अनु.जातियों/जनजातियों की समानुपातिक भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से संविधान में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ी अनु.जातियों/जनजातियों को शिक्षा, रोजगार और राजनैतिक आरक्षण का प्रावधान किया गया ।

जिसके तहत लोकसभा, विधान सभाओं और स्थानीय निकायों में अनुसूचित जाति/जनजाति के प्रतिनिधित्व को आरक्षित किया गया । सवाल यह उठता है कि क्या सभी अनुसूचितजाति/जनजातियों को राजनैतिक आरक्षण में समानुपातिक प्रीतिनिधित्व मिल रहा है ? या आरक्षण का लाभ कुछ ही जातियों तक सिमटकर रह गया है? राजनैतिक आरक्षण मे शुरू से अबतक लोक सभा या विधान सभाओं में अनुसूचित जाति/जनजाति के प्रतिनिधित्व से ऐसा प्रतीत होता है कि राजनैतिक आरक्षण, अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए नही बल्कि “व्यक्ति विशेष”, “जाति विशेष” या “परिवार विशेष” के लिए है। मानो आरक्षित सीटें कुछ व्यक्तियों , परिवारों और जातियों को आबंटित कर दी गई हैं। बारंबार वही एक व्यक्ति, वही एक जाति और वही एक परिवार संसद या विधान सभा में चुन कर जाता है जो कि आरक्षण की समानुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था के खिलाफ है।

राजनैतिक आराक्षण के लाभ से आरक्षित सीटों से चुने जाने वाले अनुसूचित जाति/जनजाति प्रतिनिधयों का दायित्व लोक सभा एवं विधान सभाओं में अनुसूचित जाति/जनजाति के अधिकारों की रक्षा का प्रहरी होना था। लेकिन इनके प्रतिनिधियों द्वारा इनके -अधिकारों की अनदेखी की जिससे अनुसूचित जाति/जनजाति अधिकारों का ह्रास होता रहा , अत्याचार और शोषण बढ़ता रहा। बावजूद इसके अनुसूचित जाति/जनजाति का प्रतिनिधित्व करने वाले संसद और विधान सभाओं में मूक दर्शक बने रहे। हकीकत यह है ये अनुसूचित जाति/जनजाति के प्रतिनिधि न होकर, अपने राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि बनकर रह गए है और अनुसूचित जाति/जनजाति के प्रतिनिधित्व के नाम पर राजनैतिक आरक्षण मज़ाक बन कर रहा गया है।

अनुसूचित जाति/जनजाति के तथाकथित आंबेडकरवादी मनुवाद और ब्राहमणवाद को कोसते हैं, जाति का नाश चाहते हैं, समानता और भाईचारा चाहते हैं। बावजूद इसके अनुसूचित जाति/जनजातियां खुद अपनी जातियों से बड़ी सिद्दत से चिपकी है और जाति की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। बात-बात पर संविधान की दुहाई देने वाले तथाकथित आंबेडकरवादी सामाजिक ऊंच नीच की भावना से ग्रस्त और अपनी-अपनी जातियों तक सीमित हैं। रात-दिन जय भीम और आंबेडकर तो चिल्लाते है मगर डा. आंबेडकर का जाति-उन्मूलन का विचार उन्हें छू तक नही गया है।

आरक्षित सीटों से संसद एवं विधान सभाओं मेँ पहुँचने वाले सामाजिक न्याय के कर्णधारों ने कभी भी मैला ढोने जैसे अमानवीय प्रथा के खिलाफ संसद और विधान सभाओं मेँ मुखर होकर आवाज नही उठाई। अगर आज देश में सफाई पेशा जातियों के हालात बंधुआ मजदूरों जैसे हैं इसके जिम्मेदार यही तथाकथित अनुसूचित जाति/जनजाति के प्रतिनिधि ही हैं। सफाई पेशा जातियों के साथ-साथ ऐसी कई दलित जातियाँ हैं जो आज तक अपने राजनैतिक प्रतिनिधित्व की बाट ज़ोह रही हैं। क्या ये लोग पीढ़ी दर पीढ़ी मैला ही साफ करते रहेंगे? दुनिया के किसी भी तरह के विकास या सम्मान का काम पाने या राजनीति या शासन-प्रशासन में भागीदारी करने का इन्हें कोई अधिकार नही? राजनैतिक दलों द्वारा इनकी अनदेखी सामाजिक न्याय और समान भागीदारी पर एक प्रश्न है।

राजनैतिक दलों की बेरुखी का आलम ये है कि कोई भी दल मैला ढोने से मुक्ति को राजनैतिक मुद्दा नही बना पाया और न ही किसी दल ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में इसे शामिल करने की जहमत उठाई। दलित प्रतिनिधित्व के नाम पर आरक्षित सीटों से संसद एवं विधान सभाओं में पहुंचने वालों ने मैला ढोने जैसे कलंकित और अमानवीय कार्य को समाप्त करने हेतु कोई आंदोलन या जमीनी स्तर पर लड़ाई नही लड़ी। दलितों विशेषकर सफाई पेशा जातियों के अधिकारों की रक्षा मे आरक्षण असफल रहा है।

