अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 एवं नियम 2008 और संशोधन नियम - 2012 का उद्देश्य अनुसूचित जनजाति और अन्य वन निवासियों के साथ हुए ऐतिहासिक अत्याचारों का उपचार करना था। व्यक्तिगत सामुहिक तथा जैव विविधता के दावे पेश करवाने का काम वन विभाग के अधिकारियों का था, किन्तु वन विभाग के अधिकारियों ने अपनी इस जिम्मेदारी को सही और पूरे तरीके से नही निभाया। छिन्दवाड़ा जो कि आदिवासी बहुल्य क्षेत्र है, जिसमें कुल 58 लोगों के व्यक्तिगत दावे स्वीकृत किये गये है लेकिन सामुहिक दावे तो एक भी स्वीकृत नही किये गये। यह जिम्मेदारी वन विभाग के अधिकारियों की थी । इसी जिम्मेदारी को पूरा करने का कार्य करने के लिये उन्हें देश का गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाला व्यक्ति भी अप्रत्यक्ष कर के माध्यम से वेतन भुगतान में अपनी भागीदारी निभाता है। दूर दराज जंगल में निवास करने वाले व्यक्तियों के देश भर में व्यक्तिगत, सामुहिक एवं जैव विविधता के दावे प्रस्तुत ही नही किये गये। वन विभाग के अधिकारी जंगल माफिया के हाथ की कठपुतली बन कर रह गये है।

बेंगलुरू स्थित वाइल्डलाइफ फस्र्ट नाम के एन.जी.ओ. द्वारा दाखिल जनहित याचिका में 2006 के वन अधिकार कानून को चुनौती दी गई थी। उनका कहना है कि अतिक्रमण के कारण जंगली जानवरों और जंगल को बचाने के लिये ऐसा किया जाना जरूरी है। उपरोक्त प्रकरण 2008 से उच्चतम न्यायालय में लंबित था जिसमें केन्द्र सरकार के वकील वन अधिकार कानून का बचाव करने के लिये नही थे। राज्यों के मांगे गये शपथ पत्र के आधार पर करीब 19 लाख आवेदनों को अस्वीकार किये जाने की जानकारी दी गई।

सत्ता में बैठी राजनैतिक पार्टियों की जवाबदेही सिर्फ अपनी कुर्सी बचाने तक ही सीमित रह गई है। देश की अदालतों के अन्दर क्या कार्यवाही चल रही है इससे उन्हें कुछ लेना देना नही है। सरकारी वकील किस तरीके से काम कर रहे है यह तो उपरोक्त प्रकरण में देखा ही गया है । उच्च पदों पर आसीन अधिकारी सातवें आयोग का लाभ लेने के लिये तो तैयार है किन्तु जमीनी स्तर पर काम करने की उनकी कोई मंशा नही है आर्टीफिसियल इंटेलिजेन्सी के युग में ग्रामीण क्षेत्र के लोग इंटरनेट के अभाव एवं साक्षर न होने के कारण इसका लाभ भी नही उठा पाते,। चुने हुए प्रतिनिधि पैसे के बल पर चुनाव तो जीत जाते है परन्तु विषय की जानकारी ठीक तरीके से न होने के कारण वे अधिकारियों से काम लेना भी नही जानते। अधिकारी जोकि 18 से 20 घण्टे विषय को पढ़कर परीक्षा पास करते है वे चुने हुए प्रतिनिधियों की बोल चाल की भाषा से ही उनके ज्ञान का अन्दाज लगा लेते है। इसी कारण चुने हुए प्रतिनिधियों की बात को सरलता से नजर अन्दाज कर देते है। सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस बात का जीता जागता उदाहरण है। सत्ता में बैठने के पहले चुनाव के दौरान विषय की जानकारी पूरी तरह से रखने के पूर्व सब कामों को करने की सहमति तो देते है किन्तु सत्ता में बैठने के बाद वही करते है जो पिछली सरकार करके गई है। सही मायने में तो पूछिये सरकार चलाने का काम चुने हुए प्रतिनिधि नही प्रशासनिक अधिकारी कर रहे है। इसलिये तो सत्ता बदलने के बाद भी मुलताई गोली चालन या मंदसौर गोली चालन या जंगल में निवास करने वाले व्यक्तियों के समुहिक, व्यक्तिगत एवं जैव विविधता के दावे प्रस्तुत एवं स्वीकृत नही कराने वाले, भ्रष्टाचार करने वाले अधिकारियों पर कोई उचित कार्यवाही नही की जाती। चुने हुए प्रतिनिधियों का लगाव अधिकारियों के तबादलों पर रहता है ।

वर्तमान में 10 लाख आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने का आदेश भारत की सर्वोच्च अदालत ने दिया है। कभी ये सोचा गया कि ये 10 लाख लोग जंगल से बेदखल होने के बाद आखिर जायेंगे कहाँ? इनके रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, तथा स्वास्थ्य की व्यवस्था कहाँ से होगी। इस तरीके का फैसला अंग्रेजी शासन काल में भी नही हुआ। आदेश में कहा गया है कि राज्य सरकारों के मुख्य सचिव यह सुनिश्चित करेंगे कि जहाँ दावे खरिज/ निरस्त किये जाने के आदेश दिये जा चुके है उन दावेदारों को जंगल से बेदखल किये जाने की कार्यवाही इस मामले की अगली सुनवाई तक पूरी हो जानी चाहिए (अगली सुनवाई 27 जुलाई 2019 को तय है) ।अदालत ने यह भी कहा कि बेदखली की कार्यवाही अगर पूरी नही हुई तो अदालत इसे गम्भीरता से लेगी। अदालत ने यह भी कहा कि जहाँ पर मामले लम्बित है वहाँ संबंधित राज्य सरकार 4 महीने के अन्दर आवश्यक कदम उठायेगी और उसकी रिपोर्ट इस अदालत को सौंपेगी। बात यही आकर नही रूकती फारेस्ट सर्वे ऑफ इण्डिया को एक एक उपग्रही सर्वे करने के आदेश दिया गया है ताकि अतिक्रमण की और स्थितियों को रिकार्ड किया जावे तथा बेदखली के बाद के स्थिति के बारे में भी बता दिया जावे।

स्पष्ट है कि जंगल में निवास करने वाले व्यक्तियों की स्थिति बहुत गंभीर होगी। लोकसभा के चुनाव हैं राजनैतिक पार्टियाँ तथा सरकारी कर्मचारी चुनाव की प्रक्रिया में व्यस्त हो चुके है ।उन्हें इस बात से कुछ लेना देना नही है कि जंगल में निवास करने वाले व्यक्तियों को जंगल से बेदखल किये जाने पर भारत का नक्शा क्या होगा ? ऐसी स्थिति में सबकी जिम्मेदारी है कि सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित करने की दिशा में सोंचे।