मणिपुर में गैर-न्यायिक हत्याओं और फर्जी मुठभेड़ों के मामलों में अपेक्षित संख्या में प्राथमिकी दर्ज नहीं करने पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय जांच ब्यूरो के विशेष जांच दल (एसआईटी) को कड़ी फटकार लगाई है। न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति उदय यू. ललित की पीठ ने विशेष जांच दल को इन मामलों में 30 और प्राथमिकी 30 जनवरी तक दर्ज करने का निर्देश देते हुए कहा, ‘‘हर मामले में प्राथमिकी दर्ज होना जरूरी है। आपको (एसआईटी) जांच करनी है। जांच के बाद आप निर्णय करें कि आप आरोप पत्र दायर करेंगे या क्लोजर रिपोर्ट।’’ पीठ ने जांच दल को निर्देश दिया कि ‘‘जिन 12 मामलों में अब तक प्राथमिकी दर्ज की गई है, उनकी जांच का काम इस साल 28 फरवरी तक पूरा करके न्यायालय में अंतिम रिपोर्ट दाखिल की जाए।’’ अदालत ने इससे पहले पिछले साल 12 जुलाई को गैर-न्यायिक हत्याओं के इस संवेदनशील मामले में जांच के लिए विशेष जांच दल गठित किया था। जिसमें सीबीआई के पांच अधिकारियों को शामिल किया गया था। एसआईटी को प्राथमिकी दर्ज कराने के अलावा 95 फर्जी मुठभेडों की विस्तृत जांच करनी थी और ये जांच 31 दिसंबर तक पूरी कर, 28 जनवरी को अपनी अनुपालन रिपोर्ट अदालत को सौंपना थी। लेकिन विशेष जांच दल ने इस दरमियान सिर्फ 12 प्राथमिकी ही दर्ज कीं।

विशेष जांच दल की प्रथम स्थिति रिपोर्ट के अवलोकन के बाद पीठ ने तल्ख लहजे में विशेष जांच दल से कहा कि ऐसा लगता है कि फर्जी मुठभेड़ों से संबंधित इन मामलों की जांच को वह गंभीरता से नहीं ले रहा है। पीठ ने सीबीआई से जवाब तलब करते हुए कहा कि पिछले साल 14 जुलाई के आदेश के बावजूद अभी तक सारी प्राथमिकी दर्ज क्यों नहीं की गईं ? अदालत ने निर्देश दिया कि विशेष जांच दल द्वारा उसके समक्ष अब दाखिल की जाने वाली सारी स्थिति रिपोर्ट को सीबीआई के निदेशक की स्वीकृति होनी चाहिए। शीर्ष अदालत ने जांच ब्यूरो के निदेशक से यह भी कहा कि वह जांच की प्रगति की निगरानी करे। मामले में अगली सुनवाई अब 12 मार्च को होगी, जिसमें अदालत यह तय करेगी कि आगे क्या कार्यवाही हो ? अदालत के इस आदेश से जहां फर्जी मुठभेड़ में मारे गए लोगों के परिजनों के दिल में एक बार फिर इंसाफ की एक किरण जागी है, तो वहीं यह फैसला सेना और सरकार दोनों के लिए एक बड़ा झटका है।

20 अप्रैल 2017 को अदालत में अपना पक्ष रखते हुए सेना ने कहा था कि ‘‘जम्मू-कश्मीर, मणिपुर जैसे उग्रवाद प्रभावित राज्यों में उग्रवाद निरोधी अभियान चलाने के मामलों में उसे प्राथमिकता के अधीन नहीं लाया जा सकता है।’’ यही नहीं सेना ने अपने आप को बेदाग बतलाते हुए बचाव में यह दलील भी दी थी कि ‘‘इन क्षेत्रों में होने वाली न्यायिक जांच में स्थानीय पक्षपात होता है, जिसने उसकी छवि खराब कर दी है।’’ इस मामले में केंद्र सरकार का रवैया भी कमोबेश यही था। सेना के रवैये का समर्थन करते हुए उसने अदालत में दाखिल अपने हलफनामें में कहा था कि ‘‘सभी सैन्य अभियानों में सेना पर अविश्वास नहीं किया जा सकता है। सभी न्यायिक जांच उसके खिलाफ नहीं हो सकते हैं। मणिपुर में न्यायेत्तर हत्याओं के कथित मामले नरसंहार के नहीं है, ये सैन्य अभियान से जुड़े हैं। इस मामले में और जांच की जरूरत नहीं है।’’ लेकिन सर्वोच्च न्यायालय में सेना और सरकार दोनों की कोई दलीलें नहीं चलीं। अदालत ने मानवाधिकारों और इंसाफ का ही पक्ष लिया। अदालत ने अपने इसी साहसी आदेश में मणिपुर सरकार की भी खिचाई की और उसको फटकार लगाते हुए कहा था कि ‘‘क्या उसे इस तरह के मामलों में कुछ करना नहीं चाहिए था ?’’

