नई दिल्ली: । जम्मू और कश्मीर. मुख्यमंत्री केंद्र सरकार की वार्ता के प्रस्ताव को स्वीकार करते हैं, विपक्ष के नेता भी इस बात से सहमती जताते हैं, इस प्रावधान पर कि 'कम से कम उन्हें यह महसूस होता है कि बल काम नहीं करता', अलगाववादियों चुप्पी के साथ इंतजार कर रहे हैं कि उनसे भी बात की जाये , सामान्य कश्मीरी उदासीन है पर एक शांत आलोचनात्मक दृष्टि है, यहाँ तक कि सोशल मीडिया पे चल रहे युद्ध के पक्ष और विपक्ष के बारे में ।

किसी ने इस बात पर सचमुच सवाल नहीं उठाया है कि भारतीय सरकार इंटेलिजेंस ब्यूरो के पूर्व निदेशक दिनेश शर्मा को "सभी स्टेकहोल्डरों," के साथ वार्तालाप में एक प्रमुख वार्ताकार के रूप में न्युक्त कर के क्या चाहती है। वह पूर्वोत्तर में कुछ विद्रोही समूहों के साथ वार्तालाप देख रहे हैं, लेकिन जम्मू और कश्मीर की दृष्टिकोण से यह शासनादेश बिल्कुल अलग होना चाहिए, चूँकि यहाँ स्थिति पूरी तरह से अलग है। जहाँ नार्थ ईस्ट में बातचीत विशिष्ट समूहों के साथ है, वहीं जम्मू और कश्मीर में उन्हें एक राजनीतिक वार्ता की अध्यक्षता करने के लिए नियुक्त किया गया है, जिसमे लोगों की आकांक्षाओं को ध्यान में रखते हुए मुद्दे के समाधान की खोज की जायेगी।

वैसे यह वाक्यांश अतीत में वार्ताकारों द्वारा इस्तेमाल किया गया है । पूर्व मंत्री के.सी. पंत से ले कर आईबी के दिनेश शर्मा अब पश्चिम में सीमा पर लागू होने वाले सामान्य ज्ञान से, वार्ताकारों के स्तर के साथ तेजी से गिरा रहे हैं । साफ़ तौर पर जाहिर है कि कश्मीर के सवाल को राजनीतिक डोमेन से उठा कर सुरक्षा और कानून-व्यवस्था में स्थानांतरित कर दिया गया है, इस बात को छुपाने की कितनी भी कोशिश की जाए, लेकिन सच लाल बड़े अक्षरों में ज़ाहिर है

वार्ताकार को सत्तारूढ़ शासन की वर्तमान दृष्टिकोण और राजनीति से बहुत गहरे सम्बन्ध बनाने होंगे । जैसे कांग्रेस सरकार द्वारा नियुक्त तीन वार्ताकारों- राधा कुमार, लेट दिलीप पदगावकर, एम.एम. अंसारी – का काम मूल रूप से भटकाव वाली रणनीति इस्तेमाल करना, समय माँगना और समय बर्बाद करना था । इस पूरे समय सरकार की टीम अपनी एक रिपोर्ट पर काम करते हुए, ढीले रवैये से उन तीनों उदेश्यों की पूर्ती करती रही। कांग्रेस सरकार को नागरिक अधिकारों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का प्रदर्शन करना पसंद है, और इसमें इन तीन प्रतिष्ठित व्यक्तियों की उदार छवि उसके बहुत काम आई।

पर बीजेपी के पास ऐसी कोई मजबूरी नहीं है . पिछले तीन वर्षों में नीति को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया है। गोली बंदूकों और चोटी काट के बीच यह निम्न बिंदुओं में संक्षेप किया जा सकता है:

· जम्मू और कश्मीर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ / भाजपा के अखंड भारत की संकल्पना का अभिन्न अंग है;

· राज्य की स्थिति के संबंध में कोई भी जानकारी नहीं दी जाएगी;

· कश्मीर पर पाकिस्तान के साथ कोई तीसरी पार्टी की वार्ता नहीं होगी;

· 'अलगाववादियों' या नई दिल्ली में सोचा फ्रेम के लिए कोई जगह नहीं है;

· विपथन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा;

· सेना तब तक कश्मीर का शासन करेगी जब तक बी. जे. पी. घाटी में एक क्षेत्रीय पार्टी के रूप में सत्ता में नहीं आती (गठबंधन के साथ या बिना);

· जम्मू और कश्मीर के लिए विशेष स्थिति बहुत अस्थायी है; जिसमें अनुच्छेद 370, जनसांख्यिकी, और अन्य ऐसे मुद्दों शामिल हैं;

तो इस वार्ताकार को निर्धारित ढांचे के भीतर काम करना होगा। तीन वर्षों में, पैरामीटर परिभाषित किए गए हैं . घाटी में विरोध के हालात बन सकते हैं, लेकिन जिस तरह से चोटी काटने वाली घटना में उन्माद की स्थिति रही , उससे यह ज़ाहिर होता है कि यह एक विखंडित समाज है जिसे भटकाव की रणनीति के जरिए नियंत्रित किया जा सकता है। इसके लिए दिनेश शर्मा एक अच्छा विकल्प हैं, क्योंकि वह खुफिया ब्यूरो से आते हैं जो घाटी में गहराई तक गया है और बिना किसी प्रश्न के उपर्युक्त एजेंडा पर काम करेंगे। उनकी वफादारी नई दिल्ली के साथ है, न कि लोगों के, और उनके रिकॉर्ड को देखते हुए, वह बिना दखल के प्रधान मंत्री कार्यालय के निर्देशों का पालन करेंगे।

शर्मा की नियुक्ति वास्तव में एक तीर से दो शिकार है . मुफ्ती और अब्दुल्ला दोनों खुश हो सकते हैं कि 'वार्ता' शुरू हो गई है; जबकि केंद्र के पास दिखावटी वार्ता करने के लिए एक नगण्य और वफादार अधिकारी है, जो किसी ख़ुफ़िया कार्यवाही जितना ही असरदार है।

वह किसके साथ बात करेंगे? उन्होंने कहा है "मुझे यह स्पष्ट करना है कि शांति प्राथमिकता है और इसके लिए मेरे दरवाजे सभी के लिए खुले होंगे।" और जो लोग नियुक्ति की आलोचना कर रहे हैं, उन्हें सुकून है कि नई दिल्ली उन्हें आलोचना का नया आसमान दे रही है. जैसा कि मुख्यमंत्री ने कहा, "लोग चारों तरफ से बहुत सी बंदूकों से घिरे हुए हैं ओर इस खौफ से आज़ादी चाहते हैं. यह एक अच्छी पहल है और हमें सफलता ज़रूर मिलेगी।"

क्या सच में?