अपने देश में महिलाओं की ‘हैशटैग मी-टू’ मुहिम आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, अब रंग ला रही है. केन्द्र सरकार में विदेश राज्यमंत्री जैसे अहम ओहदे पर काबिज वरिष्ठ पत्रकार एम. जे. अकबर, जो कल तक अपने ऊपर लगे हर इल्जाम को हवा में उड़ा रहे थे, उन्हें आखिरकार अपने ओहदे से इस्तीफा देना पड़ा है. उनका इस्तीफा उस मोदी सरकार में हुआ, जिसमें ये दावा किया गया जाता था कि ’‘इस सरकार में इस्तीफ़ों की परंपरा नहीं है’’. जाहिर है, यह महिलाओं की एक अहम जीत है. इस जीत से उन्हें भविष्य के लिए एक हौसला मिला है कि यदि वे संगठित हो अपनी आवाज उठाएं, तो काम करने की जगह पर कोई मर्द उनके साथ यौन दुव्र्यवहार करने की हिम्मत नहीं करेगा. अपनी इस आक्रामक मुहिम से उन्होंने पुरुषों को जतला दिया है कि कार्यस्थल पर अब वे अनुचित व्यवहार या यौन दुव्र्यवहार को बर्दाश्त नहीं करेंगी.

हालांकि, महिलाओं की यह लड़ाई अभी बेहद लंबी है. फिर भी एक शुरुआत हुई है. मंत्री पद से इस्तीफा देने से पहले एम. जे. अकबर, पत्रकार प्रिया रमानी के खि़लाफ दिल्ली के पटियाला हाउस अदालत में निजी आपराधिक मानहानि का मुक़दमा दायर कर चुके थे. अपनी इस याचिका में अकबर ने रमानी पर जान-बूझकर और दुर्भावनापूर्ण तरीके से उन्हें बदनाम करने का इल्जाम लगाया है और इसके लिए उन्होंने अदालत से उनके खि़लाफ़ मानहानि से जुड़े दंडात्मक प्रावधान के तहत मुक़दमा चलाने का अनुरोध किया है. दूसरी तरफ, पत्रकार प्रिया रमानी के समर्थन में संपादकों की सर्वोच्च संस्था ‘एडीटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया’ और ‘द एशियन एज’ अखबार में काम कर चुकीं 20 महिला पत्रकार आगे आईं हैं. एडीटर्स गिल्ड ने अकबर के खिलाफ इल्जाम लगाने वाली उन महिला पत्रकारों को कानूनी मदद देने की बात कही है, जिनके मामलों को अगर अकबर वापस नहीं लेते और दीगर महिलाओं के खिलाफ भी मामला दायर करते हैं.

‘द एशियन एज’ से जुड़ी महिला पत्रकारों ने अपनी ओर से न सिर्फ एक संयुक्त बयान जारी कर प्रिया रमानी की हिमायत की है, बल्कि अदालत से गुजारिश की है कि अकबर के खिलाफ मामले में उन्हें सुना जाए. इन महिलाओं ने दावा किया है कि उनमें से कुछ का अकबर ने यौन शोषण किया है और कुछ इसकी गवाह हैं. यानी इस मामले में अभी काफी कुछ बाकी है, जो धीरे-धीरे सामने आएगा.

एम. जे. अकबर से जुड़ा यौन शोषण का मामला आज का नहीं, बल्कि तब का है जब वे कई नामी-गिरामी अखबारों के प्रभावशाली संपादक हुआ करते थे. महिला पत्रकार प्रिया रमानी ने सोशल मीडिया पर यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए अकबर ने उनका यौन शोषण किया. बात यहीं खत्म नहीं हुई. इसके बाद तकरीबन 15 से 16 महिलाओं ने एमजे अकबर के खि़लाफ़ यौन उत्पीड़न का इल्जाम लगाया. इल्जाम इतने संगीन थे कि पत्रकारिता से लेकर सियासी हलके तक भूचाल आ गया.