डा. आंबेडकर और गांधी जी के बीच 1932 मे हुए पूना पैकट में “पृथक निर्वाचन मण्डल” के स्थान पर वर्तमान में जारी "संयुक्त निर्वाचन प्रणाली " आरक्षण के उद्देश्य को पूरा करने में पूरी तरह विफल सिद्ध हुई है। आरक्षण के बावजूद दलितों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति बद से बदतर हुई है। अत्याचार और शोषण मे बढ़ोतरी हुई है। दो जून की रोटी को तरसते, भूखे -नंगे दलितों की चमड़ी उधेड़ी जा रही है, उन्हें मारा जा रहा है, दलित महिलाओं के बलात्कार हो रहे हैं, दलित महिलाएं मैला ढो रही हैं, दलित गटर में मर रहे हैं, इन्हें जिंदा जलाया जा रहा है, करोड़ों दलित बच्चे स्कूलों से महरूम हैं बावजूद इसके स्वयंभू दलित प्रतिनिधि/नेता ऐशों-आराम की ज़िंदगी जी रहे हैं 68 वर्ष से जारी "संयुक्त निर्वाचन प्रणाली " की विफलता के बाद , डा. आंबेडकर के "पृथक निर्वाचन मण्डल" को भी परख लिया जाये।

डा. आंबेडकर ने ताज और तलवार के शासन को मिटाकर, संवैधानिक संसदीय लोकतन्त्र की स्थापना की थी बावजूद इसके स्वयंभू दलित नेताओं को मंचों पर सोने-चांदी और हीरे जवाहरात के ताज पहनते और तलवार लहराते सबने देखा है। और आरक्षण से लाभान्वित तथाकथित दलित प्रतिनिधि अकूत धन-दौलत के मालिक हो गए हैं और नए राजघराने बनकर उभर रहे हैं। इनके समक्ष गरीब दलित अपनी पीड़ा तक कहने की भी जुर्रत नही कर पाते हैं । बावजूद इसके ये दलितों के स्वयंभू मसीहा बने हुए हैं।

आजादी से लेकर अब तक दलित प्रतिनिधियों के कार्यशैली और कार्यनिष्पादन को देखते हुए लोक सभा एवं विधान सभाओं की आरक्षित सीटों पर सभी दलित जातियों के समान प्रतिनिधित्व हेतु “कास्ट रोटेशन पॉलिसी” का प्रावधान किया जाये। इसके तहत लोकसभा और विधान सभा की आरक्षित सीट को किसी एक जाति के लिए एक बार या अधिकतम दो बार आरक्षित करने का कानून बने। आरक्षित सीटों पर किसी एक जाति की पुनरावृत्ति पर रोक लगाई जाये। सुरक्षित सीटों पर सभी दलित जातियों को बारी-बारी से प्रत्याशी बनाया जाना चाहिए। इससे राजनैतिक आरक्षण का लाभ सभी दलित जातियों को समान रूप से मिल सकेगा। इसी तर्ज पर संवैधानिक समितियों एवं आयोगों में भी “कास्ट रोटेशन पॉलिसी” को लागू किया जाना उचित होगा। “इससे डा. आंबेडकर का सामाजिक न्याय का सपना भी पूरा होगा।

संविधान के अनुच्छेद 341(2) में प्रावधान है कि संसद, विधि द्वारा, किसी जाति को अनुसूचित जातियों की सूची में सम्मिलित कर सकेगी या उसमें से बाहर कर सकेगी । संविधान में आरक्षण का आधार सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ापन है इसी को आधार बनाकर सरकार सभी अनु.जाति/जनजातियों के सामाजिक और शैक्षणिक स्तर का सर्वेक्षण कराये और देखे कि 68 वर्ष के आरक्षण से किस-किस जाति को आरक्षण का कितना लाभ मिला है। और जो जातियाँ आरक्षण के लाभ से सामाजिक और शैक्षणिक रूप से सम्पन्न हो गई है और जिन्हौने संविधान में प्रदत्त आरक्षण के उद्देश्य को पूरा कर लिया है उन जातियों को अनु.जाति/जनजाति की सूची से बाहर करने की प्रक्रिया आरंभ की जानी चाहिए। यदि कोई भी जाति संविधान के उद्देश्य को प्राप्त नही कर पायी है तो आरक्षण को प्रभावशाली रूप से लागू करने की आवश्यकता है।

डा. अंबेडकर ने कहा था कि कि लोकतन्त्र हमेशा शोषित और विकास के अंतिम पायदान पर खड़े व्यकित के पक्ष में जाता है। और वर्तमान भारत में सफाई पेशा जातियाँ सबसे शोषित और विकास के अंतिम पायदान पर खड़ी हैं। इनके अधिकारों की रक्षा करने वाला कोई नही। बाबा साहब ड़ा. भीम राव अंबेडकर के विचार को आत्मसात करते हुए आज सफाई पेशा जातियों मे भी पढे-लिखे, उच्च शिक्षित लोग मौजूद हैं सामाजिक और राजनैतिक समझ भी रखते हैं लेकिन वर्तमान राजनैतिक आरक्षण व्यवस्था में आरक्षण के लाभ से वंचित है।

संसद और विधान सभाओं में दलित प्रतिनिधियों द्वारा अपने दायित्व का ईमानदारी से निर्वाह न कर पाने के लिए देश से विशेषकर दलितों से माफी मांगनी चाहिए। और राजनीति मे उपेक्षित दलित जातियों को अवसर देते हुए भविष्य में आरक्षित सीटों से अपने को दूर कर लेना चाहिए। वर्तमान राजनैतिक आरक्षण नीति की विफलता को देखते हुए “कास्ट रोटेशन पॉलिसी” जरूरी है। और राजनैतिक आरक्षण पर कुंडली माकर कर बैठी जातियों और व्यक्तियों एकाधिकारवाद का खात्मा भी जरूरी है। “जाति फेरबदल नीति” सामाजिक न्याय की अवधारणा में एक मील का पत्थर साबित होगी।