‘लोक’ से कटा लोकतंत्र
निर्णय प्रक्रिया में ‘लोक’ की भागीदारी सुनिश्चित करने का सवाल अहम
किसी भी तंत्र को तभी उपयुक्त माना जा सकता है जब वह अपने उस उद्देश्य, जिसके लिये वह बना है, के नजदीक पहुंचाता है. लेकिन 70 साल की आयु में आज लोकतंत्र की जो हालत हुई है, उसके आधार पर हम यह कह सकते है कि वर्तमान लोकतंत्र में ‘लोक’ के लिये कोई जगह नही है. वह पूरी तरह धनशक्ति और हिंसाशक्ति पर आधारित तंत्र बन गया है. देश की स्थिति यह बताती है कि जिस उद्देश्य के लिये लोकतंत्र की स्थापना हुई, उसकी प्राप्ति इस लोकतंत्र में संभव नही हुई है. सच तो यह है कि ऐसे तंत्र को लोकतंत्र भी नही कहा जा सकता जिसमें पांच साल में एक बार वोट देकर प्रतिनिधि चुनने के अधिकार के अलावा निर्णय प्रक्रिया में ‘लोक’ की किसी प्रकार की कोई भागीदारी न हो.
निसंदेह राजतंत्र से लोकतंत्र बेहतर है. इसमें जनता को अपना राजा चुनने का अधिकार है. अगर राजा ठीक से काम न कर रहा हो, तो जनता उसे बदल सकती है. लेकिन जनता के वोटों से राजा या प्रधानमंत्री चुनने के बाद यह लोकतंत्र भी प्रधानमंत्री के मर्जी से ही चलता है. नीति निर्धारण में लोगों की कोई भूमिका नही होती. वंशवाद से प्राप्त एक राजा की जगह लोगों के द्वारा चुना गया प्रधानमंत्री देने के अलावा राजतंत्र से लोकतंत्र तक का हमारा सफर अधिक कुछ नही दे पाया है. जैसा प्रधानमंत्री होता है, वैसा ही जनता को भुगतना पड़ता है.
राजतंत्र में अल्पमत बहुमत पर शासन करता था. लोकतंत्र में यह माना गया है कि लोकतंत्र बहुमत के आधार पर चलता है. इसलिए अल्पमत पर बहुमत शासन करेगा. बहुमत के सिद्धांत के अनुसार, 5 प्रतिशत बच्चों द्वारा सही लिखे गये जवाब के लिए गलत जवाब देनेवाले 95 प्रतिशत बच्चे कह सकते है कि गलत जवाब देनेवाले बच्चों की संख्या ज्यादा है इसलिए 5 प्रतिशत बच्चों का जवाब सही नही हो सकता. इतनी बड़ी संख्या में बच्चे गलत नही हो सकते. यो तो जीवन की किसी भी परीक्षा में सही या गलत का निर्णय बहुमत के आधार पर नही किया जा सकता, लेकिन लोकतंत्र में बहुमत के आधार पर बच्चों की बात ही सही मानी जाती है. चाहे वह लोक - प्रतिनिधि का चुनाव हो या फिर किसी कानून के लिए बिल पारित करना हो, बहुमत के आधार पर ही निर्णय किया जाता है. आजके लोकतंत्र में सत्य इसलिए सत्य नही होता कि वह सत्य है, बल्कि वह इस आधार पर तय होता है कि ज्यादा संख्या में लोग क्या कहते है. लेकिन यह समझना होगा कि सत्य अल्पमत या बहुमत के आधार पर तय होनेवाली चीज नहीं है.
भले ही लोकतंत्र बहुमत के आधारपर चलने का दावा करता है, लेकिन सच्चाई तो यही है कि प्रत्यक्ष में लोकतंत्र में भी बहुमत के नाम पर अल्पमत का या तानाशाह का ही राज चलता है. बहुमत के सिद्धांत के अनुसार, जिस पार्टी को कुल मतदाताओं में से 51 प्रतिशत वोट मिलेगे उसे सत्ता प्राप्त होनी चाहिए. लेकिन चुनाव में कुल मतदाताओं में से 20 से 25 प्रतिशत मत प्राप्त करने वालों को भी सत्ता प्राप्त होती है. जब प्रधानमंत्री या छोटा समूह अपने मनमर्जी से निर्णय करके या पार्टियां व्हिप जारी करके लोक - प्रतिनिधियों का स्वयं निर्णय का अधिकार भी छीन लेती है, तब अल्पमत की जगह तानाशाही ले लेती है और लोकतंत्र तानाशाह का राज बन जाता है.
