दुनिया की तीन महाशक्तियों ने नरेंद्र मोदी सरकार को अपने तरीके से समर्थन दिया है . इसका व्यवहारिक मायने यह है कि वे आज भाजपा सराकर को कांग्रेस की तुलना में अधिक पसंद कर रही हैं . इन सब ने अपने अपने तरीके से चुनाव प्रचार के दौरान ही इस बात के संकेत दिये हैं, बिना इस बात की परवाह करते हुए कि इसका विपक्षी पार्टियों पर क्या असर पडेगा. बावजूद इसके भी कि कांग्रेस पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में पूरा प्रयास किया है कि वह दुनिया की सबसे प्रभावशाली और राजनीति को नियंत्रित करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों, विदेशी पूंजी और महाशक्तियों को आश्वस्त करें कि उसके सत्ता में आने पर उन्हें वे सब दोस्ताना नीतियाँ मिलेंगी जो उन्हें वर्तमान शासन में मिल रही हैं.

अमेरिका लम्बे समय से भारत से बेहतर सम्बन्ध स्थापित कर रहा है और नरेन्द्र मोदी के कार्यकाल में भारत और अमेरिका के लगभग फ़ौजी संधि के सम्बन्ध स्थापित हो गए हैं .भारत ने अपनी विदेश नीति के अंतर्गत अमेरिका और फ़्रांस के साथ सामरिक एकजुटता दिखाई है और हिन्द महासागर में इन दोनों से ताल मेल करके वह अपनी नीतियों का संचालन कर रह है. अमेरिका के लिए भारत एक गैर नाटो सदस्य के साथ फौजी संधि जैसे सम्बन्ध स्थापित हो गए हैं . ऐसा नहीं है की अमेरिका और भारत में मतभेद नहीं हैं , रूस और इरान से भारत के सम्बन्धों को लेकर दोनों पक्षों में गहरे मतभेद हैं .इसके बावजूद अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप इस बात को घोषणा करते हैं जितने अच्छे सम्बन्ध आज भारत के साथ हैं उतने कभी नहीं रहे हैं. यह बात दोनों पक्ष आम तौर पर स्वीकार करते हैं. डोनाल्ड ट्रम्प भी इस बात से सहमत हैं कि जितने अच्छे सम्बन्ध अभी हैं उतने कभी नहीं रहे हैं.

टाइम मैगज़ीन ने अपने लेख में मोदी को बेशक सर्वाधिक विभाजनकारी व्यक्ति बताया है लेकिन साथ में यह भी कह है कि आर्थिक सुधार , अर्थात साम्राज्यवाद पक्षीय नीतियां , मोदी के होते ही लागू हो सकेंगी और वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में मोदी ही भारत के लिए सबसे सही नेता हैं .

मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान ही अमेरिका भारत का सबसे बढ़ा हथियारों की आपूर्ति करने वाला देश हो गया है .मोदी के अधीन ही पहली बार श्रम क़ानून में परिवर्तन आया है . इससे पहले भी हर बार जब भी परिवर्तन लाने की कोशिश की गयी है तब सभी विपक्षी पार्टियों ने मिलकर इसे आन्दोलन के सहारे रोक लिया है . इस विरोध में भाजपा हमेशा शामिल रही हैं .

यह देखा गया है की भाजपा जब विरोध पक्ष में होती है तो, उन नीतियों का विरोध करती है जो विदेशी पूंजी के पक्ष में होती हैं या देश के राष्ट्रवाद के विरोध में जाती हैं अथवा देश के स्वालम्बी विकास के विरोध में है. लेकिन सता में आने पर वह ठीक इन्हीं नीतियों को लागू करती है . जैसे खुदरा और थोक व्यापार में विदेशी पूंजी के विरोध में थी ; लेकिन सत्ता में आने के बाद इसने विदेशो पूंजी को धीरे धीरे सभी व्यापार के क्षेत्रों में आने दिया है. इसने अपने व्यापारियों से किये वायदों को भी नकार दिया है .