शीर्ष अदालत एक जनहित याचिका की सुनवाई कर रही है। जिसमें याचिकाकर्ताओं ने मणिपुर में साल 2000 से 2012 के बीच सुरक्षा बलों और मणिपुर पुलिस द्वारा 1,528 न्यायेत्तर हत्याओं के मामले की जांच और मुआवजे की मांग की थी। बीते दो दशक में मणिपुर में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, जिसमें बेगुनाह नौजवान और बच्चे बिना किसी कसूर के मारे गए। सुरक्षा के नाम पर फर्जी मुठभेड़ और मासूमों का भयानक उत्पीड़न हुआ। मणिपुर के एक मानवाधिकार संगठन ‘एक्स्ट्रा जुडिशियल विक्टिम फैमिली एसोसिएशन’ ने साल 2010-12 में पूरे प्रदेश के अंदर फर्जी मुठभेड़ मामलों की विस्तृत जांच-पड़ताल की और अपनी इस सनसनीखेज रिपोर्ट में यह दावा किया कि साल 1979 से 2012 तक मणिपुर में करीब 1500 लोग सेना और पुलिस द्वारा फर्जी मुठभेड़ों में मारे गए हैं। जिनमें नाबलिग और औरतें भी शामिल हैं। जाहिर है कि इस रिपोर्ट के बाद पूरे देश में हंगामा मच गया। विपक्षी पार्टियों, मानवाधिकार संगठनों और इंसाफपसंदों ने तत्कालीन केन्द्र सरकार से इन मामलों की जांच और दोषियों को सजा दिलाने की मांग की। साल 2013 में खुद सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर फर्जी मुठभेड़ मामलों की जांच के लिए जस्टिस संतोष हेगड़े की अगुवाई में तीन जजों की एक समिति का गठन किया। हेगड़े आयोग ने उस वक्त कुल 1528 मामलों में 62 की जांच की। जांच के बाद आयोग का निष्कर्ष था कि 62 में से 15 मामले फर्जी मुठभेड़ के हैं। हेगड़े आयोग की इस रिपोर्ट के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार और सेना के प्रति अपना रवैया और भी सख्त कर लिया। अदालत खुलकर पीड़ितों के पक्ष में आ गई। अदालत ने इन मामलों में से 95 फर्जी मुठभेडों की़ सीबीआई जांच के आदेश दे दिए।

सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में अभी तलक जो भी आदेश दिए हैं, वे पीड़ितों को इंसाफ दिलाने और मानवाधिकारों के हक में हैं। अदालत ने अपने इन आदेशों में बार-बार यह स्पष्ट किया है कि ‘‘सरकार और सेना, सैन्य कार्यवाही का बहाना लेकर नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन नहीं कर सकती। लोकतंत्र में उनकी भी जनता के प्रति जवाबदेही बनती है। वे कोई भी बहाना बनाकर या झूठी दलीलों का सहारा लेकर अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते।’’ फर्जी मुठभेड़ों में बेगुनाह लोगों को मार देना, सबसे बड़ा अपराध है। पुलिस हो, सरकार हो या फिर सेना, लोकतंत्र में जवाबदेही सभी की बनती है। कोई भी अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकता। कानून की नजर में सब समान हैं। बावजूद इसके सरकार, लगातार सेना का पक्ष ले रही है। यहां तक कि उसने पिछले साल शीर्ष अदालत में एक उपचारात्मक याचिका दायर कर उससे इस मामले में अपना फैसला वापस लेने का भी अनुरोध किया। लेकिन अदालत ने सरकार की याचिका खारिज कर दी। बंद कमरे में हुई अदालती कार्यवाही में पीठ ने पहले उपचारात्मक याचिका और उससे संबंधित दस्तावेजों पर अच्छी तरह से गौर किया और फिर उसके बाद इस मामले में दिए गये अपने पिछले आदेश को साफ दोहराते हुए कहा, ‘‘सेना का इस्तेमाल सिविल प्रशासन की मदद के लिए किया जा सकता है, लेकिन यह अनिश्चितकाल तक नहीं चल सकता। अगर हमारे सैन्य बलों को सिर्फ संदेह या आरोप के आधार पर अपने देश के नागरिकों को मारने के लिए तैनात किया गया है और भर्ती किया गया है, तो न सिर्फ कानून का राज बल्कि लोकतंत्र खतरे में है।’’ जाहिर है कि सर्वोच्च न्यायालय गैर-न्यायिक हत्याओं और फर्जी मुठभेड़ों के मामले में पहले भी मानवाधिकारों और पीड़ितों को इंसाफ दिलवाने के हक में थी और आज भी है। सरकार और सेना के इतने दवाब के बाद भी अदालत के नजरिए में कोई बदलाव नहीं आया है। वह चाहती है कि इस मामले में जल्द ही पीड़ितों को इंसाफ और दोषियों को सजा मिले। यही वजह है कि अदालत ने अपने हालिया आदेश में सीबीआई से इन मामलों की जांच में तेजी लाने को कहा है। ताकि न्याय और भी ज्यादा विलंबित न हो।