राजस्थान सरकार के कला एवं संस्कृति मंत्री बी.डी. कल्ला ने अपने भाषण में कहा था कि 'उनकी सरकार कला व संस्कृति की पोषक बनेगी.' साथ ही, उन्होंने यह भी कहा था कि 'जवाहर कला केंद्र कलाकारों के लिए बनाया है, ना कि पैसे कमाने के लिए.'

लेकिन जवाहर कला केंद्र, शिल्प एवं माटी कला बोर्ड एवं घुमंतू बोर्ड जैसी संस्थाओं की हालत देखने पर महसूस होता है कि पोषक बनना तो दूर की बात रही, यदि सरकार इनको अपने हाल पर भी छोड़ दे तो ज्यादा सही होगा.

यह चिंता, दुख एवं शर्म की बात है कि प्रख्यात शिल्पी चार्ल्स कोरिया ने जिस जवाहर कला केंद्र को कला- संस्कृति के क्षेत्र में विश्व मे अनूठी पहचान दिलाई, वो आज सामान बेचने और कला के नाम पर पाखंड का अड्डा बनकर रह गया है. यही स्थिति माटी कला बोर्ड, जवाहर कला मंच अजमेर की है और घुमंन्तु बोर्ड का तो कुछ अता- पता ही नहीं है.

सरकार की अनदेखी तथा संस्थाओं में कार्यरत अधिकारी और कर्मचारियों की मिलीभगत ने इन संस्थानो को गहरी नींद में सुला दिया है. और जब यह संस्थाएं ही ढलान पर होंगी, तो कला- संस्कृति का अवसान निश्चित ही है.

कला और कला संस्थाओं की भूमिका

कलाएं सेमिनारों की शोभा बढ़ाने के लिए नही है. कला तो इंसान को रचती, गढ़ती और बुनती हैं. उनमें हिम्मत, जज़्बे और इंसानियत का रंग भरती है. उसे विचारशील बनाती है. कला की सुंदरता ही यही है कि उसमें मुक्ति की धुन है. माने बंधनो से मुक्ति, जाति- धर्म से मुक्ति, पुरुष की सत्ता से मुक्ति, आडंबरों ओर दिखावे से मुक्ति, किसानों- मजदूरों का मुक्ति गान.... और इसी मायने में वो “लस्ट” से अलग हो जाती है. कला का तकनीकी पक्ष भले ही कुछ भी हो, लेकिन उसका मर्म मुक्ति है. और यदि कला में मुक्ति की धुन नहीं है, तो वो हवस या लस्ट है. कलाएँ तो हमारे मनुष्य होने का हिसाब रखती हैं.

कला संस्थान केवल बिल्डिंग मात्र नही हैं,जहां कुछ प्रदर्शन हो गए, मेले लग गए और बस... यह मुनाफा कमाने की कोई औद्योगिक इकाई भी नहीं हैं. कला संस्थान तो वो स्थान है, जहां नए विचार पैदा होते और पलते हैं. संघर्षों से जूझते हुए आगे बढ़ते हैं. बूढ़े होते है और फिर किसी नए विचार में घुल चिरंजीवी हो जाते हैं.

सच है कि एक समय बाद विचार बदलते हैं. नया रूप, नया कलेवर ग्रहण कर लेते हैं, लेकिन वो समाप्त नहीं होते. कला संस्थान इसी अर्थ में महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वह सृजित ज्ञान की अथाह परम्परा को आने वाली पीढ़ी के लिए संजोकर रखते हैं. उसे सहजते हैं. उसे लिपिबद्ध करते हैं और उसे जीवंत बनाए रखने के निरंतर शोध करते हैं. वस्तुतः कला संस्थान, कला एवं कलाकर को कठिन समय मे थामते हैं. इस रूप में वो अभिभावक की भूमिका निभाते हैं.

इन मायनो में जवाहर कला केंद्र, शिल्प और माटी कला बोर्ड तथा घूमंन्तु बोर्ड अपनी जंग हार चुके हैं. आज यदि चार्ल्स कोरिया जिंदा होते, तो अपने हाथों से जवाहर कला केंद्र की दीवारों को ढहा देते. हिंदुस्तान में दो- चार ही ऐसे केंद्र हैं, जिनके कंधों पर हमारी इस समृद्धशाली धरोहर का बोझ टिका है. उनमे से जवाहर कला केंद्र एक है.

लेकिन जवाहर कला केंद्र आज महज़ परफॉरमेंस सेन्टर और कपड़े, तेल- साबुन बेचने की दुकान बनकर रह गया है. यहां कला में शोध केंद्र के रूप में मौजूद लाइब्रेरी, कॉम्पिटिशन की तैयारी करने वालों का अड्डा, ओर मस्तीखोरों का ठिकाना बनकर रह गई. यहां मौजूद कर्मचारियों की मिलीभगत से 950 रुपए मासिक शुल्क देकर लोग मस्ती करते हैं और शोधार्थी लोग दाखिले के लिए चक्कर लगाते हैं. जब शोध होगा ही नहीं, तो डॉक्यूमेंटेशन भी नही करना पड़ेगा. इसीलिए यहां डॉक्यूमेंटेशन के नाम पर शून्यता की स्थिति देखने को मिलती है.

