‘‘कंपनी में उत्पीड़न के खिलाफ जब वर्करों ने यूनियन बनाने की कार्यवाही शुरू की तो भावी यूनियन के प्रतिनिधियों को नौकरी से निकाल बाहर किया गया। साथ ही समर्थन में खड़े कुछ और वर्करों को भी निकाल दिया गया। अब कंपनी अपने गुंडे भेज कर इन वर्करों के कमरे पर, रास्ते में, बाजार में धमकाती है, इलाके से चले जाने का अल्टीमेटम देती है।‘‘

करीब छह महीने से नौकरी से बाहर रहकर यूनियन की लड़ाई लड़ रहे अखिलेश कुमार का चेहरा बात करते-करते लाल हो जाता है। गुड़गांव के आईएमटी मानेसर में स्थित एसपीएम ऑटोकॉम्प सिस्टम्स प्राईवेट लिमिटेड में वो काम करते थे। उन पर मजदूरों को भड़काने का आरोप लगाया गया।

हरियाणा के बावल में रॉकमैन कंपनी में पिछले साल मजदूरों ने यूनियन बनाने की कोशिश शुरू की। इसके बाद वर्करों को सस्पेंड करने की ऐसी बयार चली कि एक-एक कर करीब डेढ़ सौ लोगों को निकाल बाहर किया गया। इनमें 116 परमानेंट हैं। मजदूरों का आरोप है कि उनकी यूनियन फाइल को रोकने के लिए हरियाणा के श्रम मंत्री नायब सिंह सैनी का लेबर डिपार्टमेंट को फोन गया, उसके बाद फाइल ठंडे बस्ते में चली गई। कर्मचारी प्रतिनिधि कपूर सिंह ने बताया कि जब यूनियन की प्रक्रिया शुरू हुई तो कंपनी ने गुंडों से हमले करवाए।

देश की राजधानी दिल्ली में मेट्रो कर्मचारी पिछले कई सालों से यूनियन बनाए जाने की मांग कर रहे हैं और इस संबंध में पिछले जून में सभी 9,000 कर्मचारी हड़ताल पर जाने वाले थे। लेकिन मैनेजमेंट कोर्ट से ऑर्डर लेकर आ गया और आंदोलन वहीं स्थगित हो गया। डीएमआरसी कर्मचारी नेता रवि भारद्वाज ने वर्कर्स यूनिटी से खास बातचीत में कर्मचारी परिषद की सालों से पेंडिंग पड़ी मांगों को लटकाने का आरोप लगाया है। यूनियन को किसी भी कीमत पर न बनने देने की ये कुछ बानगी भर हैं, जिसमें फैक्ट्री मालिक, यानी पूंजीपति, मंत्री-संत्री और न्यायालय एक कोऑर्डिनेशन में काम कर रहे हैं। इसके अलावा अभी गुड़गांव से बावल, नीमराणा और रोहतक तक जो इंडस्ट्रियल बेल्ट है, वहां अब यूनियन न बनने देने के आगे बात पहुंच गई है-यानी ठीक ठाक चल रही फैक्ट्री को लॉकआउट कर देना, परमानेंट कर्मचारियों तक को एक झटके में बाहर कर देना।

संदेश साफ है, यूनियन वाली कंपनियां पहले लॉकआउट कर परमानेंट वर्करों और यूनियन दोनों से छुट्टी पा लेंगी और फिर कुछ समय बाद कंपनी शुरू होगी और उसमें सिर्फ ठेके के मजदूर काम करेंगे। मानेसर के ओमैक्स, एंड्योरेंस, धारूहेड़ा के रिको, बॉवल के रॉकमैन, गुड़गांव के नपीनो जैसे प्लांट इसके उदाहरण हैं। एटक नेता सतवीर बताते हैं कि इस पूरे इंडस्ट्रियल बेल्ट में कुल दो दर्जन के करीब फैक्ट्रियों में तालाबंदी. छंटनी की कार्यवाही चल रही है, जिसकी जद में करीब 4,500 मजदूर हैं। ये उन कंपनियों का हाल है जहां कामकाजी यूनियनें थीं, कोई एटक से संबद्ध तो कोई इंटक या एचएमएस से। लेकिन आज इन कंपनियों के हजारों मजदूर सड़क पर हैं।

गुड़गांव के बिनोला में स्थित आरजीपी मोल्ड्स और गुड़गांव के नपीनों में तो त्यौहार के दिन लॉकआउट का नोटिस चिपका दिया गया। यही हाल मानेसर के ओमैक्स का था जहां पिछले होली के पहले तक 1,200 कर्मचारी थे, लेकिन जून तक आते-आते साढ़े 1,100 कर्मचारियों को निकाल बाहर किया गया। इस इलाके में हर कंपनी, मिल, फैक्ट्री, प्लांट का यही हाल है।

