इमरान खान की सरकार ने अपने कार्यकाल की शुरुआत एक अत्यंत नकारात्मक कदम उठा कर की है . दक्षिणपंथी पार्टियों की आलोचना और दबाव के कारण इमरान खान ने प्रधान मंत्री आर्थिक सलाहकार समिति से प्रिंसटन विश्वविद्यालय में कार्यरत जाने माने पाकिस्तानी अर्थशास्त्री प्रो: आतिफ मियाँ से त्याग पत्र ले लिया है . अपने त्याग पत्र में प्रो. मिया ने लिखा है की सरकार उलेमा और उनके अनुयायियों के दबाव में आ गई थी . स्थायित्व को बनाने रखने के लिए मैं त्याग पत्र दे रहा हूँ . ये अह्मदियां हैं . जैसा सर्वविदित है की अहमदिया सोच को पाकिस्तान के संविधान के अनुसार गैर इसलामिक करार दिया गया है.

बरेलवी मत का विरोध अभियान

डौन अखबार की खबर के अनुसार यह दक्षिण पंथी पार्टियों के व्यापक अभियान के कारण ही किया गया है.ये दक्षिण पंथी पार्टियां और कोई नहीं बल्कि व् नव उदित बरेलवी मत की अतिवादी पार्टियां हैं जैसे तहरीक लाबैक पाकिस्तान,मजलिस-तहफ्फुज़-ऐ-खात्मे नबूवत मूवमेंट ;मजलिस-ऐ अहरार इस्लाम .इन सभी समूहों ने प्रो. आतिफ मियां की आर्थिक सलाहकार समिति में नियुक्ति का भारी विरोध किया था, इन्हें अह्मदी होने के नाते गद्दार करार दिया गया और यह कहा गया की वह इस्लाम के विरोध में काम कर रहे हैं .

सत्तारूढ़ पार्टी के भीतर विरोध

लेकिन इससे भी अधिक ख़तरा यह है की आतिफ मियां को हटाने का दबाव तहरीक-ऐ- पाकिस्तान के भीतर से अधिक था . इससे एक अन्य विरोधाभास सामने उभर कर आया कि एक ऐसी पार्टी जो अपने को शिक्षित मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है, उसमें संकीर्ण कट्टर सोच विद्यमान है और प्रभावशाली भी है. तहरीक में मज़हबी तत्त्व प्रभावशाली हैं , यह इससे भी साफ है की पंजाब के सूचना मंत्री, राज्यपाल तासीर के हत्यारे मुमताज़ कादरी की कब्र पर श्रद्धांजली देने गए थे. लेकिन इनकी पार्टी ने इस विषय पर उनसे कुछ नहीं कहा .बेशक धार्मिक पार्टियां चुनावों में हार गई हो लेकिन कट्टर धार्मिकों का प्रभाव आज भी बना हुआ है .

मुख्यधारा की पार्टियों का विरोध

इसके अलावा मुख्य धारा की राजनीतिक पार्टियों ने भी सीनेट और राष्ट्र सभा में इस बारे में प्रस्ताव रखा था. ये पार्टियां है जमीअत –ऐ –इस्लाम ( फज़ल)पाकिस्तान मुसलिम लीग ( नवाज़) ,आवामी नेशनल पार्टी ( ये पार्टी सेकुलर है और स्वर्गीय वाली खान और खान अब्दुल गफ्फार खान इसी पार्टी के नेता रहे हैं .पख्तूनिस्तान मिल्ली आवामी पार्टी , पार्टी . इन पार्टियों का इस विषय को उठाना, इस बात का सूचक है की वे एक तो वर्तमान सरकार को परेशान करने का मौका चूकना नहीं चाहते हैं और दूसरा , वे भी कही न कही इस संकीर्ण सोच का शिकार हैं .

जहां तक सरकार की बात है तो आज उसे फ़ौज का समर्थन प्राप्त है . न्याय पालिका उसके विरोध में नहीं है . राजनीतिक विरोध नाम मात्र का है और प्रभावी नहीं है.इसके बावजूद सरकार यह साहस नहीं कर सकी कि वह अपनी पहले की समझ पर कायम रहे.यदि यह नहीं किया जाता तो इसके नतीजे काफी बड़े हो सकते थे . यह आम तौर पर कहा गया है लेकिन यह किसी ने साफ नहीं किया है कि इसके क्या नतीजे हो सकते थे.

अब मज़हब का इस्तेमाल इमरान के विरोध में

लेकिन आतिफ मियां के त्याग पत्र से दो अन्य अर्थशास्त्रियों ने भी इस्तीफा दे दिया है. दोनों भी विदेशों में ही कार्यरत हैं . इमरान खान की पार्टी तहरीक ऐ पाकिस्तान ,ने चुनाव से पहले अपने प्रतिद्वंदियों के खिलाफ मज़हब का प्रयोग किया था . अब बदले में यही उसके विरोध में प्रयोग किया जा रहा है. कुछ करने से पूर्व ही नयी सरकार पर हमले शुरू हो गए हैं .

