सुप्रसिद्ध भरथरी गायिका सुरुज बाई खांडे का बिलासपुर के निजी अस्पताल में शनिवार (10.3.18) को 69 साल की उम्र में निधन हो गया। अपनी गायिकी से उन्होंने राज्य और देश सहित विदेशों में भी नाम कमाया था। हारमोनियम, बांसुरी, तबला, मंजीरा की संगत से गाया जाने वाला लोकगीत भरथरी राजा भरथरी के जीवन-वृत्त, नीति और उपदेशों को लोक शैली में प्रस्तुत करने की लोककला के रूप में प्रचलित रहा है। छत्तीसगढ़ में भरथरी लोगों में काफी प्रचलित रहा है।

भरथरी एक छत्तीसगढ़ की लोक गाथा है। योगियों को सांरण या एकतारा के साथ भरथरी गाते देखा जाता है। भरथरी की सतक और उनकी कथा ने लोक में पहुंच कर एक खास लोकप्रियता हासिल की है। लोक जीवन के विकट यथार्थ और सहज मान्यता ने जिस भरथरी को जन्म दिया, वह अनेक अर्थों में लोक शक्ति के अधीन प्रयोगशीलता और विलक्षण क्षमता का प्रमाण है। इसी गायन की जीवंत प्रतीक श्रीमती सुरुज बाई खाण्डे आजीवन भरथरी गायन की मिसाल बनी रहीं।

आंचलिक परंपरा में आध्यात्मिक लोकनायक के रूप में प्रतिष्ठित राजा भर्तृहरि के जीवन वृत्त, नीति और उपदेशों को लोक शैली में प्रस्तुति है भरथरी। छत्तीसगढ़ में भरथरी गायन की पुरानी परंपरा को सुरुज बाई खांडे ने रोचक लोक शैली में प्रस्तुत कर विशेष पहचान बनाई है।



अप्रैल 2017 को मैं और समाज विज्ञान की अधिष्ठाता प्रो अनुपमा सक्सेना झुग्गी बस्तियों पर एक रिपोर्ट तैयार करने के सिलसिले में बिलासपुर की कई झुग्गी बस्तियों का भ्रमण किया। इसी दौरान हम एक दिन दिवंगत सुरुज बाई खांडे के घर पहुंच गए। जब हमने उस घर में उन्हें देखा तो ऐसा लगा जैसे हमारे पांव तले से जमीन ही निकल गई। इतनी बड़ी भरथरी लोक गायिका से हम इस हाल में मिलेंगे, इसका अंदाजा नहीं था।

जब हमने उनसे पूछा कि आप इस झुग्गी बस्ती में क्यों रहती हैं, तब उन्होंने कहा कि हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। यह घर भी बहुत मुश्किल से खड़ा कर पाई हूं। उन्होंने बताया था कि लोक कलाकार के तौर पर एसईसीएल में चतुर्थ कर्मचारी वर्ग में नौकरी दी गई थी। लेकिन दुर्घटना होने की वजह से नौकरी करना असंभव हो गया। लिहाजा उन्हें नौ साल पहले ही रिटायरमेंट दे दिया गया। रिटायरमेंट के बाद मात्र दो हजार रुपए में किसी तरीके से हम अपना गुजर-बसर करते हैं। सरकार से हमने कई बार गुहार लगाई, लेकिन किसी पर कोई असर नहीं हुआ। मध्यप्रदेश सरकार के द्वारा अहिल्या बाई सम्मान से भी सम्मानित किया गया था। उसी में मिले पैसे से हमने यह मकान किसी तरह खड़ा किया है।

छत्तीसगढ़ में भरथरी गायन की परंपरा को सुरुजबाई खांडे ने आकर्षक लोक शैली में प्रस्तुत कर अपनी पहचान के साथ-साथ पूरे छत्तीसगढ़ को एक अमिट पहचान से नवाजा। उन्होंने रूस, दुसाम्बे, अमला के अलावा लगभग अठारह देशों में अपनी कला का डंका बजाया और लोक गायिकी को दुनिया भर में एक खास जगह दिलाई। सुरुज बाई खांडे ने अपना जीवन लोक कला को समर्पित कर दिया था। उन्होंने सात साल की उम्र से भरथरी गाने की शुरुआत की। अपने नाना दिवंगत राम साय घृतलहरे के मार्गदर्शन में उन्होंने काफी कुछ सीखा और और इस गायकी को एक उन्नत स्थान दिलाया। वे 1986-87 में सोवियत रूस में हुए भारत महोत्सव का हिस्सा बनीं थीं। उन्होंने भरथरी जैसी प्राचीन परंपरागत शैली में गाए जाने वाले गीतों को न सिर्फ जिंदा रखा, बल्कि उसे नया आयाम भी दिया, पूरी दुनिया के मंचों पर उसे पहचान दिलाई।



दूसरी बार उन्हें देखने और सुनने का मौका 18 दिसंबर को गुरु घासीदास जयंती कार्यक्रम के दौरान विश्वविद्यालय में मिला था। उम्र के इस पड़ाव पर इतने बड़े सभागार में बिना किसी साज के पूरे सभागार को अपनी आवाज की बुलंदी से उन्होंने झूमने पर मजबूर कर दिया था। तब किसी ने नहीं सोचा होगा कि यह दमदार आवाज इतनी जल्दी खामोश हो जाएगी।

लेकिन खुद की पहचान को बचाए रखने के संघर्ष ने उन्हें झकझोर दिया था। उनकी और उनके पति की इच्छा और आशा थी कि उन्हें सरकार कभ न कभी पद्मश्री या किसी अन्य ऐसे ही पुरस्कार से अवश्य नवाजेगी। लेकिन उनकी यह इच्छा उनके साथ ही दफ़्न हो गई। भारतीय समाज में पुरस्कारों का राजनीतिकरण और जातिवादी मानसिकता को देखते हुए अगर हम यह कहें कि एक महान प्रतिभा को उसका प्रतिदान दिए बिना ही अलविदा कह दिया गया और इस तरह हम एक गौरवपूर्ण काम करने से वंचित रह गए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हां, इस विभूति के जाने के बाद वे नेता अपना शोक प्रकट करने के लिए जरूर प्रकट हो गए, जिन्होंने जिंदा रहते इस महान कलाकार को उपेक्षित रखा। और इसी वजह से वे बदहाल जिंदगी जीने को मजबूर रहीं।

खबरों के मुताबिक सुरुज बाई के हर कार्यक्रम में उनके साथ रहने वाले उनके पति लखन खांडे ने सुबकते हुए कहा कि इतनी बड़ी गायिका को किसी ने पद्मश्री दिलाने तक के बारे में नहीं सोचा। लखन खांडे खुद भी एक अच्छे गायक हैं और वे हमेशा अपनी पत्नी को पद्म पुरस्कार से नवाजे जाते देखना चाहते थे। लेकिन उनका यह सपना अब कभी पूरा नहीं हो पाएगा।

एक और बात भी विचारणीय है कि जो मीडिया किसी खास नेता के खिलाफ ट्रायल चलाता है, फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों की बेहद मामूली बातों को सुर्खियां बनाता है, वही मीडिया इतनी बड़ी प्रतिमान को कहीं किसी रूप में सुर्खियों में जगह देना जरूरी नहीं समझता। लोक संस्कृति के ऐसे प्रतिमानों को संरक्षित करने और सम्मान दिलाने में हम थोड़ा भी प्रयास करें तो वह दिवंगत आत्मा के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।