राजस्थान में बलात्कार के बढ़ते मामलों को देखते हुए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने घोषणा की है कि महिलाओं पर अत्याचारों की निगरानी (मॉनिटरिंग) के लिए एक नया पद स्वीकृत किया जायेगा. इसमें सर्किल अफसर (सीओ) स्तर के अधिकारी जांच के लिए रखे जाएंगे. अब पुलिस अधीक्षक (एसपी) कार्यालय में शिकायत दर्ज की जा सकेगी. साथ ही थाने में यदि शिकायत दर्ज नही हुई, तो थाना अधिकारी पर गाज गिरेगी.

मूल सवाल यह है कि क्या ये उपाय पर्याप्त हैं? क्या इन उपायों से महिलाओं के खिलाफ अपराधों की प्रवृति पर अंकुश लग सकेगा? क्या इन उपायों से थाने की व्यवस्था सुधर पायेगी? क्या इन उपायों से कानून का शासन स्थापित हो पायेगा? क्या इन प्रावधानों से लोगों के मन में पुलिस और प्रशासन पर विश्वास कायम होगा ?

राजस्थान में पिछले एक महीने में 20 से ज्यादा बलात्कार की घटनाएं घटित हुई हैं. इसमें अधिकांश गैंगरेप के मामले हैं, जिसका शिकार ज्यादातर नाबालिग लड़कियां हुई हैं. हैवानियत के इन मामलों में अपराधियों ने वीभत्सता की सभी हदें पार की हैं. सभी घटनाएं अलग -अलग कहानियां बयान करती हैं. लेकिन इन सब में एक बात समान है. किसी भी घटना में पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज करना तो दूर, इसके उलट राजनेताओं के प्रभाव में उन घटनाओं को दबाने का भरसक प्रयास किया.

अलवर गैंगरेप, सीकर और उदयपुर के घटना के साथ ही जयपुर जिले के फुलेरा के बोबसा क्षेत्र में 22 अप्रैल को एक दिहाड़ी मजदूर की एकलौती नाबालिक बेटी का पहले अपहरण हुआ, फिर गैंगरेप और उसके बाद पीड़िता की हत्या करके रेल की पटरी पर डाल दिया गया। परिवार वालों ने पुलिस को अपराधियों के नाम और पता बताये. लेकिन घटना के 19 दिन बीतने के बाद भी कोई कार्रवाई नहीं हुई। परिवारवालों ने बताया कि नाबालिग लड़की के साथ यह गैंगरेप पिछले तीन महीने से निरंतर हो रहा था और इसमें कॉलेज के लोग भी शामिल हैं. लड़की के चाचा कह रहे हैं कि पुलिस मामले को दबाने में लगी हुई है और हमारे ऊपर समझौते का दबाव डाल रही है क्योंकि अपराधी रसूखदार है.

वर्तमान परिस्थितियां, कानून व्यवस्था और समाधान के इन उपायों को देखने पर तो यही महसूस होता है कि सरकार को या तो असल मुद्दा समझ नही आ रहा है या फिर उनके लिए महिलाएं कोई मायने नही रखती हैं.

सरकारें विकास की बात करती हैं, सामाजिक न्याय का राग अलापती हैं, महिला सुरक्षा को अपनी प्राथमिकता बताती हैं और दूसरी तरफ यह भयावह स्थिति है. 21 वीं शताब्दी की अर्थव्यवस्था और 18 वी शताब्दी की पुलिस व्यवस्था में कोई सामंजस्य नही है. कानून व्यवस्था को सुधारे बिना विकास सम्भव नही है.

वर्तमान व्यवस्था क्या है ?

वर्तमान व्यवस्था में यह प्रावधान है कि यदि किसी महिला के खिलाफ कोई अपराध होता है, तो वो जीरो एफआईआर के रूप में किसी भी थाने में दर्ज करवाई जा सकती है. बाद में संबंधित थाने में उसे हस्तांतरित कर दिया जाएगा। उल्लेखनीय है कि हर जिले में महिला थाना होता है.

वर्तमान व्यवस्था में यह भी प्रावधान है कि थानाधिकारी एफआईआर दर्ज करने से मना नही कर सकता और यदि करता है, तो उसके खिलाफ कार्रवाई होगी.