प्रिया रमानी ने जैसे एक शुरूआत भर की थी, इसके बाद तो ‘मी-टू अभियान’ के तहत सोशल मीडिया पर कई महिला पत्रकारों ने विभिन्न संस्थान में अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के दर्दनाक किस्सों को साझा किया है. एम. जे. अकबर के अलावा हिन्दुस्तान टाइम्स के राजनीतिक संपादक प्रशांत झा, बिजनेस स्टैंर्डड के प्रमुख संवाददाता मयंक जैन, डीएनए के पूर्व संपादक गौतम अधिकारी और टाइम्स ऑफ इंडिया, हैदराबाद के स्थानीय संपादक के. आर. श्रीनिवास सभी को इन इल्जामों की वजह से अपने पद से हटना पड़ा है.

फिल्मी दुनिया में भी ‘मी-टू अभियान’ की वजह से नाना पाटेकर और साजिद खान को ‘हाउसफुल 4’ छोड़नी पड़ी है. निर्माता-निर्देशक विकास बहल, अभिनेता आलोकनाथ, कॉमेडियन उत्सव चक्रवर्ती के अलावा ‘एआईबी’ के सीईओ तन्मय भट्ट और ग्रुप के सह संस्थापक गुरसिमरन खंभा इन सभी को अपनी किये का किसी न किसी तौर पर खामियाजा भुगतना पड़ा है.

हमारे देश में सर्वोच्च न्यायालय ने साल 1997 में राजस्थान के भंवरी देवी मामले में अपने एक ऐतिहासिक फैसले में कार्यस्थल पर महिलाओं को यौन शोषण व उत्पीड़न से बचाने के लिए विशाखा गाइडलाइंस जारी की थी. इसके तहत वर्क प्लेस यानी काम करने की जगह पर यौन उत्पीड़न से महिलाओं की सुरक्षा के लिए कई नियम शामिल थे. साल 2013 में विशाखा गाइडलाइंस की बुनियाद पर ही संसद ने दफ्तरों में महिलाओं के संरक्षण के लिए एक क़ानून ‘यौन प्रताड़ना (रोकथाम, निषेध और सुधार) अधिनियम’ पारित किया. लेकिन इस कानून के बाद भी महिलाओं के खिलाफ यौन उत्पीड़न की घटनाएं रुकीं नहीं. खुद महिला एवं बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने संसद में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा था कि वर्क प्लेस पर यौन उत्पीड़न के हर साल 500 से 600 केस दर्ज किए जाते हैं.

कार्यस्थल पर महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न की घटनाएं क्यों नहीं रुक रहीं हैं? ज्यादातर निजी कंपनियां विशाखा दिशानिर्देश या कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित कानून को लागू ही नहीं करतीं. क़ानून के मुताबिक हर कार्यस्थल, संगठन या सियासी पार्टियों के अंदर महिलाओं के साथ होने वाले यौन दुव्र्यवहारों के लिए एक आंतरिक शिकायत समिति (आईसीसी) होनी चाहिए. अगर नियोक्ता ऐसा नहीं करते, तो कानून के तहत इसे एक गैर-संज्ञेय अपराध माना जाता है. लेकिन मीडिया हाउस और फिल्मी दुनिया की हाल की घटनाएं यह बताती हैं कि ज्यादातर कार्यस्थलों में या तो आईसीसी है ही नहीं या फिर प्रभावी नहीं है. एक अहम बात और, कई मामलों में महिलाएं शिकायत ही दर्ज नहीं करातीं. यदि शिकायतें होती भी हैं, तो उनकी पूरी तरह से जांच नहीं की जाती. महिलाएं भी अपनी बदनामी के डर से मामले को आगे नहीं बढ़ातीं.

‘यौन प्रताड़ना (रोकथाम, निषेध और सुधार) अधिनियम’ के अलावा भारतीय दंड संहिता की ‘धारा 354 (क)’ और ‘धारा 509’ महिलाओं को यौन उत्पीड़न के खिलाफ इंसाफ दिलाने का काम करती हैं. आईपीसी के तहत आने वाली यह धाराएं अपने चरित्र में सर्वव्यापी हैं. ‘अनुच्छेद 509’ का संबंध स्त्री के सम्मान को ठेस पहुंचाने वाले शब्दों, हावभाव या क्रियाकलाप से है, तो ‘धारा 354’ किसी स्त्री की पवित्रता को भंग करने के इरादे से किए गए हमले या आपराधिक बल प्रयोग से जुड़ी हुई हैं. ये प्रावधान शारीरिक हमले से मुख्तलिफ हैं, लेकिन ये सिर्फ स्त्रियों के खिलाफ होने वाले अपराधों से जुड़े हुए हैं, क्योंकि इसमें पवित्रता/इज्जत का एक तत्व जुड़ा हुआ है.

