साफ लगता है कि शासक वर्गों की दो प्रमुख पार्टियां इस बात पर सहमत हैं कि यह शासन धार्मिक / सांप्रदायिक आधार पर चलाना आवश्यक है . किसी ने इसका विरोध यह कहकर नहीं किया है यह गलत है और सेकुलर आधार को और अधिक कमज़ोर करेगा. इन तरीको पर आम स्वीकृति दिखायी दे रही है. शासक वर्गीय पार्टियां इसे जनता को नियंन्त्रित करने का सबसे कारगर साधन मान रहे हैं. हमें इन तरीको के खतरों से जनता को आगाह करना है.

इस क्रम में पंजाब सरकार ने एक कदम आगे बढकर प्रदेश में ईशनिंदा क़ानून बनाया है. इसके अनुसार चार धर्मग्रंथों के विपरीत कुछ कहने को अपराध की श्रेणी में लिया जायागा और उसके लिए दंड का प्रावधान है . यह एक ऐसा क़ानून है जिसके बनने के साथ ही भारत, पाकिस्तान और सउदिया जैसे देशों की श्रेणी में आ जाएगा. यह कार्य कांग्रेस पार्टी की पंजाब सरकार ने किया है . इस क़ानून के लागू होने से सबसे पहली गिरफ्तारी संत कबीर जैसे व्यक्तियों की होगी .यदि यह कानून पुराने समय में होता तो बहुत से सुधारवादी आन्दोलनों के नेता जेलों में होते और उत्तेर प्रदेश के मुख्य मंत्री के नाथ समप्रदाय का जन्म ही नहीं होता. धर्मों के विरोध में या किसी विशेष प्रावधान के विरोध के द्वारा ही देश में तमाम सुधार आन्दोलन हुए हैं जिससे लोगों को राहत मिली है और आगे बढ़ने के मौके मिले हैं . जो लोग कांग्रेस को भाजपा का विकल्प समझते हैं इन्हें एक बार और सोचना चाहिए .ये पार्टियां सत्ता के लिए संघर्ष में इन सब हथकंडों को अपना रही हैं लेकिन यह भी साफ है कि वे स्वयं भी सेकुलर नहीं हैं .

सुप्रीम कोर्ट के हाल के निर्णयों ने हमारी जिम्मेवारे बढ़ा दी हैं.

यह निर्णय कि आधार विधेयक एक धन विधेयक है , एक और तो राज्य सभा की प्रासंगिकता को समापत करता है और लोकतंत्र में निर्णय लेने के लिये जो सावधानियां लेनी चाहिए और संतुलन रखना चाहिए , उसका उल्लन्घन करता है. यदि आधार विधेयक को धन विधेयक मान लिए जाता है तो बहुतेरे कानून आसानी से पास हो जायंगे .,राज्य सभा चाहे या न चाहे . इतिहास में चूंकी सभी ऐसे देशों में जो प्रतिनधि व्यवस्था को मानते हैं, में संसद का निचला सदन ही जनता द्वारा चुना जाता है और ऊपरी सदन अप्रत्यक्ष रूप से ही. इसलिए लोकतंत्र की स्थापना के आन्दोलन के दौर में यह स्थापित हुआ कि धन संबंधी सभी विधेयक केवल जनता द्वारा सीधे चुने हुए सदन में ही प्रस्तुत किये जायंगे और ऊपर सदन इस बारे में कोई अधिकार नहीं प्राप्त है . लेकिन कोई धन विधेयक है कि नहीं इसका निर्णय निचले सदन यानी लोक सभा के अध्यक्ष पर छोड़ दिया गया है जैसा भारत में है . वर्तमान सत्तारुढ़ पार्टी का लोक सभा में तो बहुमत है लेकिन राज्य सभा में नहीं है. ऐसी दशा में आधार विधेयक को धन विधेयक करार कर इसे पास करा लिया गया है, यह वास्तव में संवैधानिक तानाशाही की ओर एक और कदम बढाता है.

पांच सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट के बहुमत ने अपने निर्णय में इसे विचारों के हनन या विरोधी विचारों को दबाने का मामला नहीं माना है . गनीमत है उसने यह निर्देश जारी किया है कि वे अपनी पैरवी नीचे की अदालत में कर सकते हैं और इसके लिए 4 सप्ताह के लिए उन्हें और नज़रबंदी में रखने का आदेश है.यह अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा के लिए कोई बहुत अच्छी बात नहीं हैं . कोर्ट का लचर रवैय्या होने के कारण सरकार को आगे मामले को ले जाने में आसानी होगी और जून महीने में गिरफ्तार किये गए 5 दलित समर्थक बुद्धिजीवियों को भी अब लम्बी सजा भुगतने के लिए तैयार हो जाना होगा. महाराष्ट्र के मुख्य मंत्री ने तुरंत ही घोषणा कर दी है सुप्रीम कोर्ट ने यह मान लिया है कि इन गिरफ्तारियों के पीछे कोई षड़यंत्र नहीं है. .बेशक अल्पमत के निर्णय ने इसबात को खारिज किया है और जिससे इसकी भविष्य मे संघर्ष की संभावना बनी रहती है. लेकिन हाल फिलहाल सरकार को इन पांच कार्यकर्ताओं का दमन करने का पूरा मौका मिल गया है .

यह सब घटनाक्रम और जन कार्यकर्ताओं का दमन ऐसे समय में हो रह है जब देश में निर्धनता में काफी वृद्धि हो रही है , अर्थव्यवस्था नीचे जा रही है ,देश की मुद्रा पर भरोसा घटता जा रहा है. एक के बाद एक बैंक के घोटाले खुलकर सामने आ रहे हैं और जनता के समक्ष यह साफ होता जा रहा है कि शासक बैंकों की लम्बी रकम घोटालों में खा गए हैं और अपने मित्र उद्योगपतियों के द्ववारा इसे पार कर दिया है. समूचे शासक वर्ग की कलई खुल रही है और ऐसे समय में ‘शहरी नक्सली’ की धर पकड़ का नारा बुलन्द किया जा रहा है.निर्णय के बाद अमित शाह , भाजपा अध्यक्ष ने कांग्रेस को चुनौती दी है कि वे शहरी नक्सलियों पर अपने विचार साफ करे .अब एक ऐसा दौर शुरू होने वाला है जब ये सभी एक दुसरे को शहरी नक्सली बताकर , अपने असली विरोधियों का दमन करेंगे.

इसीलिए यह समय वैसे संगठनों के लिए खासतौर से चुनौतीपूर्ण है जो कि मानव अधिकार और नागरिक अधिकारों के लिए सचेत है ।जैसे लोक स्वातंत्रय संगठन है। यह ऐसे ही संगठनों का काम है कि इन दमनात्मक नीतियों का वह विरोध करे ,आम जनता को सचेत करें और लोकतान्त्रिक मूल्य और मान्यताओं को स्थापित करने की लड़ाई लडे.