हर साल 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में लगभग पूरी दुनिया में मनाया जाता है।1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसकी औपचारिक घोषणा की। हालांकि ये उससे पहले से मनाया जाता रहा है। ये दिन सभी नारीवादी समर्थको के लिए उनके संघर्षो और उनके द्वारा दिए गए बलिदान को याद करने का दिन है। साथ ही ये उनको आगे आने वाले चुनौतियों और कठिनाईयों का सामना करने का साहस भी प्रदान करता है। इसके अलावा ये आत्म चिंतन और आत्म मंथन और आत्म विश्लेषण का समय भी है।

क्या महिलाओं के संघर्ष का इतिहास उतना ही पुराना है कि जबसे हमने इसे सेलिब्रेट करना शुरू किया है? नहीं। ऐसा नहीं है। बल्कि ये संघर्ष तो उसी दिन से शुरू हो गया था ,जिस दिन से उनके अधिकारों का हनन शुरू हुआ था। सो नारीवादी आंदोलन का इतिहास उसके उत्पीड़न के इतिहास जितना ही पुराना है।

अगर महिलांए शोषित हैं उनका शोषण हुआ है तो आखिर उनका शोषक कौन है। उनको उनके अधिकारों से वंचित करने वाला कौन है। ज़ाहिर है वो पितृसत्ता है। तो फिर इस पितृसत्ता का पोषक और पालनहार कौन है। निश्चित ही इस पितृसत्ता का पोषक और पालनहार पुरुषों की एक बड़ी जमात तथा कुछ ऐसी महिलाएं जिनको इस पितृसत्ता के समर्थक पुरुष ब्रैनवॉश करके उनका इस्तेमाल पितृसत्ता को बनाये रखने के लिए करते हैं। अब हम सीधे नारीवादी आंदोलन से जुड़े एक सवाल पर आते हैं। अक्सर हमें कुछ नारीवादी लोग ये कहते हुए मिल जायेंगे कि सारे मर्द एक जैसे हैं। क्या वाकई ऐसा है। क्या इस नारीवादी आंदोलन के संघर्ष यात्रा में किसी मर्द का कोई योगदान नहीं है। या फिर ऐसा कहने से क्या इस आंदोलन को लाभ होता है। इसको ऐसे समझते हैं। जिस तरह सारे राजनेता बुरे नहीं हैं ,उनमे अच्छे भी हैं और बुरे भी हैं ,जिस तरह सारे ब्यूरोक्रेट बुरे नहीं हैं ,उनमे अच्छे भी हैं और बुरे भी हैं जिस तरह सारे समाजसेवी बुरे नहीं हैं ,उनमे अच्छे भी हैं और बुरे भी हैं। यही बात नारीवादियों पर भी लागू होता है। बल्कि इसको और विस्तार से ऐसे समझते हैं कि हमारे देश, समाज और राजनीति में विचारों की दो धाराएं हैं। एक इंक्लूसिव है तो दूसरा एक्सक्लूसिव है। एक समायोजन की धरा है तो दूसरी वियोजन की धारा है। एक धारा जिसके समर्थक कबीर, नानक,गाँधी और मौलाना आज़ाद हैं। और एक धारा वो है जिसके समर्थक वे धार्मिक और राजनीतिक संगठन के लोग हैं जो ये समझते हैं वे ही सही हैं और उनकी ही विचारधारा सही है। उनकी विचारधारा से असहमति रखने वालों का इस देश और समाज में रहने का कोई हक़ नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं कि सारे मर्द एक जैसे हैं वो दरअसल जाने अनजाने में इसी एक्सक्लूसिव आईडिया या वियोजन की विचारधारा का समर्थन कर बैठते हैं।

ऐसे ही विचारधारा के लोग हैं जिनका मानना है कि सारे ब्राह्मण दलित विरोधी है या जातिवादी हैं। या फिर ये कहना कि सिर्फ मुसलमान ही आतंकवादी होते हैं। या कहना कि सारे कश्मीरी पकिस्तान समर्थक हैं। ऐसा विचार और ऐसी सोच रखने वाले लोग दरअसल अपनी कमियों,अपनी ख़ामियों,अपनी विसंगतियों और अपनी विफलताओं को ऐसा कह कह कर छुपाने की कोशिश करते है। साथ ही ये नारीवादी आंदोलन के डाइवर्सिटी को ख़त्म करने की एक कुटिल चाल है.नारीवादी आंदोलन के लोकतांत्रिकरण को रोकने की कोशिश है।

वे दरअसल ऐसा कह के नारीवादी आंदोलन को मज़बूत करने के बजाये कमज़ोर ही करते हैं। उनके ऐसा कहने से ऐसे मर्द जो वाक़ई में नारीवादी आंदोलन के समर्थक हैं उनके ऊपर पितृसत्ता के समर्थकों को हमला करने का मौक़ा दे देते हैं.क्योंकि हमें पता होना चाहिए कि पितृसत्ता जितना महिला विरोधी है उतना ही वो ऐसे पुरुषों का भी विरोधी है जो नारीवादी हैं।

साथ ही मर्दों को भी अगर कोई ये कहे की सारे मर्द एक जैसे हैं तो उनको भी इस तरह की बातों से विचलित नहीं होना चाहिए।इसलिए कि उनकी प्रतिबद्धता नारीवाद से होनी चाहिए, न कि किसी नारीवादी से। मर्दों को उनके नारीवादी होने का सर्टिफिकेट किसी से लेने की ज़रुरत नहीं है। अगर ये कहा जाए कि किसी मर्द को कोई ये कहता है कि सारे मर्द एक जैसे होते हैं और उनको बुरा लगता है तो उनको ये समझ लेना चाहिए कि उनकी नारीवादी विचारधारा के प्रति जो प्रतिबद्धता है उसमें कुछ कमी है।