2019 के संसदीय चुनाव के उदाहरण से यह आसानी से स्पष्ट किया जा सकता है. भारत में कुल 90 करोड मतदाताओं में से 67 प्रतिशत लोगों ने अर्थात 60.36 करोड मतदाताओं ने मतदान किया और मतदान करनेवालो में से जिस पार्टी को 37.4 प्रतिशत वोट यानि 22.6 करोड मतदाताओं के वोट मिले, उसे सत्ता मिली. इसका अर्थ यह है कि कुल 90 करोड मतदाताओं मे से केवल 25 प्रतिशत मतदाताओं के वोट प्राप्त करनेवाली पार्टी सत्ता में पहुंची है. अर्थात सत्ता का फैसला बहुमत के आधार पर नही अल्पमत के आधार पर ही हुआ है. इसे 121 करोड जनता का आशीर्वाद नही माना जा सकता.
वैसे भी, किसी भी व्यक्ति का मत अलग - अलग विषयों पर अलग अलग होता है. उसे एक बटन दबाकर मशीन में कैद नही किया जा सकता और ना ही एक बार प्रतिनिधि चुनने के बाद पांच साल के लिए उसका मत निर्वाचित प्रतिनिधि के पास गिरवी रखा जा सकता है. चुनाव में मतदाताओं के द्वारा दिया गया मत लोक सेवकों को मनमाने तरीके से काम करने की अनुमति नही है, बल्कि लोकमत का आदर करके जनसहमति से राजकाज चलाने के लिये दी गई अनुमति है.
चुनाव में पांच साल में एकबार मिलने वाले अवसर पर मतदाताओं को सत्य असत्य के आधार पर विवेक का उपयोग करके मत देना अपेक्षित है. लेकिन लोग अपना मत मीडिया के आधार पर ही बनाते हैं. जब आप किसी व्यक्ति से प्रश्न पूछते है, तो वह वही तर्क पेश करता है जो मीडिया द्वारा उसके दिमाग में डाला गया है. कारपोरेट घरानों द्वारा नियंत्रित प्रचार माध्यम उस पर इस तरह से विचार थोपते है कि मतदाताओं को अपने जीवन से जुड़े वास्तविक मुद्दों पर विवेक का उपयोग कर मत देने का अवसर ही नही देते. इसलिए मतदाता का वोट भी उसका खुद का मत नही होता, बल्कि वह कारपोरेट मीडिया द्वारा योजनापूर्वक बनाया गया मत होता है.
लोकतंत्र में प्रधानमंत्री की जबाबदेही जनता के प्रति होनी चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं. क्योंकि चुनाव में पार्टियों की भागीदारी के कारण प्रधानमंत्री कौन होगा यह पार्टियां तय करती है. जिसके कारण प्रधानमंत्री की जबाबदेही जनता के प्रति न रहकर वह पार्टियों के प्रति हो जाती है. और पार्टियां जानती है कि चुनाव धनशक्ति और हिंसाशक्ति के आधार पर जीते जाते हैं. चुनाव जीतने के लिए पार्टियों को जनता के साथ की नही, बल्कि कारपोरेट घरानों के धन की आवश्यकता होती है. वे जानते है कि कारपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाकर, उनके द्वारा संचालित मीडिया के माध्यम से जनमत को आसानी से पार्टी के पक्ष में बनाया जा सकता है. इसलिए पार्टियों की जबाबदेही धन देने वाले धनपतियों के प्रति होती है.
आज की चुनाव व्यवस्था में अपने मूल्यों के साथ समझौता न करने के कारण समाज के विचारवान और श्रेष्ठ पुरुषार्थी व्यक्तियों के लिये चुनाव जीतने की संभावना बहुत कम है. क्योंकि एक तो वह आत्मस्तुति, परनिंदा और मिथ्या भाषण नही कर सकते और दूसरा, वह चुनावी खर्च के लिए पूंजीपतियों के साथ समझौता नही कर सकते. झूठ और बुराई से समझौता न करने के कारण चुनाव में अपने समय के श्रेष्ठ और पुरुषार्थी लोग चुनाव नही जीत सकते और इसी कारण आज की व्यवस्था में भ्रष्ट, अपराधी और पाखंडी लोग ही लोक - प्रतिनिधि बनकर नेता बन बैठे है.
देश की आधी से ज्यादा गरीब आबादी चुनाव लड़ने से इसलिये वंचित रह जाती है क्योंकि वह चुनाव में खर्च करने की क्षमता नही रखती. आज की चुनावी व्यवस्था में आर्थिक दृष्टी से कमजोर नागरिकों से चुनाव लड़ने का उनका अधिकार योजनापूर्वक छीना गया है. यह भारतीय संविधान के विरुद्ध है. 17 वी लोकसभा में चुने गये 43 प्रतिशत सांसद यानि लगभग आधे सांसदों पर गंभीर अपराधिक मामले दर्ज है और 88 प्रतिशत प्रतिनिधि करोड़पति हैं.