इसी प्रकार वर्ष २००८ में जब भाजपा विपक्ष में थी , तब उसने वाम के साथ मिलकर कांग्रेस के विरोध में भारत-अमेरिका परमाणु संधि के विरोध में वोट डाला था .लेकिन सत्ता में आने के बाद भाजपा ने वह सब काम करने शुरू कर दिए जिसका उसने विपक्ष में रहकर विरोध किया था.

नरेन्द्र मोदी का विकल्प

इस बात को विश्व में सभी जानते और समझते हैं. इसलिए भी अमेरिका यही चाहेगा कि नरेन्द्र मोदी की नीतियाँ और शासन जारी रहे. एक बात और भी है वह यह की स्थायी सरकार की संभावना केवल नरेन्द्र मोदी के शासन में ही दिखाई दे रही है. इसकी विपरीत साझा सरकार बनाने से पूंजी आम तौर पर इसे पसंद नहीं करती है. साझा सरकार का मायने है विभिन्न वर्ग हितों में सांमजस्य बिठाना , और ऐसी नीति को लागू करना जो सबको मंज़ूर हो. इसका परिणाम अवश्यम्भावी रूप में समझौता वादी तरीके से नीतियाँ बनाना. और यह पूंजी को पसंद नहीं है क्योंकि एक लम्बे अरसे किए बाद पूंजी ऐसी स्थिति में आयी हैं कि वह अपनी मन चाही नीतियाँ लागू कर पा रही है .अमेरिका के लिए कोई कारण नहीं है की वह मोदी सरकार के अलावा किसी अन्य सरकार को समर्थन दे .

रूस का समर्थन

चुनाव प्रचार के मध्य १२ अप्रैल को रूस ने नरेन्द्र मोदी को रूस के सर्वोच्च सम्मान , “ देव दूत संत ऐंड्रू के सम्प्रदाय’, से नवाज़ा क्योंकि नरेन्द्र मोदी ने “रूस और भारत के मध्य दो पक्षीय और विशेष तथा विशिष्ट सामरिक सम्बन्ध को स्थापित किया और रूस और भारत की जनता में मित्रता पूर्ण सम्बन्ध कायम किये. यह सम्मान रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन द्वारा दिया गया .

सुरक्षा परिषद् के ५ सदस्यों में केवल पुतिन ही ऐसे थे जिन्हें पुलवामा के समय मोदी को फोन करके उनके जवाब देने के अधिकार को समर्थन किया था.

भारत और रूस के सम्बंध भी प्रगाढ हो रहे हैं. भारत के अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ एक उच्च स्तर की समझ बनने के बावजूद रूस और भारत के सम्बन्ध भी उच्च स्तर पर पहुँच चुके हैं . गत वर्ष मोदी और पुतिन की लम्बी वार्ता में यह साफ हुआ था की भारत – प्रशांत क्षेत्र में रूस और भारत सहयोग करेंगे . रूस और भारत दोनों सी दक्षिणी पूर्वी एशिया में प्रभाव में विस्तार करेंगे. दोनों साथ में वियतनाम में तेल के भंडारों को खोजने का काम भी करेंगे. इसके अलावा रूस यूरेशिया आर्थिक संघ बनाने के लिए इच्छुक है जिसमें रूस के अलावा मध्य एशिया के देश शामिल हैं भारत ने भी इस विषय पर रूस से बात चीत की है . दोनों देशो में ट्रंप के विरोध के बावजूद , सामरिक गठबंधन जारी है और अधिक ऊंचे स्तर पर ले जाया गया है . रूस से हथियार खरीदना जारी है. विशेष तौर पर एस -४०० जैसे मिसाइल निरोधक अव्स्त्रों और कामैव हेलीकाप्टरों का . इस प्रकार भारत और अमेरिका के संबंधों में गुणात्मक सुधार आने के बावजूद रूस से सम्बन्ध खराब नहीं हुए हैं , बल्कि बेहतर होते जा रहे हैं और नरेन्द्र मोदी , जो कूटनीति में व्यक्तिगत सम्बन्धों को अति महत्व देते हैं , और पुतिन के निजी सम्बन्ध बहुत बेहतर बत्ताये जाते हैं . जो हो रूस और भारत आज फिर साथ साथ हैं , बावजूद इसके की रूस और पाकिस्तान के सम्बन्धों में गुणात्मक सुधार आया है. ये सब परिवर्तन चीन की विस्तार वादी और आक्रमनात्मक विदेश नीति के कारण हो रहा है .