क्या जिन्ना सेकुलर थे ?

इस विषय को लेकर पाकिस्तान में गंभीर चर्चा शुरू हो गयी है. अधिकाँश सेकुलर लोगों ने जिन्ना को याद किया है और उसे सेकुलर माना है . डौन के सम्पादकीय का शीर्षक है ‘जिन्ना का पाकिस्तान ?’इसके अनुसार पकिस्तान के संस्थापक जिन्ना ने एक प्रगतिशील और समावेशी पाकिस्तान की कल्पना की थी . लेकिन हम कैसे उस रास्ते पर वापस जा सकेंगे यह बिलकुल भी साफ नहीं है .’अंत में सम्पादकीय कहता है की देश के नेताओं को शीघ्र ही कोई रास्ता तलाश करना होगा जिसकी मार्फत हम जिन्ना के बताये मार्ग पर वापस जा सके .

पाकिस्तान में एक अरसे से वैचारिक संघर्ष चल रहा है .इस संघर्ष में एक और सेकुलर, उदारवादी और प्रगति. शील , लोकतांत्रिक विचारों के लोग हैं और दूसरी ओर धार्मिक , अति धार्मिक और हथियार बंद दस्ते हैं . इनका फ़ौज में भी बड़ा समर्थन है . इनका प्रभाव इतना है की बरेलवी और देव्बन्दी जमातों के समक्ष अधिकाँश राजनीतिक दल खड़े नहीं होते हैं और वे अपने राजनीतिक स्वार्थों की सेवा के लिए तत्पर रहते हैं.

11अगस्त 1947 का भाषण

इस संघर्ष में सेकुलर पक्ष ने जिन्ना को अपना आदर्श बनाया है वे इस बात को हर बार दोहराते हैं कि पाकिस्तान को जिन्ना के बताये रास्ते पर चलने की ज़रुरत है. इस तबके ने और कई अन्यों ने भी जिन्ना को सेकुलर केवल एक बयान के आधार पर घोषित कर दिया है और यह बयान 11अगस्त 1947 को दिया गया था .

पाकिस्तान की संविधानिक सभा में दिए भाषण में जिन्ना ने कहा था , ‘आप स्वतंत्र हैं ; आप स्वतंत्र हैं अपने मंदिरों में , अपनी मस्जिदों में जाने के लिए और किसी भी पूजा स्थल में, इस पाकिस्तान राज्य में जाने के लिए ;आप किसी भी धर्मं , जाति और पंथ के हो सकते हैं; लेकिन इसका राज्य से कोई लेना देना नहीं है.....हम ऐसे समय में शुरू कर रहे हैं जहां कोई भेदभाव नहीं है , एक और दुसरे समुदाय में कोई अन्तर , किसी भी जाति और पंथ में नहीं है. हा, लोग इस बुनियादी सिद्धांत से शुरू कर रहे हैं कि हम सब नागरिक हैं और एक राज्य के बराबर के (ही) नागरिक हैं......इसे अपने सम्मुख अपने आदर्श के तौर पर रखेंगे और आप देखंगे की समय बीतने के साथ ही हिन्दू हिन्दू नहीं रह जायंगे और मुस्लिम मुस्लिम नहीं रह जायंगे , धार्मिक मायने में नहीं क्योंकि वह तो एक व्यक्तिगत मामला है , लेकिन राजनीतिक लिहाज़ से राज्य के नागरिक के बतौर.”

यह भाषण क्यों दिया गया , इस पर कई प्रकार के विचार हो सकते हैं यह एक आसन्न जीत की खुशी के लिए भी हो सकता है , अथवा यह इस बात का सूचक है कि मुस्लिम लीग के समक्ष दुसरे प्रकार की चुनौतियां थी . कुछ लोगों ने यह भी लिखा है की चूंकी अधिकांश व्यवसाय हिन्दुओं के हाथ में था और उनके जाने से इसे हानि होती इसलिए जिन्ना ने यह बयान देकर इसे रोकने की कोशिश की थी. जो हो ऊपर दिया विचार जिन्ना के अथवा लीग के समूचे विचार नहीं थे..

ऑस्ट्रेलिया में कार्यरत भारतीय विद्वान् अजय रैना ने अपने लेख ‘ डेमोक्रट्स एंड माइनॉरिटीज’में इस पर प्रकाश डाला है और नीचे दिए अधिकांश उद्धरण इसी लेख से लिए गए हैं. यह जिन्ना का एक मात्र मत नहीं था . समय और स्थान के स्थान उनकी अलग अलग विचार भी सामने आते गए . पारसियों के एक शिष्टमंडल को उन्होंने 3 फ़रवरी 1947 को आश्वस्त किया की पाकिस्तान अपने इस बार बार किये वायदे पर खड़ा है की वह अपने सभी नागरिकों को , चाहे वे किसी भी जात या पंथ के हो, के साथ बराबरी का व्यवहार करेगा.”.

