वैज्ञानिकों की मानें तो हम सभी आलोक (लड़का) और अलका (लडकी) के एक समान शारीरिक दर्द को अलग-अलग नजर से देखते है. वैसे तो यह अध्ययन अमेरिका में किया गया है, पर पूरी दुनिया में लोगों की मानसिकता इस मसले पर लगभग एक जैसी है. अमेरिका के येल यूनिवर्सिटी और जॉर्जिया यूनिवर्सिटी के एक संयुक्त दल ने दर्द से कराहते एक पांच वर्षीय बच्चे की डॉक्टर के पास बैठे हुए विडियो तैयार किया. पांच वर्षीय बच्चे के कपडे और चेहरा ऐसा था जिससे यह समझाना कठिन था कि वह लडकी है या लड़का.

इस दल ने 18 से 75 वर्ष तक की उम्र के 264 लोगों को एकत्रित किया और इन्हें दो दलों में बाँट दिया. हरेक दल में हरेक आयु वर्ग की महिलायें और पुरुष थे. दोनों दलों को अलग-अलग हॉल मैं बैठाकर यह विडियो क्लिप दिखाई गयी और फिर लोगों से बच्चे के दर्द की अनुभूति को 0 (कोई दर्द नहीं) से 100 (अत्यधिक दर्द) के बीच अपनी समझ से अंक देने को कहा गया. दोनों हाल में बस अंतर यह था कि एक में बच्चे का नाम सैमुएल (लड़का) बताया गया था जबकि दूसरे हाल में उसका नाम सामंथा (लडकी) बताया गया था. यहाँ यह ध्यान रखना आवश्यक है कि दोनों हॉल में एक ही विडियो क्लिप दिखाई गयी थी, इसका मतलब था कि सभी ने बच्चे के दर्द की अनुभूति का एक ही चित्र देखा था.

पर, नतीजे चौकाने वाले थे. सैमुएल के दर्द की अनुभूति को 50.42 अंक मिले थे, जबकि सामंथा को 45.90 अंक. इसका सीधा सा मतलब था कि लोग लडकी के दर्द को कम अंक रहे हैं, जबकि वही चित्र जब लड़के के नाम से चलाया गया तब लोगों को दर्द की अनुभूति अधिक महसूस हो रही थी. अमेरिका में किया गया यह अध्ययन पूरी दुनिया में महिलाओं के प्रति सोच का एक बड़ा उदाहरण है. इस अध्ययन को हाल में ही जर्नल ऑफ़ पीडियाट्रिक साइकोलॉजी में प्रकाशित किया गया है.

इस अध्ययन में सलग्न एक वैज्ञानिक जोशुआ मौरद के अनुसार उन्हें आशा है कि इस अध्ययन के बाद समाज लड़कियों के दर्द को भी उतनी ही गंभीरता से लेगा जितना लड़कों के दर्द को लेता है. शायद भविष्य में चिकित्सक भी लड़कियों के दर्द का उपचार सही तरीके से करेंगे.

इस तरीके का और इस निष्कर्ष वाला यह अकेला अध्ययन नहीं है. इस अध्ययन के दल में शामिल लिंडसे कोहेन ने वर्ष 2014 में इसी प्रकार का अध्ययन किया था. इस अध्ययन के दौरान उन्होंने ऐसी ही एक विडियो बनाकर और नाम बदलकर नर्सिंग कॉलेज के विद्यार्थियों और अध्यापकों से दर्द की अनुभूति के अनुसार अंक देने को कहा था. उस अध्ययन के दौरान भी लडकी को दर्द की अनुभूति को कम आँका गया था.

भले ही यह अध्ययन अमेरिका में किया गया हो, पर अपने देश में तो यह हमेशा से होता आया है. एक ही परिवार में लडके की चोट पर हकीन, वैद्य और चिकित्सक सभी बुला लिए जाते हैं. ठीक होने तक दिनभर बिस्तर पर लिटाया जाता है, सगे-संबंधी भी हाल चाल पूछने आते हैं. पर, यदि लडकी को चोट लगे और उसने गलती से भी दर्द का जिक्र किया तब तो दो-चार थप्पड़ के साथ भविष्य की हिदायतें और शादी की चिंताएं सभी सुना दिया जाता है. आराम तो दूर, घर के काम में और व्यस्त कर दिया जाता है. इतना सब कुछ सहने के बाद भी लडकियां बढ़ती हैं, पढ़ती हैं और दर्द को भूलकर फिर आगे बढ़ती हैं. पर जरा सोचिये, लैंगिक बराबरी की बातें करने वाला हमारा समाज किस हद तक भेद-भाव का अभ्यस्त हो गया है.