संसद के मानसून सत्र की तारीख जैसे – जैसे निकट आती जा रही है, भाजपा सरकार द्वारा प्रस्तावित नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 के खिलाफ पूर्वोत्तर राज्यों में विरोध बढ़ता ही जा रहा है.

प्रस्तावित संशोधन में नागरिकता पाने की शर्तों में बदलाव कर 31 दिसम्बर, 2014 को या उससे पहले अफ़ग़ानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भारत आने वाले हिन्दुओं, बौद्धों, ईसाईयों, जैन, पारसियों और सिखों के लिए भारत में निवास करने की आवश्यक अवधि को घटाकर छह वर्ष करने का प्रावधान है.

इस विधेयक के खिलाफ पूर्वोत्तर क्षेत्र में अरसे से विरोध सुलग रहा है. स्थानीय देशी समुदायों की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करने वाले विभिन्न सिविल सोसाइटी संगठनों को आशंका है कि प्रस्तावित संशोधन से पूर्वोत्तर राज्यों में बांग्लादेश से भारी तादाद में बंगला – भाषी हिन्दुओं के आने का रास्ता खुल जायेगा जिसकी वजह से यहां जनसांख्यिकीय बदलाव आयेगा और देशी आबादी खतरे में पड़ जायेगी.

यहां तक कि मिज़ोरम और मेघालय की राज्य सरकारों, जिसमें नेशनल पीपुल्स पार्टी के सहयोगी दल के तौर पर भाजपा भी शामिल है, ने प्रस्तावित विधेयक के विरोध में प्रस्ताव पारित कराया है.

इस साल मई में, नार्थ – ईस्ट स्टूडेंट्स आर्गेनाईजेशन के बैनर तले विभिन्न छात्र संगठनों ने समूचे पूर्वोत्तर क्षेत्र में प्रस्तावित विधेयक के खिलाफ व्यापक विरोध प्रदर्शन किया था.

इन प्रदर्शनों से पहले, भाजपा सांसद राजेंद्र अग्रवाल के नेतृत्व में एक संयुक्त संसदीय समिति ने असम और मेघालय में इस विधेयक के बारे में जन – सुनवाई कर विभिन्न संगठनों के साथ इस मुद्दे पर चर्चा की थी.

अब जबकि 18 जुलाई से संसद का मानसून सत्र शुरू होने वाला है, पूर्वोत्तर क्षेत्र के सात राज्यों के विभिन्न सिविल सोसाइटी संगठनों के प्रतिनिधि इस विधेयक के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के लिए नागालैंड के दीमापुर में 14 जुलाई को इकठ्ठा हुए.

प्रतिबंधित यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ असम (उल्फा) के सहयोगी संस्थापक रहे और फ़िलहाल संगठन के ‘प्रगतिशील’ (संवाद समर्थक) गुट के महासचिव अनूप चेतिया ने प्रस्तावित संशोधन की वजह से असम में पड़ने जनसांख्यिकीय दुष्प्रभावों के बारे में चेताया.

नगा पीपुल्स मूवमेंट फॉर ह्यूमन राइट्स (एनपीएमएचआर) की ओर से आयोजित ‘नागरिकता संशोधन विधेयक, 2016 के खिलाफ मानवाधिकार एवं सिविल सोसाइटी संगठनों के सम्मेलन’ में समूचे पूर्वोत्तर क्षेत्र से जुटे प्रतिनिधियों ने प्रस्तावित संशोधनों के खिलाफ अपनी आपत्तियां और आशंकाएं जाहिर की.

अनूप चेतिया, जिनका असली नाम गोलप बरुआ है, इस सम्मेलन में विभिन्न देशी समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले 30 संगठनों के एक संयुक्त मंच – असम स्टेट यूनिट्स इन्डीजीनस फोरम – के नेता के तौर पर उपस्थित थे.

