असमां जहांगीर नहीं रहीं. अचानक, लगभग हतप्रभ कर देने वाली, मौत (दिल का दौरा) ने उन्हें हमसे ऐसे समय छीन लिया जब इस क्षेत्र को उनकी सबसे ज्यादा जरुरत थी. जब युद्ध का उन्माद चरम पर हो और भारत और पाकिस्तान के बीच नफ़रत की भाषा हावी हो, दर्जनों की संख्या में आम नागरिक और सैनिक मारे जा रहे हों, असमां की आवाज़ शांति के प्रति दृढ़ और अटल थी. उन्हें न तो कोई खरीद सकता था, न ही कोई सरकार लुभा सकती थी. शांति के अपने मिशन में वो सबके लिए उदहारण और प्रेरणास्रोत थीं.

असमां पाकिस्तान की सैन्य सरकारों की एक मजबूत आलोचक के रूप में उभरी थीं. उन्होंने मेरी इस समझ के लिए अक्सर मुझे झिड़का था कि गैर – असैनिक सरकारें बेहतर काम कर सकती हैं. उनका कहना था, “हमें लोकतंत्र चाहिए. हमें मालूम है कि वो कमजोर है. हमारी चाहत है कि वो मजबूत हो और यह सेना की वर्दी तले मुमकिन नहीं.” लाहौर स्थित उनके घर पर उनसे हमारी रात – रात भर लंबी बहसें चली हैं. हमने भारत और पाकिस्तान के बीच के मतभेदों के बारे में आपस में तकरीरें की और दोनों देशों के बीच की समानताओं को एक जैसी राहत महसूस की.

वो नई दिल्ली के हुक्मरानों पर हंसती थी, जो बाहें फैलाकर उनका स्वागत करते थे. यह आलिंगन इस्लामाबाद की सरकार की उनकी आलोचना के सीधे अनुपात में था. एक समय था जब वो भारतीय विदेश मंत्रालय की चहेती हुआ करती थीं, जो उनकी आगवानी में लाल कालीन बिछाये रहता था ताकि वो भारत में घूम – घूमकर पाकिस्तान में सैन्य शासन, जिसकी उन्होंने लगातार मुखालफ़त की, की आलोचना कर सकें. इस बारे में इशारा किये जाने पर वो कहतीं, “ मैं जानती हूं कि तुम्हें लगता है कि मुझे इसका इल्हाम नहीं. वैसे यह सही भी है. हमें इस्लामाबाद में एक असैनिक सरकार चाहिए.”

कई लोगों की तरह असमां को भी अपने देश में सैन्य सरकार की मुखालफ़त करने के लिए काफी कुछ भुगतना पड़ा. अपने परिवार को लेकर वो चिंतित रहती थी और इस बात के लिए प्रतिबद्ध थी कि उनके करीबी लोग पाकिस्तान से बाहर अपनी ज़िन्दगी बसर करें. उन्हें अपने वतन से बेहद मुहब्बत थी और इस बारे में बिल्कुल साफ़ थीं कि वो वतन छोड़कर नहीं जायेंगी. लेकिन अपने साथ जुड़े लोगों की सुरक्षा को लेकर डरी रहती थी. उनका कहना था कि वो गोली खाने को तैयार हैं, लेकिन अपने चहेतों के साथ किसी अनहोनी को बर्दाश्त करना उनके लिए मुश्किल होगा. वो गर्व और भय के जद्दोजहद से गुजरीं जब उनकी बच्ची ने पत्रकारिता के पेशे में कदम रखा. उन्हें मालूम था कि पाकिस्तान में राज्य के कहर ने कईयों की ज़िंदगी उलट – पुलट कर दी. यक़ीनन भारत में भी ऐसा हुआ है.

यह सही है कि असमां ने कई अवार्ड हासिल किये. दुनिया भर के अमनपसंद लोगों ने उनकी वाहवाही की. वो एक नामचीन हस्ती थी. लेकिन उनके दोनों पांव जमीन पर मजबूती से जमे थे. दुश्वारियों और शोहरत, दोनों स्थितियों में उनकी मुस्कराहट एक जैसी रहती थी. उनके जेहन में यह बात साफ़ थी कि उनका जीवन ड्राइंगरूम तक सिमट जाने भर के लिए नहीं, बल्कि बाहर जाकर मैदान में अनुभव हासिल करने के लिए है. अपने ऊपर हुए हमलों के बावजूद मैदान में वो अपनी आवाज़ बुलंद करने से नहीं हिचकिचाती थीं. धमकियों से बेपरवाह वो सेना और कट्टरपंथियों, दोनों, से एक साथ भिड़ी रहीं. उनके लिए दोनों दुश्मन थे और एक मजबूत और लोकतांत्रिक पाकिस्तान के लिए इन दोनों से जूझना जरुरी था.

मेरी उनसे बात हुई थी, लेकिन भारत में बदलती परिस्थितियों और लोकतंत्र पर छाए खतरों के मद्देनज़र मुलाकात न हो सकी. मुझे मालूम नहीं कि उनकी क्या प्रतिक्रिया होती. क्योंकि सेना और कट्टरपंथ से दूर एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक व्यवस्था के साये में भारत द्वारा हासिल की गयी प्रगति की वो प्रशंसक थीं. यक़ीनन उन्हें निराशा होती, लेकिन फिर भी वो हमें हालात से जूझने को कहतीं. वो इस बात को रेखांकित करतीं कि पाकिस्तान में उनके जैसे चुनिंदा लोग हैं, जबकि भारत में ऐसे कई लोग हैं जो इन स्थितियों से टकराने का माद्दा रखते हैं.

मैं यह कहने की इजाज़त चाहती हूं कि शांति के लिए असमां का मिशन भले ही जंग से खुराक पाने वालों को राजी नहीं कर सका हो, लेकिन उसने इस पूरे क्षेत्र में शांति को एक संस्थागत रूप दे दिया है. एक ऐसी जमात है जो उनकी ही भांति शांति के लिए प्रतिबद्ध और समर्पित है. यह जमात गैर – समझौतापरस्त, कभी हार न मानने वाली है. उसे उम्मीद है कि जल्द ही जंग के इरादों से पार पाते हुए और तमाम अराजकताओं को धता बताते हुए शांति स्थापित होगी.

अपनी छोटी कद-काठी, सतर्क आंखों और होठों पर मुस्कराहट के साथ पूरी तन्मयता से शांति की वकालत करते हुए असमां को आज भी महसूस किया जा सकता है. निश्चित रूप से वो एक असली जांबाज़ महिला थीं, जिन्हें हमलोगों ने उनके जिंदा रहते बहुत ही हलके में लिया. और अब एक भारी क्षति महसूस कर रहे हैं.