अमेरिका में नॅशनल साइंस बोर्ड द्वारा “साइंस एंड इंजीनियरिंग इंडीकेटर्स” प्रकाशित किया जाता है, और इसके अनुसार हरेक १० में से ७ अमेरिकी विज्ञान पर भरोसा करता है, वह मानता है कि विकास में विज्ञानं का महत्वपूर्ण योगदान होता है. हमारे देश में कोई इस तरह का आंकड़ा तो नहीं है, पर इतना तो तय है कि विज्ञान पर भरोसा करने वालों की संख्या न भरोसा करने वालों से कई गुना अधिक होगी.

अधिकतर वैज्ञानिक सीधे जनता से संवाद नहीं करते और न ही मीडिया के सामने जाते हैं. अपने अनुसन्धान के बारे में वे वैज्ञानिक जर्नल्स में शोध पत्र प्रकाशित करते हैं और तभी दुनिया उनके अनुसन्धान के बारे में जान पाती है.

विज्ञान के क्षेत्र में शोधपत्रों की महत्वपूर्ण भूमिका है. इन्ही शोधपत्रों के आधार पर नए अनुसन्धान होते हैं और जो अनुसन्धान चल रहे हैं उनके लिए रिफरेन्स मिलते हैं. पर अब इन शोधपत्रों का स्तर गिर रहा हैं. कुछ वर्ष पहले तक इस क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गिने-चुने जर्नल होते थे और इनमें शोधपत्र प्रकाशित होना किसी के लिए भी गौरव की बात होती थी. विज्ञान के लिए भी यह बड़ी उपलब्धि होती थी. सामान्य तौर पर शोधपत्र प्रकाशन के लिए स्वीकृत होने से पहले एक लम्बी प्रक्रिया से गुजरता है.

ऑन-लाइन जर्नल्स के इस ज़माने में सब कुछ बदल गया है और शोधपत्रों का स्तर बहुत गिर गया है. एक वैज्ञानिक मानते हैं कि इस दौर में यह विज्ञान के लिए ही एक बड़ी चुनौती बन गया है. आज हालत यह हो गयी है कि पैसे देकर आप किसी भी स्तर का शोधपत्र वैज्ञानिक जर्नल में प्रकाशित करा सकते हैं. यही नहीं, अब तो एक ही नाम के अनेक जर्नल भी आ गए हैं, जैसे इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ अर्थ एंड एनवायर्नमेंटल साइंसेज के नाम से कई जर्नल आपको मिल जायेंगे.

इस तरीके के अधिकतर जर्नल का मुख्य केंद्र भारत और चीन है और यह किसी भी बड़े उद्योग की तरह चलाया जाता है. इसका बड़ा फायदा वैज्ञानिकों और उद्योगपतियों का वह वर्ग उठा रहा है जो जलवायु परिवर्तन के सिद्धांत का विरोधी है. इस काम में पैसा भी बहुत है. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप, जलवायु परिवर्तन के विरोधी हैं, जाहिर है उनके सत्ता में आने के बाद अनेक गैर-सरकारी संगठन शासन की कृपा पाने के लिए जलवायु परिवर्तन का विरोध अपना ध्येय बना चुके हैं,

सीओ२कोलिअशन एक ऐसा ही संगठन है जो जलवायु परिवर्तन के सिद्धांत को स्वीकार नहीं करता. यह संगठन उन वैज्ञानिकों की खोज करता है जो इस दिशा में काम कर रहे हैं और फिर उन्हें अपने शोधपत्र को जर्नल में प्रकाशित करने के लिए आर्थिक मदद भी करता है. डॉ नील्स एलेक्स मोर्नर नमक वैज्ञानिक ने इस संगठन के खर्चे पर कम से कम ६ ऑन-लाइन जर्नल में अपना शोधपत्र प्रकाशित कराया, हरेक का निष्कर्ष एक ही था – फिजी और आसपास के दूसरे द्वीप जो प्रशांत महासागर में स्थित हैं, वहां सागरतल नहीं बढ़ रहा है. इसमें से एक जर्नल बंगलुरु से निकलता है, इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ अर्थ एंड एनवायर्नमेंटल साइंसेज.

हैदराबाद स्थित ओमिक्स इंटरनेशनल तो ऐसे जर्नल्स की खान है. यहाँ से दावा है, ७०० जर्नल प्रकाशित किया जाते हैं, साथ ही ३००० अन्तराष्ट्रीय कांफ्रेंस भी प्रतिवर्ष आयोजित किये जाते हैं. ओमिक्स पर अमेरिकी फ़ेडरल ट्रेड कमीशन ने अनेक सवाल उठाये हैं. ओमिक्स इंटरनेशनल शोधपत्रों की जांच नहीं करता, जिन वैज्ञानिकों के नाम जांच टीम में दिए गए हैं, वे न तो कंपनी और न ही जर्नल का नाम जानते हैं. इसी तरह कांफ्रेंस के लिए भी जिन प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों का नाम बताया जाता है उन्हें कांफ्रेंस की कोई जानकारी नहीं होती. ओमोक्स के एक जर्नल, एनवायर्नमेंटल पोलुशन एंड क्लाइमेट चेंज, में अधिकतर शोधपत्र यही दावा करते हैं कि मानवीय गतिविधियों से तापमान बृद्धि का कोई रिश्ता नहीं है.

यूनिवर्सिटी ऑफ़ तस्मानिया के वैज्ञानिक, डॉ जॉन हंटर के अनुसार जब युवा वैज्ञानिकों पर अधिक शोधपत्रों को प्रकाशित करने का दबाव बनाया जाता है और असंख्य ऑन-लाइन जर्नल जो इन्ही शोधपत्रों को प्रकाशित कर अपनी कमाई करते हैं, तब शोधपत्रों का स्तर गिरना लाजिमी है.

अब कोई भी और कुछ भी भारी भरकम नाम वाले जर्नलों में अपने शोधपत्र प्रकाशित करा सकता है, पर इसकी ऊँची कीमत अदा करने के बाद.