चुनाव आयोग द्वारा भले ही लोकसभा चुनाव में खर्च के लिए 70 लाख रुपये की सीमा रखी गई हो, लेकिन प्रमुख पार्टियों के प्रत्याशी कम से कम 20-25 करोड रुपये खर्च करते हैं. इसके अलावा पार्टियां भी बड़ी राशि खर्च करती है. एक अध्ययन के अनुसार, इस चुनाव में लगभग 50 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए हैं. इतनी बडी रकम प्रत्याशी या पार्टी अपनी तरफ से खर्च नही कर सकती. यह राशि भ्रष्टाचार से अर्जित होती है या फिर पूंजीपतियों से इस शर्त पर ली जाती है कि चुनाव के बाद वह उनको लाभ पहुंचानेवाली नीतियां बनाकर कई गुना अधिक वापस लौटायेंगे. यह राशि देश और समाज के हितों को कारपोरेट घरानों के पास गिरवी रखकर ही प्राप्त की जा सकती है. सरकार द्वारा कारपोरेट्स को लाभ पहुंचाने के लिये बनी जनविरोधी नीतियों से इस बात को आसानी से समझा जा सकता है.
जनता के लिये जबाबदेही का नाटक करके पहले ही पार्टियां कारपोरेट घरानों के साथ समझौता करके अपने - आपको कारपोरेट घरानों के हाथों बेच देती है. उसी के आधार पर कौन सत्ता में आयेगा और कौन प्रधानमंत्री बनेगा, यह कारपोरेट घराने तय करते हैं. और उसी पार्टी को ज्यादा चंदा दिया जाता है. इसलिए प्रधानमंत्री को जनता का डर नहीं लगता कि अगर वह जनता के खिलाफ निर्णय लेता है, तो उसे हटा दिया जायेगा. कारपोरेट घराने अपने लिए नीतियां बनाती है और सरकार द्वारा उसे लागू करवाके चुनाव में दी गई मदद से कई गुना अधिक कीमत वसूलते हैं. सच तो यही है कि देश में आज लोकतंत्र कारपोरेट तंत्र बन चुका है. कारपोरेट तंत्र अर्थात कारपोरेट्स के द्वारा, कारपोरेट्स के लिये, कारपोरेट्स को लाभ पहुंचानेवालों लोगों के द्वारा चलाया गया तंत्र.
कारपोरेट और जनता के हित एक दूसरे के विरुद्ध होने के कारण आज देश में हर जगह कारपोरेट और जनता के बीच संघर्ष है. ऐसी स्थिति में, सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह खुद समस्याओं को समझे और जनता पर किसी प्रकार का अन्याय ना हो, ऐसी व्यवस्था प्रदान करे. लेकिन दुर्भाग्य से सरकारें लोगों की बात सुनती ही नही है. जब लोग आंदोलन के लिये मजबूर हो जाते है, तब वह कारपोरेट्स के पक्ष में खडी होकर पुलिस और सैनिकों द्वारा माई - बाप जनता पर लाठियां और बंदूक की गोलियां चलाकर खून बहाने में थोड़ा भी संकोच नही करती. तब सत्तापक्ष चुनाव जीतने के लिये प्राप्त धन के लिये कारपोरेट का नमक खाने की कीमत अदा कर रहा होता है.
इस कारपोरेट तंत्र के लिए लोकतंत्र का नाटक रचा जा चुका है. दिखावा किया जाता है कि लोग राजा चुनते है, लेकिन चुनाव के नाम पर समाज, गांव और देश को जाति, संप्रदाय, धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर बांटने का काम किया जाता है. चुनाव में पहले जाति, संप्रदाय, धर्म, भाषा और क्षेत्रीयता के आधार पर चुने जाने की संभावनाओं को तलाशकर प्रत्याशी तय किया जाता है. फिर चुनाव जीतने के लिये विद्वेश और घृणा फैलाकर समाज को आपस में बांटने का काम किया जाता है. साथ ही, संकुचित राष्ट्रवाद के नामपर देश की जनता के मन में पडोसी देशों के बारें में शत्रृत्व भाव पैदा किया जाता है. लोगों को आपस में लड़ाकर कारपोरेट देश को आराम से लूटते रहते है.
भारत जैसे महान देश को इस कारपोरेट तंत्र से मुक्ति के लिए, समाज का बंटवारा रोकने के लिए, मानवतावादी मूल्यों की रक्षा के लिए, संविधान के उद्देशिका न्याय, स्वातंत्र्य, समता और बंधुता को प्राप्त करने के लिए, दुनिया को जोडने के महान उद्देश्य के लिए आज एक ऐसे तंत्र के बारे में सोचने की आवश्यकता है जिसमें लोक सर्वोपरि हो और भारत की आत्मा की आवाज जिंदा रह सके.