जिन्ना का बदलता रुख.

लेकिन जून 1948 आते आते यह स्वर बदल गया था . एक पारसी शिष्टमंडल से जून 1948 में बातचीत में जिन्ना ने यह दोहराया कि अन्य अल्पमत के समूहों की तरह उन्हें भी बराबरी का नागरिक माना जायगा और आपको सभी को अधिकार और जिम्मेवारियां प्राप्त होंगी जब तक आप पाकिस्तान के प्रति वफादार रहते हैं . अल्पमत के समूहों को न केवल शब्दों से, बल्कि अपने कृत्यों से भी यह दिखाना होगा कि वास्तव में वह वफादार हैं और उनको चाहिए कि बहुमत समुदाय भी यह महसूस करे कि वे सही में पाकिस्तान के वफादार हैं और वे पाकिस्तान के सच्चे नागरिक हैं.’

अत: राजनीतिक बराबरी सशर्त है , स्वाभाविक अधिकार नहीं. पाकिस्तान आन्दोलन के दौरान जिन्ना ने यह भी साफ कर दिया था की इस्लाम , सार्वजनिक जीवन में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा . लीग के नेताओं ने मुसलमान आवाम के समक्ष पाकिस्तान को हमेशा एक इस्लामिक राज्य के रूप में रखा. स्थानीय लोगों को उर्दू अथवा बंगाली में संगठित किया गया और पश्चिमी श्रोताओं को अंग्रेजी में जहां पर जिन्ना सेकुलर बात चीत रखते थे . सत्ता में आने के बाद, बलूच सरदारों के जिरगे को सम्बोधित करते हुए जिन्ना ने उसे पाकिस्तान के नये मुस्लिम राज्य के प्राधिकार के तहत बलूचिस्तान का पहला शाही दरबार कहा. और “, ...हमारी मुक्ति इसी में हैं की हम हमारे विधि विधान को स्थापित करने वाले इस्लाम के पैगम्बर , द्वारा स्थापित जीवन यापन के नियमों का पालन करे . आइये हम अपने इस्लाम के आदर्शों और सिद्धांतों के आधार पर लोकतंत्र की बुनियाद रखे.”

इसके कुछ ही दिनों के बाद , पश्तो जिरगा को संबोधित करते हुए , जिन्ना बोले , “ हम मुसलमान एक खुदा , एक किताब – पवित्र कुरआन – और एक पैगम्बर में विश्वास करते हैं . इसलिए हम सब को एक साथ एकता करके एक राष्ट्र का निर्माण करना है ...अब इस सार्वभौमिक स्वतंत्र पाकिस्तान में एक मुसलमान सरकार और मुस्लिम राज है इसलिए हम सबको मिलकर एक साथ एक राष्ट्र के रूप में रहना है .”

उपरोक्त से साफ है की जिन्ना का ११ अगस्त के भाषण अपवाद है न की सिद्धांत पर आधारित है . उनके सिद्धांत इस भाषण के ठीक विपरीत है.

अंत में बलराज पुरी जो जिन्ना और समूचे पाकिस्तान आन्द्लन और कश्मीर में एक सक्रीय राजनेता लोकतान्त्रिक अधिकार कार्क्यार्ता के रूप में में रहे हैं, उन्होनें इस बात को कहा हैं की जिन्ना १९३७ के बाद से बदल गये . इसी प्रकार इतिहासकार अकबर . एस एहमद केअनुसार जिन्ना ने कांग्रेस के साथ ताल मेल की कोशिश उस वक्त से छोड़नी शुरू कर दी , जैसे जैसे उन्हें अपने इस्लामिक आधार का एह्सास हुआ, अपनी स्वत: पहचान को समझा, अपनी संकृति , इतिहास से वाकिफ्फ़ हुए और यह प्रवृतियां उनके जीवन के अन्तिम दिनों में उभर कर सामने आ गयी थी.

नए प्रकार से संघर्ष .

वर्तमान में इमरान खान के प्रधान मंत्रित्व काल में भी जिस प्रकार सेकुलर समाज की अवधारण भारत और दुनिया में व्याप्त है वैसा कुछ नहीं होने जा रहा है . दिन प्रति दिन और अधिक संकीर्ण मजहबी व्याख्या की अधिक संभावनाएं हैं . कोई आश्च्चर्य की बात नहीं है की एक साधारण विषय पर भी सरकार इन धार्मिक पार्टियों के सामने खडी नहीं हो सकी है. सभी राजनेता इसी सोच के दायरे में ही सोचते हैं . ऐसी दशा में सेकुलर की लड़ाई जिन्ना को सामने रखकर नहीं लड़ी जा सकती हैं . इस लड़ाई के लिए सेकुलर सोच वालों को अपने औजार बदलने होंगे.