जो हो रूस ने यही उचित समझा है कि नरेन्द्र मोदी का सत्ता में वापस आना उसके हितों के अनुसार ही है. इसका साफ संकेत उन्होनें इसी लिए चुनाव के दौरान देना उचित समझा.

चीन का समर्थन

चीन ने भी अपने तरीके से मोदी को समर्थन दिया है. चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने गत माह , दिये बयान में यह कहा है कि भारत के बेल्ट एंड रोड मंच पर जाने से मना करने से चीन और भारत के सम्बन्धों में कोई अंतर नहीं आएगा. राष्ट्रपति शि और प्रधान मंत्री मोदी के मध्य जो मधुर सम्बन्ध गत वर्ष वुहान में संपन्न दो दिन की मीटिंग में बने थे, वे ज्यों के त्यों बरकरार हैं .राष्ट्रपति शि जिन पिंग और नरेन्द्र मोदी की दूसरी अनौपचारिक शिखर वार्ता की तैयारियाँ चल रही हैं और यह दूसरा सम्मेलन भारत में ही राष्ट्रपति शि की भारत यात्रा के दौरान ही होगा.

चुनाव प्रचार के मध्य इस प्रकार की घोषणा का एक ही मतलब है और वह यह कि चीन को यह आशा है की नरेन्द्र मोदी आगे भी प्रधान मंत्री रहेंगे. “ विदेश मंत्री ने आगे कहा कि दोनों नेताओं ने आपस में विश्वास पैदा कर लिया था और दोनों ने भविष्य की योजनायें भी बनायी हैं ताकि रिश्ते और अधिक मज़बूत हो . चीन के अनुसार भारत और चीन के मध्य एक ही बुनयादी अंतर है . वह यह कि बेल्ट और रोड पहल ( बी आर आई ) को कैसे देखा जाय,इत्यादि . विदेश मंत्री ने आगे कहां कि भारत यह चाहता है कि हमारे मतभेद को ऐसा दर्जा दिया जाय ताकि वह आगे बढ़ने के रास्ते में बाधा न बन सके. चीन इससे खुश है क्योंकि यह दोनों देशों की जनता के लाभ के लिए है. “

इन तीनों महाशक्तियों को यह लगता है की नरेन्द्र मोदी के होने से उनके एजेंडा आगे बढ़ते रहेंगे. वे लोग जो समझ इन पांच वर्षों में निरंतर मुलाकातों से बनायी है उसे लेकर वे आगे बढ़ने में कामयाब रहेंगे. नए खिलाड़ी की आने से विशेष तौर पर साझा सरकार आने से उनके आगे बढ़ने में खलल आ सकता है . इसके अलावा चीन और रूस में वर्तमान सत्ता व्यक्ति केन्द्रित है,. अर्थात आपने जो उस व्यक्ति से तय कर लिया वह आसानी से लागू होगा. इनके हाथ में समूची सत्ता है. नरेन्द्र मोदी का व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा ही है . इनके राज में भी सत्ता उनके हाथ में ही केन्द्रित है . जो वह निर्णय लेंगे वह इनके शासन में पूरे तौर पर लागू हो जायगा. संभवत: यह भी एक कारण सकता है की वे मोदी को वरीयता देते हैं.

महत्त्वपूर्ण बात यह है की ये तीनों देश वर्तमान आर्थिक नीतियों के समर्थन में हैं और इसमें बदलाव नहीं चाहते हैं .

