नागालैंड की राजनीति में महिलाओं की भूमिका या उनकी अनुपस्थिति के बारे में जब भी चर्चा होती है, तो ‘मानसिकता’, ‘बदलाव’, ‘समाज’ और ‘उम्मीद’ आदि जैसे या इनसे मिलते – जुलते शब्द दोहरा दिये जाते हैं. अब जबकि आगामी 27 फरवरी को निर्धारित राज्य विधानसभा के लिए तैयारियां जोरों पर है, यही सारे शब्द एक बार फिर से सामने हैं.

कुल 195 उम्मीदवार 60- सदस्यीय विधानसभा में अपनी जगह बनाने के लिए 27 फरवरी को जोर – आजमाइश करेंगे. इन 195 उम्मीदवारों में सिर्फ पांच महिलाएं हैं. इन महिलाओं को यह उम्मीद है कि इस बार राज्य की जनता किसी एक महिला को चुनकर विधानसभा में जरुर भेजेगी.

मान्यता प्राप्त 16 जनजातियों का निवास - स्थान माने जाने वाले नागालैंड के राजनैतिक इतिहास में महिलाओं की भूमिका को एक बाहरी व्यक्ति के नजरिए समझना मुश्किल है. उत्तर – पूर्व के विभिन्न जनजातीय और देशी समुदायों की भांति नगा समाज में भी महिलाओं को व्यापक स्वतंत्रता हासिल है और उन्हें पुरुषों द्वारा व्यवस्थित रूप से दबाया नहीं जाता ( या कम से कम ऊपरी तौर पर यह नजर नहीं आता). हालांकि, यह स्वतंत्रता आवश्यक रूप से अधिकार में रूपांतरित नहीं होती. खासकर संपत्ति पर अधिकार के मामले में, एक पिता अपनी बेटी को पैतृक भूमि हस्तांतरित नहीं कर सकता. और ऐसा युगों से चला आ रहा है.

नागालैंड के जनजीवन का एक अन्य पहलू यह है कि यहां की राजनीति में महिलाओं की भूमिका गौण है.

फरवरी 1964 में गठन के बाद से अबतक राज्य विधानसभा में कोई भी महिला चुनकर नहीं जा सकी है. एकमात्र मौका 1977 में आया जब रानो एम शैज़ा लोकसभा की सदस्य चुनी गयी थीं. 1963 में राज्य के गठन के बाद से अबतक सिर्फ 30 महिलाओं ने विधानसभा का चुनाव लड़ा है और उनमें से किसी को जीत नहीं हासिल हो सकी.

हालांकि, इस बार कुछ के चुने जाने की ‘उम्मीद’ है.

चुनाव में जोर आजमा रहे कुल 195 उम्मीदवारों में सिर्फ पांच महिलाओं की मौजूदगी बहुत ज्यादा उत्साहित नहीं करती. यह आंकड़ा उम्मीदवारों की कुल संख्या के दो प्रतिशत से थोड़ा अधिक है. फिर भी, इस बार लोगों, खासकर महिलाओं, में उत्साह का माहौल है. उन्हें उम्मीद है कि इस बार नजारा पहले से अलग होगा.

नगा मदर्स एसोसिएशन की सलाहकार, रोजमेरी द्ज़िवुचु ने कहा, “हम गहरी रूचि लेकर इन पांच महिला उम्मीदवारों को देख रहे हैं. उम्मीद है कि इस बार विधान सभा में हमें महिला विधायक दिखाई देंगी.”

एक महिला अधिकार कार्यकर्ता के रूप में मशहूर द्ज़िवुचु ने कहा कि इन महिलाओं के चुनाव लड़ने से स्थिति में अंतर आयेगा क्योंकि वे पढ़ी – लिखी होने के साथ-साथ मुद्दों के प्रति सजग भी हैं.

दीमापुर स्थित अंग्रेजी दैनिक नागालैंड पेज में असिस्टेंट मैनेजर के पद पर कार्यरत अतेत लोंगकुमेर भी आशान्वित हैं. कोहिमा के विधानसभा भवन में महिला विधायक के देखे जाने की संभावना के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा, “क्या नागालैंड में कभी महिला विधायक होगी? उम्मीद है कि इस बार के चुनाव में निश्चित रूप से ऐसा होकर रहेगा.”