यह कितनी दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि हमारे पुरखों की साझी विरासत, समाज के सहज और उपयोगी ज्ञान की धरोहर, समृद्धशाली परम्परा के प्रतीकों को हटाकर कचरे के ढेर में डाल दिया गया है. उन्हें दीमक खा रही हैं. जबकि उस म्यूजियम के स्थान को खाली करके जवाहर कला केंद्र का स्टाफ आराम फरमा रहा है.

कला और कलाकारों का अभिभावक बनना तो दूर, उल्टा उन्हें प्रताड़ित किया जा रहा है. प्रख्यात लोक नाटककार सक्षम खंडेलवाल ओर संगीतकार तपेश आर. पंवार का कहना है कि “आज तो चार्ल्स कोरिया की आत्मा भी आँसू बहा रही होगी. आप कला संस्कृति की बात छोड़ दीजिए, हम तो जे. के. के. के बंद मुख्य द्वारों को खुलवाने और नोटिस बोर्ड के ऊपर कार्यक्रम का पंपलेट लगवाने की ही लड़ाई लड़ रहे हैं. केंद्र के पीछे के सब गेट बंद कर दिए गए. यहां इतने लोग कॉफी हाउस में बैठते हैं, यदि कोई हादसा हो गया तो कौन जवाब देगा. यहां हर चीज़ का पैसा चलता है. हर किसी पर बिचौलिया का कब्जा है. लोक कलाकार भूखे मर रहे हैं.”

यह कितने शर्म की बात है कि कला- संस्कृति के इतने बड़े मंच पर विचार- विमर्श के लिए कोई स्थान नही हैं. यही हाल रहा, तो नए विचार जन्म कैसे लेंगे ?

2011 की जनगणना के अनुसार राजस्थान में 53 घूमंन्तु समाज हैं. यही समाज राजस्थान की रंग- बिरंगी जीवन शैली, अपने ख़ास तरीके के पहनावे, खानपान और लोक गीतों के कारण सदा आकर्षण का विषय रहे हैं. इनको समाज की मुख्यधारा में लाने, उनके शिकायतों के समाधान, उनके हितों के संरक्षण के लिए बना घुमंन्तु बोर्ड मनो जैसे ऊंघ रहा है. उसकी सुध लेने वाला कोई नही है. त्रासदी की बात यह है कि इनको राजनीतिक कुंठाओं की शांति का पोस्ट बना दिया है. जिन्हें विधानसभा या संसद का टिकट नही मिलता, उन्हें इसका अध्यक्ष और सदस्य बना देंगे. जिन्हें उन बेज़ुबानों से कुछ लेना -देना नहीं, वे इंचार्ज बन बैठते हैं.

शिल्प और माटी कला बोर्ड बना दिया गया, लेकिन उसमे नियुक्त अधिकारी और अन्य सदस्यों को यह तक नहीं पता कि शिल्प और माटी कला से जुड़े समाज कौन-से है और उनकी कला कौन-सी है ? कुचबन्दा घुमंन्तु समाज से संबंधित है, जो मिट्टी के खिलौने बनाते थे और सदा घूमते रहते थे. लेकिन आज न केवल उनकी कला समाप्त हो गई है, बल्कि बोर्ड को यह तक नहीं पता कि उनकी संख्या कितनी है और वो कहां रहते हैं ? कुम्हार अपना काम छोड़कर दिहाड़ी मजदूर बन गए हैं. उनके लिए कोई ठोस योजना नहीं है. क्योंकि इन सांस्थाओं मे बैठने वालों को उस जीवन शैली, उनकी संस्कृति की समझ ही नहीं है, तो काम क्या करेंगे ?

जवाहर कला केंद्र एक सपना है. कला - संस्कृति को जीवंत रखने का माध्यम है. इसको कुछ लालची ओर स्वार्थी अधिकारियों की बलि नही चढ़ाया जा सकता. सरकार को तत्काल चाहिए कि एक उच्चस्तरीय जांच कमेटी बनाकर अधिकारी और कर्मचारियों की भूमिका की जांच करे.

लाइब्रेरी केवल शोध करने और शोधार्थी के लिए हो, जहां डॉक्यूमेंटेशन की व्यवस्था होनी चाहिए. म्यूजियम की वस्तुओं को तत्काल सहेजा जाना चाहिए.

एक साझा मंच बने जहां शोधार्थी, कलाविद, कला- साहित्य मंत्री और अधिकारी बैठें और यह तय करने का एकमात्र अधिकार कलाकारों का होना चाहिए कि वो इस कला- संस्कृति मंच का उपयोग कैसे करेंगे ? अधिकारी और कर्मचारी का काम उस मंच को सुविधा देने का है, न कि कार्यक्रम बनाने और चलाने का. जवाहर कला केंद्र के सभी गेट खोले जाएं, ताकि किसी भी अनहोनी से बचा जा सके.

घुमन्तू बोर्ड में वे लोग ही सदस्य और अध्यक्ष बने, जिसने इन समाज के साथ वर्षों से काम किया हो. सार्वजनिक जीवन की सत्यनिष्ठा और ईमानदारी को चयन का आधार बनाया जाये.