देश में संपादकों की भरमार है. इनमें से कुछ ऐसे हैं जो प्रबंधन और सत्ता प्रतिष्ठान के चुने हुए कठपुतली हैं और अपने मालिकानों की वर्षों तक पूरी स्वामिभक्ति से सेवा करते हुए अपनी आय में निरंतर और व्यापक बढ़ोतरी सुनिश्चित करते रहे. मीडिया में आज इसी किस्म के संपादकों का दबदबा है. लेकिन तेजी लुप्त होती हुई संपादकों की एक ऐसी श्रेणी भी है जिसने पत्रकारिता के क्षेत्र में वर्षों तक कार्य करते हुए खुद को एक बेहतरीन पेशेवर के रूप स्थापित किया और अपनी कार्यप्रणाली में मूल्यों और नैतिकता का लोप नहीं होने दिया. ऐसे संपादकों में ज्यादातर असंदिग्ध विश्वसनीयता वाले, स्वतंत्र एवं खबरों और तथ्यों से खिलवाड़ न करने वाले पुरुष (पत्रकारिता की पितृसत्तात्मक दुनिया में महिलाओं को अभी वाजिब प्रतिनिधित्व और स्थान मिलना अभी बाकी है) हैं.

निहाल सिंह इसी दूसरी श्रेणी के एक गर्वीले और महत्वपूर्ण चेहरे थे. एक ऐसा संपादक, जिसने कभी समझौता नहीं किया. और यही वजह रही कि इतना जबरदस्त और शानदार अनुभव होने के बावजूद वे उन तत्वों, जो आज मीडिया को नियंत्रित कर रहे हैं, द्वारा नजरंदाज़ किये गये. पत्रकारिता के अपने कार्यकाल में वे कई महत्वपूर्ण अखबारों के संपादक रहे. द स्टेट्समैन और इंडियन एक्सप्रेस इनमे सबसे उल्लेखनीय हैं. लेकिन, इससे ज्यादा उनकी पहचान भारत के पहले ऐसे विदेश संवाददाता के तौर पर रही जिसने दिल्ली में अपनी कुर्सी पर बैठकर नहीं बल्कि दुनिया भर के विवादग्रस्त, तनाव वाले एवं संवेदनशील इलाकों में घूम - घूमकर तथ्यपरक रिपोर्टिंग की. उनकी भेजी हुई खबरें सुर्ख़ियों का हिस्सा बनती रहीं क्योंकि तत्कालीन मीडिया का उनपर अगाध भरोसा था.

मेरा उसने पहला परिचय तब हुआ जब मैंने इंडियन एक्सप्रेस में एक नवोदित रिपोर्टर के तौर पर शामिल हुई और वे उन संपादकों में से थे जिन्हें रामनाथ गोयनका बेहद पसंद करते थे. कुलदीप नैय्यर के उलट वे बेहद रिज़र्व और अपने तक सीमित रहने वाले इन्सान थे. लेकिन जब भी कोई नवनियुक्त पत्रकार उनके कमरे का दरवाजा खटखटाता तो वे उससे हमेशा मुस्कराकर मिलते. विदेश नीति से जुड़ी रिपोर्टिंग पर उनकी पैनी नजर रहती और वे अक्सर एक छोटा नोट लगाकर कॉपी को संबंधित रिपोर्टर को वापस भिजवाने से नहीं हिचकते. उनके द्वारा मुझे भेजी गयी एक छोटी सी नोट को मैं कभी नहीं भूलूंगी. मेरी एक खबर का खंडन करते हुए किसी व्यक्ति ने एक चिट्ठी भेजी थी. उस खंडन के साथ नत्थी कर वह नोट उन्होंने मुझे भेजी. उस नोट पर उन्होंने लिखा था - "तुम्हारी नसीहत के लिए". मैं बुरी तरह झुंझला गयी थी और मेरी झुंझलाहट यह जानने के बाद और बढ़ गयी थी कि तथ्यगत रूप से वे सही थे और उस चिट्ठी में व्यक्त नजरिए में दम था.

निहाल सिंह राजनीति पर ज्यादा लिखने वालों में से नहीं थे. वे राजनीति के लगातार गिरते स्तर से बेहद निराश थे. 2014 के बाद से मीडिया में आई गिरावट ने उनकी निराशा को और बढ़ा दिया. मुलाकात होने पर वे अक्सर संपादक पद की घटती गरिमा पर नपे - तुले शब्दों में चिंता व्यक्त करते और पत्रकारिता के पेशे में आई निम्न स्तर की गिरावट के लिए चुने हुए मुहावरों के साथ वर्तमान सरकार की आलोचना करते. वे एक ऐसे संपादक थे जिसका विश्वास सरकार और राजनीतिक दलों से एक मर्यादित दूरी बनाये रखने में था. उन्हें सरकार की गोद में बैठने वाली मीडिया पर हैरानी होती थी.

निहाल सिंह पहले ऐसे संपादक थे जिनसे मैंने द सिटिज़न शुरू करने का विचार साझा किया था. उन्होंने इस पहल पर ख़ुशी जतायी थी. उनकी एकमात्र चिंता यह थी मेरे जैसा प्रिंट मीडिया का पत्रकार नयी तकनीक के साथ कैसे तालमेल बिठा पायेगा. लेकिन एकबार इसके शुरू हो जाने के बाद से वे लगातार सबसे मजबूत साथी और समर्थक बने रहे. वे हमेशा यह जानने को उत्सुक रहते कि एक संस्थान के तौर पर हमारा काम कैसा चल रहा है और इसमें नया क्या कुछ जोड़ा जा सकता है. उन्होंने हमारे सलाहकार बोर्ड के सदस्य की जिम्मेदारी सहर्ष स्वीकार की और पिछले एक साल में इसकी हर मीटिंग में आना नहीं भूले. द सिटिज़न में दी जाने वाली सामग्री के बारे में उनकी ईमानदार आलोचना और उनका नैतिक समर्थन हमें लगातार आगे बढ़ने को उत्साहित करता रहा.

अलविदा निहाल सिंह ! आप हमें ऐसे समय छोड़ गए जब स्वतंत्र पत्रकारिता को आपकी सबसे ज्यादा जरुरत थी.