संबंधित मामले की शिकायत पुलिस अधीक्षक (एसपी) से लेकर पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) को की जा सकती है. लेकिन इनसे होता क्या है? यह सब प्रावधान तो पहले से मौजूद हैं. इसमें मुख्यमंत्री ने नया क्या दिया ? एक नया सीओ का पद बनाने से क्या बदलाव होगा? जब एसपी का पद ही कुछ नहीं कर पाता है, तो सीओ इससे कैसे अलग होगा?

बलात्कार के अधिकतर मामलों में यह देखने मे आ रहा है कि अपराधी रसूखदार घरों से संबंधित होते हैं. उनकी पहुंच बड़े- बड़े राजनेताओं तक है. जब वर्तमान समय में एसपी के ऊपर इनका दवाब रहता है, तो सीओ इनसे कैसे अलग होगा ? क्या वो राजनीतिक तौर पर स्वतंत्र पद होगा?

सीसीटीवी कैमरे लगा दो या महिला थाना और फास्टट्रैक कोर्ट बनवा दो या तय सीमा में सुनवाई शुरू कर दो, अब एक नया प्रावधान सीओ का पद. ये सारे प्रावधान ठीक वैसे ही हैं, जैसे बीमारी सिर में है और दवाई पैर की खिला रहे हैं. इसमें ईलाज तो चलेगा, लेकिन उसका कोई समाधान नहीं होगा.

क्या होना चाहिए?

2014 में प्रधानमंत्री मोदी ने स्मार्ट (SMART) पुलिस का सपना देखा था. SMART यानी ऐसी पुलिस व्यवस्था जो कड़क लेकिन संवेदनशील (Sensitive), आधुनिक (Modern),सतर्क और जिम्मेदार (Alert and Accountable) विश्वसनीय (Reliable), तकनीकी क्षमता युक्त एवं प्रशिक्षित (Techno-savy and Trained) हो।

पुलिस को केवल तकनीकों से लैस करके संवेदनशील और जनता का मित्र नहीं बनाया जा सकता। अभी तक पुलिस में ‘चलता है’ का रुख अपनाकर ही इस तंत्र को इतना गिरा दिया है।

उपाय ऐसे होने चाहिए जो अपराध को रोकने के साथ- साथ कानून के शासन की स्थापना भी सुनिश्चित करने वाले हों. जो न केवल अपराधी के मन मे अपराध का भय पैदा करें , बल्कि लोगों का प्रशासन और पुलिस में विश्वास जाग्रत करें। यदि सरकार महिलाओं के खिलाफ अपराधों को लेकर संवेदनशील है, तो उसका रास्ता पुलिस सुधार से ही होकर गुजरता है।

प्रकाश सिंह कमेटी के पुलिस सुधार से संबंधित सुझावों को लागू क्यों नही किया जाता? इस कमेटी में सात सुझावों में से छह सुझाव राज्यों के लिए हैं और एक सुझाव केंद्र सरकार के लिए है. उच्चतम न्यायालय ने भी इन सात सुझावों को लागू करने का आदेश दिया है. लेकिन व्यवहार में सब शून्य है.

जब तक पुलिस के कार्यों में राजनीतिक दखलंदाजी बन्द नही होगी, पुलिस की राजनीतिक दलों की बजाय लोगों और कानून के प्रति जवाबदेही नही होगी, तब तक इन उपायों से कुछ हासिल नही होगा.

आखिर पुलिस मुखिया का पद राजनीतिक लोगों से स्वतंत्र क्यों नहीं करते? डीजीपी का चयन एक कमेटी के जरिए निश्चित समय काल के लिए होना चाहिए, ताकि वो कानून के शासन के अनुरूप काम करे न कि मंत्रियों और विधायकों के अनुरूप.

पुलिस के अनुसंधान कार्यों और अन्य रूटीन कार्यों का बंटवारा होना चाहिए ताकि किसी भी मामले की जांच विशेषज्ञता के साथ पेशेवर तरीके से हो पाये. यदि किसी मामले में एफआईआर दर्ज नहीं होती है, तो संबंधित जिले के एसपी पर कार्यवाही होनी चाहिए.

जिले में पुलिस अधीक्षक के कार्यों का सामाजिक अंकेक्षण होना चाहिए और उसी आधार पर उसका स्थानांतरण और प्रोन्नति हो ताकि लोगों का प्रशासन पर विश्वास कायम हो सके। हमें यह समझना होगा कि पुलिस सुधार का अर्थ पुलिस की शोभा बढ़ाना नही है बल्कि कानून के शासन को स्थापित करना है.