रिको कर्मचारी यूनियन के अध्यक्ष राजकुमार कहते हैं कि उनकी कंपनी में 104 परमानेंट कर्मचारियों को जून में एक झटके में निकाल दिया गया, जिनमें 20-20 और 28-28 साल से काम करने वाले हैं। उनका कहना है कि जबसे मोदी सरकार ने मेक इन इंडिया की योजना का आगाज किया, कंपनियों को परमानेंट से छुटकारा पाने का बहाना मिल गया। जब उन्हें ऐसे सस्ते मजदूर मिल रहे हैं जिनकी कोई जवाबदेही कंपनी पर नहीं बनती क्योंकि वो कौशल विकास स्कीम के तहत नियुक्त होंगे और पहले साल उनकी तनख्वाह का 75 प्रतिशत सरकार देगी, तो ये एक तरह से कंपनी के लिए मुफ्त का श्रम माल है। निकाले मजदूरों का भी यही कहना है कि इस स्कीम ने कंपनियों को परमानेंट मजदूरों को निकाल बाहर करने के लिए प्रोत्साहित किया है।

लेकिन सिर्फ इतनी बात नहीं है। मोदी सरकार ने पिछले साल श्रम कानूनों में भारी फेरबदल कर दिया, जिसमें यह भी था कि 300 से कम वर्करों वाली कंपनियों को लॉकआउट की आजादी होगी। इसका असर ये हुआ कि ऐसी कंपनियां जिनकी कुल वर्क फोर्स तो पांच सौ से ऊपर है लेकिन उसमें परमानेंट मजदूर 300 से थोड़े ही कम या ज्यादा हैं, वो एकतरफा कम वर्कर संख्या दिखाकर लेबर डिपार्टमेंट को लॉकआउट की नोटिस भेज दे रही हैं। मानेसर के एंड्योरेंस टेक्नोलॉजीज इसका उदाहरण है। कंपनी ने अचानक जून में लॉकआउट का नोटिस चिपका दिया था।

एंड्योरेंस वर्कर यूनियन के ज्वाइंट सेक्रेटरी अमित सैनी बताते हैं कि यूनियन ने इस मामले की पैरवी चंडीगढ़ तक की और अखिरकार इस नोटिस को रद्द कराया। जिस मैनेजमेंट एक असेंबली लाइन को बंद कर कंपनी को घाटे में दिखाने की जुगत भिड़ा रहा था, कोर्ट के आदेश के तुरंत बाद उसी ने अतिरिक्त भर्तियां शुरू कर प्रोडक्शन बढ़ा दिया। कंपनी मालिकों की ये ट्रिक कोई नई नहीं है।

गुड़गांव के बिनोला में एक कुख्यात कंपनी है आरजीपी मोल्ड्स। पिछले एक सालों से ये पूरी तरह प्रोडक्शन का काम कर रही है। ये कंपनी मजदूरों के पीएफ, ईएसआई और ग्रैच्युटी को गोल कर जाने के लिए हर चार साल में अपना नाम बदल देती है। आरजीपी वर्कर यूनियन के अध्यक्ष चंद्रशेखर बताते हैं कि मजदूर वही होते हैं, लेकिन चार साल बाद उसका नाम दूसरी कंपनी के खाते में दर्ज होने लगता है। गुड़गांव से बावल तक के इंडस्ट्रियल बेल्ट की ये कहानी आम है। 2018 में उद्योगपतियों की निरंकुशता बढ़ी है, अधिक से अधिक लॉकआउट, छंटनी और उत्पीड़न बढ़ा है। श्रम विभाग मूकदर्शक बना हुआ है। लेबर अफसर मजदूरों को दो टूक कह रहे हैं कि ‘‘हमारे हाथ बंधे हैं..हमें तो सरकार ने सिर्फ कुर्सी पर बैठा रखा है।‘‘उनके अनुसार, कंपनी में किसी भी कर्मचारी को चार साल से अधिक की कंटीन्यू नौकरी पर नहीं रखा जाता। अब इस कंपनी ने परमानेंट वर्करों से पूरी तरह छुट्टी पाने के लिए कुछ महीने पहले लॉकआउट ही कर दिया। अब फिर से कंपनी दूसरे नाम से खुल गई है। प्रोडक्ट वही है लेकिन वर्कर ठेके के हैं।

गुड़गांव से बावल तक के इंडस्ट्रियल बेल्ट की ये कहानी आम है। 2018 में उद्योगपतियों की निरंकुशता बढ़ी है, अधिक से अधिक लॉकआउट, छंटनी और उत्पीड़न बढ़ा है। श्रम विभाग मूकदर्शक बना हुआ है। लेबर अफसर मजदूरों को दो टूक कह रहे हैं कि ‘‘हमारे हाथ बंधे हैं..हमें तो सरकार ने सिर्फ कुर्सी पर बैठा रखा है।‘‘

ऐसी हालत में मजदूर कहां जाएं, किसके पास फरियाद करंे। इसलिए उनके सामने अब लड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा है। सभी यूनियनों को मिलाकर इलाके में एक ट्रेड यूनियन काउंसिल है, जिसके आह्वान पर एक के बाद एक चेतावनी प्रदर्शन किए जा रहे हैं। लेकिन कोई असर नहीं होता। यहां तक कि छह सितम्बर को टीयूसी ने एएलसी कार्यालय पर एक बड़ा प्रदर्शन का आह्वान किया था और मांग पत्र देने की बात कही, लेकिन छह सितम्बर को दफ्तर बंद कर एएलसी ही गायब हो गए। ऐसे में नीचे से डायरेक्ट कार्यवाही का दबाव बढ़ रहा है। टीयूसी ने भी पूरे इंडस्ट्रियल बेल्ट का चक्का जाम करने की चेतावनी दी है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि क्या इससे भी हालात सुधर जाएंगे?

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