इमरान खान का समर्थन

इन तीन के अलावा पाकिस्तान के प्रधान मंत्री इमरान खान ने भी भाजपा सरकार की वापस आने की वकालत की है . यह एक बार नहीं बल्कि कई बार की गयी है. इमरान ने कई बार कहां है कि चुनाव के बाद भारत से सम्बन्ध सुधरेंगे. भाजपा के आने पर सम्बन्ध बेहतर होंगे, इत्यादि. इस बारे में पाकिस्तान के अखबारों ने कई बार चर्चा की है और इमरान ऐसा क्यों कर रहे हैं?. कराची के डॉन अखबार ने अपने सम्पादकीय में यह सवाल उठाया और कुछ मज़ाक के लहजे में कहां कि हमारे प्रधान मंत्री की अपने पड़ोसी देशों की राजनीति के बारे में नज़रिया पैना होता जा रहा है. उसने इमरान को यह चेतावनी भी दी है कि नरेन्द्र मोदी के आने से सम्बन्ध अच्छे होंगे ऐसा कोई आवश्यक नहीं है . यह बात सही है की मोदी ने कई बार पाकिस्तान की यात्रा की है और नवाज़ शरीफ के समय में वह उनके यहाँ भी आये थे . यह भी सही है की वर्ष १९९९ में लाहौर की बस यात्रा अटल बिहारी वाजपयी , ने ही की थी. और वर्ष २००१ में परवेज मुशर्र्फ से आगरा शिखर समेलन में लगभग एक समझौता हो गया था . लेकिन डॉन ने चेतावनी दी है कि मोदी ने बहुत अधिक पाकिस्तान विरोधी माहौल बनाया है और मुसलमानों के विरोध में भी तमाम बातें कही हैं.

कुछ अन्य पत्रकारों ने इस बात पर जोर दिया है कि गत वर्षों में पाकिस्तान की अंदरूनी समस्याएं देखते हुए वहाँ के एक बड़े तबके को यह लगने लगा था कि मजहबी राज बनाना गलती थी और एक सेकुलर राज होना चाहिये था और यह भी कि शायद पाकिस्तान बनाना भी गलत था. लेकिन जब से भाजपा का उदय हुआ है और वह मज़बूत होती गयी है ।उसके बाद से पाकिस्तान में यह सोच कर सुकून है कि भारत भी उन्हीं की तरह का हो गया है और पकिस्तान का निर्माण उचित ही था. लगता है इमरान खान भी इसी सोच के हैं.

पाकिस्तान के नरेन्द्र मोदी को चाहने के कारण बाकी तीनों महाशक्तियों से अलग हैं .वे यह सोच रहे हैं कि मोदी के आने से समझौता सम्भव है लेकिन यदि वही समझौता कांग्रेस या और कोई करेगा तो भाजपा उसके विरोध में खडी होगी. इसलिए इमरान खान को आशा है कि मोदी के आने से समझौता आसान होगा. इसमें एक बात पर और गौर करना ज़रूरी है, वह यह कि जब जनता पार्टी शासन में आयी थी , तब भाजपा का वर्गीय आधार व्यापारी वर्ग यानी छोटी पूंजी था. वर्ष १९९९ में भी इसके अवशेष बाकी थे . लेकिन उस समय तक भाजपा अपना वर्गीय आधार बदल चुकी थी और वह बड़ी पूंजी के साथ खडी हो चुकी थी. आज क्या यह पूंजी पाकिस्तान से दोस्ती और समझौता चाहती है ? इसके जवाब पर ही निर्भर करेगा की भारत का पाकिस्तान के प्रति क्या रुख रहता है.

शायद भारत के इतिहास में पह्ली बार ऐसा हो रहा है कि विदेशी शक्तियां खुलकर भारत के चुनाव पर अपनी राय दे रही हैं , बिना इस बात की परवाह के कि यह अंदरूनी मामलों में दखलंदाजी माना जा सकता है।