यह इलाका जमात – ए – इस्लामी, जोकि एक सामाजिक – राजनीतिक एवं धार्मिक समूह है और जिसे गृह मंत्रालय ने हाल में प्रतिबंधित कर दिया है, का गढ़ माना जाता है. इस जिले में वामपंथी नेता युसूफ तरिगामी का अच्छा – खासा जनाधार माना जाता है. साथ ही, पिछले कुछ सालों में यह जगह कश्मीर में नये सिरे से उभरे दहशतगर्दी के केंद्र तौर पर भी सामने आया है.

कुलगाम चार विधानसभा क्षेत्रों – नूराबाद, होमशालिबाग, देवसर और कुलगाम – में बंटा हुआ है. बीते 29 अप्रैल को इस संवेदनशील जिले में सिर्फ 10 प्रतिशत मतदान हुआ.

जम्मू – कश्मीर की ग्रीष्मकालीन राजधानी श्रीनगर से 80 किलोमीटर दूर स्थित देवसर में, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के अधेड़ उम्र के एक पारंपरिक समर्थक ने इस बार मतदान के बहिष्कार के अपने निर्णय को सही ठहराने के लिए अल्लाह के नाम का सहारा लिया.

उन्होंने बताया, “कुलगाम सीपीआई (एम) का एक मजबूत गढ़ था. मैं खुद पार्टी का एक परंपरागत मतदाता था. लेकिन जुलाई 2016 से हम अपने 16 साल के बच्चों को दफनाते आ रहे हैं. इन हालातों में, हम कैसे वोट दे सकते हैं? कयामत के दिन हम अल्लाह को क्या जवाब देंगे?”

उन्होंने कुलगाम के पूर्व विधायक युसूफ तरिगामी की तारीफ तो की, लेकिन यह भी स्वीकार किया कि उनके भीतर पिछले तीन सालों में, खासकर 2015 की शुरुआत में पीडीपी द्वारा भाजपा के साथ गठबंधन किये जाने के बाद, जबरदस्त बदलाव आये हैं.

निकटवर्ती तुलिनोपोरा, जोकि जमात – ए – इस्लामी का एक मजबूत गढ़ समझा जाता है, में 57 वर्षीय ग़ुलाम अहमद वागाय ने शिकायती लहजे में कहा कि “विधायकगण आम आदमी की भलाई को तवज्जो नहीं देते.”

अतीत में नेशनल कांफ्रेंस के समर्थक रहे श्री वागाय ने 29 अप्रैल को अपना वोट नहीं डाला.

उन्होंने कहा, “हां, पहले के चुनावों में मैं नेशनल कांफ्रेंस को वोट डालता रहा हूं. लेकिन अब नहीं. किसी को भी लोगों के कल्याण से मतलब नहीं है. न तो विकास हुआ है, और न ही रोजगार है. कुछ अगर है, तो सिर्फ खूनखराबा.”

एक पीढ़ी का अंतर साफ़ है.

बुजुर्ग लोग अभी भी “बिजली, सड़क और पानी” के लिए अभी भी आगामी विधानसभा चुनाव में मतदान को एक विकल्प के तौर पर देखते हैं. लेकिन कश्मीरी युवा बेधड़क होकर सभी चुनावों के बहिष्कार की बात करते हैं.

होमशालिबाग के 45 वर्षीय शबीर अहमद कहते हैं, “हम कश्मीर विवाद का हल चाहते हैं. इस विवाद के हल होने तक मैं अपना वोट नहीं डालूँगा.”

एक अन्य 20 वर्षीय युवक ने कहा, “मैंने चुनावों का बहिष्कार किया है. और इसकी वजह आप जानते हैं. आपको पता है कि कश्मीर में क्या हो रहा है. हमारे सैकड़ों भाई गोलियों के शिकार हुए हैं. कईयों की आंखें चली गयी हैं. हर रोज कश्मीरियों के मानवाधिकारों का हनन होता है.”

रेडवानी और खुद्वानी जैसे इलाकों में, जहां कुछ स्थानीय हथियारबंद लोग अभी भी सक्रिय हैं, युवाओं के कई समूह हाथो में लाठी और पत्थर लिए मीडिया के लोगों समेत सभी राहगीरों के हाथो में लगी चुनावी स्याही की जांच कर रहे थे.

अपना चेहरा छुपाये युवाओं की छोटी टोलियां सेना और स्थानीय पुलिसकर्मियों समेत सरकारी बलों से छापामार तरीके से जूझ रही थीं.

सडकों पर अराजकता पसरी हुई थी. कई गलियां बिल्कुल सुनसान थीं, तो कुछ गलियों में सशस्त्र बलों के जवानों या अपने हाथों में पत्थर लिए युवाओं का कब्ज़ा था.

कुलगाम शहर का प्रसिद्ध घंटाघर का इलाका लड़ाई के मैदान जैसा बना हुआ था. सभी दुकानें बंद थी और मुख्य सड़क पर एक भी आम आदमी नहीं था. गलियों में हथियारों से लैस अर्द्धसैनिक बल के जवानों का पहरा था.

बिहार से ताल्लुक रखने वाले केन्द्रीय रिज़र्व पुलिस बल के एक जवान ने कहा, “यहां वोट डालने में किसी की रूचि नहीं दिखायी पड़ती. यह वाकई हैरतअंगेज है.”

कुलगाम जिले में मतदान सुबह सात बजे शुरू हुए और दोपहर एक बजे तक होमशालिबाग और कुलगाम में एक प्रतिशत से भी कम वोट डाले गये थे.

शाम चार बजे, चुनाव अधिकारियों ने सभी चार विधानसभा क्षेत्रों में 10.3 प्रतिशत मतदान होने की जानकारी दी. कुलगाम के मुख्य शहर में मात्र 1.5 प्रतिशत मतदान हुआ और पड़ोसी होमशालिबाग में महज 0.9 प्रतिशत ही वोट डाले गये.

राज्य के मुख्य चुनाव अधिकारी शैलेन्द्र कुमार ने श्रीनगर में बताया, “जिले में कुल मतदान 10.3 प्रतिशत दर्ज किया गया. सबसे अधिक मतदान नूरबाद विधानसभा क्षेत्र में 20.58% दर्ज किया गया. वहां कुल 3.5 लाख मतदाताओं में से 35,524 मतदाताओं ने मतदान में हिस्सा लिया.”

जुलाई 2016 से, खासकर युवा हिज्बुल कमांडर बुरहान वानी की मौत के बाद, कुलगाम आतंकवाद और आतंकवाद विरोधी अभियानों का केंद्र रहा है.