बलात्कार, परिवार के भीतर महिलाओं पर अत्याचार, कार्य – स्थल पर यौन शोषण, महिलाओं के साथ सड़कों पर होने वाले अपराध आदि व्यापक रूप से फैले हुए हैं. और मेरी राय में, यह आवश्यक रूप से एक सांस्कृतिक मुद्दा है. ऐसे अपराध स्वयं समाज के लिए बेहद अपमानजनक हैं और इन्हें महिलाओं के मुद्दे के बजाय सामाजिक मुद्दों के तौर देखा जाना चाहिए. मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि निश्चित रूप से बलात्कार एक बहुत ही कठिन और तत्काल तवज्जो देने लायक घटना है, लेकिन रोजमर्रा के स्तर पर होने वाले पेशेवर और भावनात्मक शोषण की घटनाएं महिलाओं को कहीं ज्यादा गहरे से तोड़ती हैं. (कृपया यह समझिए कि इसका मतलब बलात्कार के प्रभाव को कम करके आंकना नहीं है.)

यौन अपराध खौफ़नाक और जघन्य होते हैं और आम तौर पर समाज के कमजोर के तबकों – महिलाओं, बच्चे – बच्चियों, समलैंगिकों, अश्वेतों और दलितों आदि – को इसका शिकार बनाया जाता है.

हालांकि, इसमें संस्कृति का मसला है और इसके उदहारण हैं.

संस्कृति को बेहद सावधानी से और दिल से विकसित किया जाना चाहिए और घटित घटनाओं को बेहद जिम्मेदारीपूर्वक और संवेदनशीलता से लेना चाहिए. राजनीतिक कलाबाजियां बेहद अपरिपक्व होती हैं और एक प्रतिक्रिया के तौर पर हड़बड़ाहट भरे निर्णय को प्रेरित करती हैं.

इसलिए, यौनिकता के प्रति जागरूकता और सेक्स को बारे में स्वस्थ दृष्टिकोण विकसित करने के लिए लेखन और विचार – विमर्श का इस्तेमाल सावधानीपूर्वक एक बेहतर संस्कृति के निर्माण के कदम के तौर पर किया जाना चाहिए. यहां हमें यह याद रखना चाहिए कि परिस्थितियां हैरतअंगेज तरीके और तेज गति से वापस भी मुड़ सकती हैं. यह जद्दोजहद हमारी कल्पना से कहीं ज्यादा लंबी है.

इसलिए, मैं एक बार फिर इस बात को दोहराती हूं कि बलात्कार की घटनाओं की रोकने के लिए हमें अपनी संस्कृति को विकसित करने की जरुरत है.

अगर ऐसी घटनायें सामने आती भी है, तो सांस्कृतिक विकास के बाद उनकी संख्या में व्यापक रूप से गिरावट आने के आसार हैं. इस किस्म की घटनाओं से निपटने के लिए हमें पुलिस, न्यायपालिका, मीडिया के बारे में जानकारी से लैस होना पड़ेगा और परिवारों को यौन अपराधों के प्रति उपयुक्त रवैया अख्तियार करना होगा. हमें त्वरित न्याय और पीड़ितों के पुनर्वास के लिए उपयुक्त व्यवस्था विकसित करनी होगी.

निश्चित रूप से यह कड़ी मेहनत वाली प्रक्रिया है और इसमें पूरी प्रतिबद्धता की जरुरत है, लेकिन यह कतई असंभव नहीं है. दुनिया के कई समाज इस मामले में काफी तेज गति से आगे बढ़े हैं.

कठुआ मामले में, अभी मेरी राय निम्नलिखित है; आगे और नये तथ्यों के सामने आने के बाद इसके स्वरुप में भले बदलाव आ सकता है लेकिन इसके पीछे की सोच और तर्क पद्धति का औचित्य बना रहना चाहिए.

इस मामले के आरोपी निश्चित रूप से बच्चों के प्रति यौन आकर्षण रखने वाले लोग हैं. उन्होंने एक गुप्त समूह बना रखा था और अपनी वासना की पूर्ति इस समूह के सहयोग से करते थे.

वे इस किस्म के अपराध को अंजाम देने के आदी थे. वे किसी बच्ची (यहां तक कि किसी बच्चे) को अपना शिकार बनाने की ताक में रहते थे. वे उपेक्षित समुदाय और दूर- दराज इलाके से आने वाले किसी शिकार की तलाश में रहते थे. उस समूह के हर सदस्य की एक भूमिका तय थी और एक – दूसरे सहयोग से वे उस भूमिका को बेहिचक पूरी निर्ममता से अंजाम देते थे. अपराध करके अबतक बचकर निकलते रहने से उनका दुस्साहस बढ़ता चला गया था.

इस किस्म के अपराधों के लिए, रसूख वाले संस्थानों - मसलन मंदिर (जैसाकि इस मामले में शायद था), पुलिस, राजनीतिक दलों आदि के सदस्य एक – दूसरे के सुविधाजनक सहयोगी बनते हैं; बिना पकड़े गये और समाज में अपनी छवि का नुकसान सहे बगैर वे मिलकर अपनी वासना की पूर्ति कर सकते हैं और अपनी सामान्य जिंदगी गुजारते रह सकते हैं. कुल मिलाकर, उनके लिए अपराध आसानी से संभव है.

इनमें से कईयों का संबंध भाजपा से है. आज भाजपा के सत्ता में होने की वजह से आपराधिक व्यवहार के मामले में वे बेपरवाह हो गए और उनकी सोच थी कि उन्हें राजनीतिक संरक्षण मिल जायेगा और कोई उन्हें छू नहीं सकेगा.

इस मामले में, घटना की जानकारी होने के बावजूद कार्रवाई न करने वाले लोगों समेत हर आरोपी की सावधानीपूर्वक पहचान करनी होगी और उन्हें सजा दिलानी होगी. इस मामले में हमारी कार्रवाई को आगे बढ़ाने की कुंजी एक गंभीर एवं निष्पक्ष जांच में निहित होगी. इस मामले में की गई कार्रवाई के बारे में पूरी पारदर्शिता बरतनी होगी. फौरी न्याय की मांग से बचना होगा.

एक सत्तारूढ़ दल के तौर पर भाजपा द्वारा इस किस्म के अपराधियों को संरक्षण देने की हर कवायद का पर्दाफाश करना होगा. यहां यह ध्यान रखना होगा कि सत्ता में आने के बाद कोई भी पार्टी का ऐसा उन्मत व्यवहार कर सकती है.