पंजाब की रिटायर्ड आईएएस अधिकारी रूपन देओल बजाज बनाम पुलिस महानिदेशक केपीएस गिल मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 12 अक्टूबर, 1995 को दिए अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में महिलाओं के खिलाफ इस दर्जे के अपराध को न सिर्फ स्वीकार किया था, बल्कि इसे आपराधिक कृत्य भी करार दिया था. शीर्ष अदालत ने इस मामले में उच्च न्यायालय के उस फैसले को खारिज कर दिया था जिसके जरिए आईपीसी की धारा 95 के तहत इस केस को खारिज किया था. उच्च न्यायालय के मुताबिक यह मामला इतना तुच्छ था कि इसे अपराध के दर्जे में रखकर इस पर विचार नहीं किया जा सकता था ! शीर्ष अदालत ने अपने इस फैसले में स्पष्ट तौर पर कहा था कि आईपीसी की धारा 95 का इस्तेमाल स्त्री के शील भंग से संबंधित मामलों में आश्रय के तौर पर नहीं किया जा सकता क्योंकि ये तुच्छ मामले नहीं हैं.

अदालत ने इस मामले में बकायदा पवित्रता/इज्जत को परिभाषित करते हुए कई अहम बातें कहीं थीं. मसलन ऐसे मामलों को साबित करने के लिए एक गवाह भी काफी है, बशर्ते वह सच बोल रहा हो. वैसे हर अपराध में अभियोजन पक्ष को आरोपी के मकसद को साबित करना होता है, लेकिन इस मामले में यह व्यवस्था दी गई कि मकसद को साबित करना जरूरी नहीं है. सिर्फ अभद्र तरीके से व्यवहार करने की जानकारी किसी व्यक्ति पर मुकदमा चलाने के लिए काफी है. यही नहीं, अदालत ने सुनवाई पूरा करने के लिए छह महीने की समय सीमा निर्धारित की ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि पीड़ित को लंबे चलने वाले मुकदमे से पस्त न किया जा सके.

बहरहाल अकबर-प्रिया रमानी मामले में क्या हकीकत और क्या फसाना है, इस बात का फैसला अब अदालत करेगी. लेकिन इस मामले के कई सबक हैं, जिनसे सभी को सीख लेना चाहिए. पहला सबक, विभिन्न क्षेत्रों में जो रसूखदार मर्द, औरतों की मजबूरी का फायदा उठाकर यौन शोषण या उत्पीड़न करते हैं, वे सुधर जाएं. वरना, उन्हें भी औरतों के गुस्से का सामना करना पड़ेगा. रसूख वाले मर्दों को लगता है कि औरत उनका आसान शिकार है और आर्थिक, सामाजिक मजबूरी के चलते वे उनके खिलाफ कभी आवाज नहीं उठाएंगी. उनकी सोच है कि वे उनके साथ जो कुछ भी करें, उन पर कोई आंच नहीं आएगी. लेकिन ‘मी-टू अभियान’ से देश में आहिस्ता-आहिस्ता ही सही फिजा बदल रही है. अब वे महिलाएं भी ब आगे आ रही हैं, जो किसी न किसी डर की वजह से अपने कार्यक्षेत्र में बरसों से यौन उत्पीड़न झेल रहीं थीं.

दूसरा सबक, कार्यस्थल के माहौल में बदलाव लाने का होना चाहिए. स्त्री-पुरुष के बीच हर स्तर पर बराबरी होना चाहिए. जेंडर के आधार पर उनके साथ कोई भेदभाव न हो. तमाम स्तरों पर बराबरी लाए बगैर पुरुषों की सोच में बड़ा बदलाव मुमकिन नहीं.

कार्यस्थलों को महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाकर ही हम आर्थिक तरक्की का रास्ता साफ कर सकते हैं. कार्यस्थल पर महिलाओं की गरिमा सुनिश्चित करने के लिए ‘यौन प्रताड़ना (रोकथाम, निषेध और सुधार) अधिनियम, 2013’ का उचित कार्यान्वयन जरूरी है.’बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ और ‘महिला सशक्तिकरण’ जैसे सरकारी नारों को औचित्य प्रदान करने के लिए भी यह बेहद आवश्यक है.