इस भूतपूर्व सशस्त्र विद्रोही नेता ने, जिसने बांग्लादेश के जेलों में लंबा अरसा बिताया और जिसे नवम्बर, 2015 में भारत को प्रत्यर्पित किया गया, कहा कि असम के मुख्यमंत्री सर्वानन्द सोनोवाल, जो खुद एक छात्र नेता रहे हैं, ने असम के हितों की परवाह करने के बजाय अपनी प्रतिबद्धता केंद्र की भाजपा सरकार को समर्पित कर दी है.

उन्होंने भाजपा और कांग्रेस पर “एक ही बोतल का पानी” होने का आरोप भी लगाया.

चेतिया की “चिंताओं” में से एक बात यह भी थी कि त्रिपुरा के उलट, जहां बंगला – भाषी आबादी के बरक्स स्वदेशी जनजातीय आबादी पहले से ही अल्पसंख्यक हो गये हैं, असम के पास सीमित भूमि – अधिकार संरक्षण है. इसमें कर्बी आंगलोंग और दिमा हसाओ जिले अपवाद हैं, जो कि संविधान की छठवीं अनुसूची द्वारा संरक्षित हैं. उन्होंने यह भी दावा किया कि बोडोलैंड टेरीटोरियल एरिया के जिलों में, देशी बोडो आदिवासियों को "भारत और बांग्लादेश के बाहरी लोगों" द्वारा हाशिए पर रखा गया है.

त्रिपुरा पीपुल्स फ्रंट (टीपीएफ) की संस्थापक अध्यक्ष पटल कन्या जमातिया ने सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि बांग्लादेशी आप्रवासियों की घुसपैठ ने देशी जनजातीय समूहों को हाशिए पर धकेल दिया है.

उन्होंने कहा, “देशी लोगों को दबाया जा रहा है और भारत सरकार हमारी मदद नहीं कर रही.” उन्होंने आगे जोड़ा कि “आर्यीकरण” की प्रक्रिया ने देशी जनजातीय लोगों को अपनी ही पुश्तैनी जमीन पर अल्पसंख्यक बनाकर उनके अपने अधिकारों से महरूम कर दिया है.

जमातिया ने पूर्वोत्तर क्षेत्र के विभिन्न राज्यों के बीच “बेहद कमजोर” आपसी एकता पर चिंता जाहिर करते हुए कहा कि सभी राज्यों का एकजुट होकर सामूहिक रूप से विरोध करना जरुरी है.

सम्मेलन में इस बात को भी रेखांकित किया गया कि जहां पूर्वोत्तर क्षेत्र के अन्य राज्य अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों से जूझ रहे हैं, वहीँ अरुणाचल प्रदेश में बांग्लादेश से आये चकमा और हाजोंग शरणार्थियों की बस्तियों का निर्माण भारत सरकार के आदेश के तहत हुआ है.

अरुणाचल प्रदेश के विभिन्न दबाव समूहों ने यह आशंका जाहिर की है कि प्रस्तावित संशोधन विधेयक के पारित होने पर बौद्ध धर्म को मानने वाले चकमाओं और हिन्दू हाजोंग समुदाय के लोगों को अपने – आप नागरिकता मिल जायेगी.

यो तो राज्य सरकार का कहना है कि ऐसा कुछ नहीं होगा क्योंकि अरुणाचल प्रदेश बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन, 1873 के तहत संरक्षित है, लेकिन इसके कार्यान्वन को लेकर अभी भी अस्पष्टता बनी हुई है. खासकर, सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2015 में नागरिकता का अधिकार प्रदान करने के एक आदेश को क्रियान्वित करने के लिए पिछले साल केंद्र सरकार द्वारा दी गयी अनुमति को देखते हुए इस मामले में जटिलता बरक़रार है.

एक साथ आने में दुविधा के पीछे तथ्य यह है कि मिज़ोरम और त्रिपुरा में चकमाओं की अच्छी खासी तादाद है और वहां उन्हें राज्य के अन्य जनजातीय समुदायों की तरह भूमि - अधिकार मिले हुए हैं.

बहरहाल, निष्कर्ष के रूप में सम्मेलन में यह तय किया गया कि प्रस्तावित संशोधन के खिलाफ नई दिल्ली में संयुक्त रूप से एक जबरदस्त विरोध प्रदर्शन किया जाये.