आशा और विश्वास से परे, आख़िरकार नागालैंड की चुनावी राजनीति महिलाओं के प्रति इस कदर बेगानी क्यों बनी रही?

दीमापुर के तेट्सो कालेज की वाईस प्रिंसिपल डॉ हेवासा लोरिन का कहना है कि यहां के लोगों की सोच और मानसिकता को बदलने की जरुरत है तभी महिलाओं का चुनावों में जीतना संभव हो पायेगा. उन्होंने कहा, “ हम एक ऐसे समाज से आते हैं जहां बुजुर्गों का हमेशा आदर किया जाता है. इसलिए ग्राम परिषद् की बैठकों में बुजुर्गों की आवाज़ के आगे नौजवानों की बात दबा दी जाती है.” उन्होंने आगे जोड़ा कि परिपाटी ही कुछ ऐसी है कि पुरुषों के आगे महिलाओं की आवाज़ दबा दी जाती है. हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि जमाना बदल रहा है और एक अच्छे भविष्य की उम्मीद है.

द्ज़िवुचु ने बताया कि नागालैंड में पुरुषों के मुक़ाबले महिलाओं से “बराबरी का व्यवहार” नहीं किया जाता. यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि “फैसले लेने वाली निकायों या जनजातीय परिषदों या ग्राम परिषदों में महिलाओं की उपस्थिति दिखाई नहीं देती”.

उनके मुताबिक यह भी एक वजह है कि कोई भी महिला अभी तक विधानसभा का चुनाव नहीं जीत सकी है. महिलाओं को “या तो राजनीतिक दलों द्वारा टिकट नहीं दिया जाता या फिर चुनाव लड़ने से हतोत्साहित किया जाता है”.

पिछली बार मात्र दो महिलाओं ने विधानसभा चुनाव लड़ा था. इस बार स्थिति थोड़ी बेहतर है और पांच महिलाएं मैदान में हैं. इनमें भाजपा की राखिला, निर्दलीय उम्मीदवार रेखा रोज दुकरू, नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक पीपुल्स पार्टी की अवान कोनयाक, और नेशनलिस्ट पीपुल्स पार्टी की वेडी – यू क्रोनू एवं डॉ के मंग्यांग्पुला चांग शामिल हैं.

पर्चा दाखिल करने के बाद से राज्य की मीडिया द्वारा इन महिलाओं के बारे में खूब लिखा जा रहा है. इसके बावजूद यह सवाल अभी भी अनसुलझा है कि राज्य विधानसभा में कोई महिला क्यों नहीं जा पायी है.

कोहिमा की लेखिका रीटा क्रोचा ने हाल में लिखा कि नागालैंड की महिलाएं “ शिक्षा हासिल कर सकती हैं, अपने सपनों को पूरा कर सकती हैं, यहांतक कि अपनी पसंद के युवक से शादी कर सकती हैं, लेकिन बात जब राजनीति ( या शीर्ष जनजातीय संगठनों) में प्रतिनिधित्व की आती है तो हम निश्चित रूप से जानते हैं कि महिलाओं को उनका हक़ कभी नहीं दिया जाता या फिर इस बारे में गंभीरता कभी नहीं सोचा जाता.

उन्होंने आगे कहा कि नगा समाज में “पितृसत्ता की जड़ें गहरी” है और राजनीति में महिलाओं की कम भागीदारी इस “दुखद सच” को प्रतिबिंबित करती है.

नगा समाज में में पितृसत्ता की जड़ें गहरी होने के बारे क्रोचा की सोच से यहां के अधिकांश पुरुष सहमति नहीं रखते. यहां आम चर्चा यही रहती है कि भारत के अन्य क्षेत्रों के मुकाबले नागालैंड की महिलाएं कहीं अधिक “स्वतंत्र” हैं.

इस संदर्भ में, एक पत्रकार ने कथित रूप से पिछले साल सरकार द्वारा शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीट आरक्षित किये जाने की घोषणा पर फूटी हिंसा को “पितृसत्तात्मक मानसिकता” के सबूत के तौर पर रेखांकित किया.