प्रिय महासचिव,

मैं बहुत उम्मीद के साथ आपको यह पत्र लिख रहा हूं. मानवाधिकारों की रक्षा के मामले में आपकी विश्वसनीयता बेदाग रही है. आप सलाज़ार और केटानो की तानाशाही के खिलाफ लड़े हैं. संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त के तौर पर, आपने शरणार्थियों की सुरक्षा को संयुक्त राष्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त की गतिविधियों के केंद्र में वापस ला खड़ा किया.

आपका वर्तमान भारत दौरा ऐसे समय में हो रहा है, जब मानवाधिकारों पर गंभीर हमले हो रहे हैं. मुझे उम्मीद है कि अपने सार्वजनिक वक्तव्यों एवं सरकार के साथ बातचीत में आप इनमें से कुछ मुद्दों के बारे में बोलेंगे. मुझे उम्मीद है कि आपके द्वारा उठाये जाने वाले कुछ अहम मुद्दे होंगे :

जाति और स्वच्छता – जैसाकि आपको महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के उपलक्ष्य में भारत सरकार द्वारा स्वच्छता पर आयोजित एक बड़े सम्मेलन में शामिल होना है, हम चाहेंगे कि आप सम्मेलन के आयोजकों से हाल में भारत दौरे पर आये पानी एवं स्वच्छता से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत की सिफारिशों पर गौर करने का आग्रह करें. विशेष दूत ने इस बात पर जोर दिया था कि “भेदभाव एवं मानवाधिकारों के अन्य उल्लंघनों के मूल कारण के रूप में कलंक पर गौर किये बिना कोई भी राज्य पानी और स्वच्छता से जुड़े मानवाधिकारों को पूरी तरह सुनिश्चित नहीं कर सकता.”

विशेष दूत ने सिर पर मैला ढोने की जारी प्रथा का भी जिक्र किया था. यह एक ऐसा मसला है जिसकी चर्चा उक्त सम्मेलन और वहां होने वाले भाषणों में शायद ही हो पाये. वजह, उस कार्यक्रम में सफाईकर्मियों के प्रतिनिधि या उनके अधिकारों के लिए काम करने वाले लोग शामिल नहीं हैं. आधिकारिक आंकड़े बताते हैं कि इस काम में 50 हजार से अधिक लोग जुड़े हुए हैं. इसमें सीवर एवं सेप्टिक टैंक की सफाई करने वाले लोगों की संख्या शामिल नहीं है. विशेष दूत ने अपनी बात में यह भी जोड़ा था कि “शौचालयों की संख्या में बढ़ोतरी से यह आशंका चिंता उठती है कि सफाई के काम को निचली जातियों पर थोपने की पीढ़ियों पुरानी प्रथा भेदभावपूर्ण तरीके से जारी रहेगी.”

हमें उम्मीद है कि अपने भारत दौरे का सदुपयोग करते हुए आप मानवाधिकारों से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को रेखांकित करेंगे :

मुसलमानों के खिलाफ हिंसा – अधिकांश भारतीय अभी भी सहिष्णुता, बहुलता और समन्वय में विश्वास रखते हैं. लेकिन हिन्दू दक्षिणपंथी तत्व एक समय में गाय से जुड़ी एक हत्या को अंजाम देकर इन मूल्यों एवं संवैधानिक सिद्धांतों पर प्रहार कर रहे हैं. यों तो धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा कोई नयी परिघटना नहीं है, लेकिन इस किस्म के हमलों को नजरअंदाज किये जाने वाले माहौल ने हमलावरों को बेखौफ बना दिया है और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच भय और चिंता का भाव भर दिया है. ऐसे माहौल को अक्सर चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा बढ़ावा दिया जाता है.

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं पर निशाना – विदेशी चंदा नियमन अधिनियम के जरिए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को पंगु बनाकर भी राज्य को चैन नहीं मिला है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को लंबे समय तक सीखचों में कैद रखने के लिए वह गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून जैसे कानूनों का इस्तेमाल कर रही है. मानवाधिकारों से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के निकायों के साथ सहयोग करने वाले स्वयंसेवी संगठनों को खामियाजा भुगतना पड़ रहा है. हम आपसे सरकार को यह याद दिलाने का आग्रह करते हैं कि संवैधानिक मूल्यों की रक्षा के लिए असहमति जरुरी है.

न्यायिक प्रक्रिया से इतर जाकर जिस तौर - तरीके से बेखौफ होकर धड़ाधड़ सजाएं दी रहीं है, उसे राज्य की एक नीति के रूप में निरुपित किया जा सकता है. यह अलग बात है कि इसे उदारतापूर्वक “मुठभेड़” का नाम देकर इसकी असलियत को ढका जाता है. खबरों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश पुलिस के प्रमुख यह कहते सुने गये कि “मुठभेड़, अपराध रोकने की कवायद का एक हिस्सा है.” सशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम (आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट) ने जम्मू – कश्मीर एवं मणिपुर समेत पूर्वोत्तर राज्यों में न्यायिक प्रक्रिया से इतर हत्याओं को मुमकिन बनाया है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं मानवाधिकार से जुड़े संयुक्त राष्ट्र के निकायों द्वारा बार - बार इस कानून को रद्द करने की मांग को सरकार ने अनसुना किया है.

महिलाओं एवं लड़कियों के खिलाफ हिंसा – तफ्तीश एवं न्यायिक प्रक्रियाओं को बेहतर बनाने और पीड़िताओं को सहारा देने के उपयुक्त तौर – तरीके विकसित करने पर ध्यान केन्द्रित करने के बजाय राज्य ने इन मामलों में कठोर प्रतिक्रिया दी है. मसलन किसी बच्चे के साथ बलात्कार के अपराधी के लिए मौत की सजा का प्रावधान करना; यौन उत्पीड़न के अपराधियों का डाटाबेस तैयार करना भले ही उसमें निजता के अधिकार एवं मासूमियत को सुरक्षित रखने जैसे जरुरी उपाय शामिल न हो.

जम्मू एवं कश्मीर – मानवाधिकार के उच्चायुक्त के कार्यालय द्वारा हाल में जारी एक पर्यवेक्षण रिपोर्ट पर प्रतिक्रिया देते हुए नाराज सत्ता प्रतिष्ठान ने इस रिपोर्ट में लगाये गये आरोपों का कोई तथ्यपरक जवाब दिये बिना उक्त रिपोर्ट को “गलत, निराधार और पूर्वाग्रह से प्रेरित” करार दिया. कश्मीर घाटी में हालात बेहद खराब हैं. लंबे समय से अशांत उस राज्य में नयी दिल्ली द्वारा मौलिक स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध लगाना जारी है. सैन्य अभियान के दौरान इंसानों का ढाल के रूप में इस्तेमाल, पब्लिक सेफ्टी एक्ट जैसे कठोर कानूनों का दुरूपयोग तथा ताकत के अत्यधिक और अंधाधुंध इस्तेमाल की वजह से वहां नागरिकों का विक्षोभ जारी है.

अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्व - भारत मानवाधिकार संबंधी अपनी अंतरराष्ट्रीय वचनबद्धताओं के प्रति लापरवाही बरतते हुए उसे अनदेखा कर रहा है. वह मानवाधिकार संधि से जुड़ी निकायों को समय से रिपोर्ट करने में विफल रहता है. उसने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की विशेष प्रक्रियाओं के लिए स्थायी निमंत्रण जारी किए हैं, लेकिन वह निमंत्रण के लिए अधिकांश अनुरोधों को अनदेखा करता है. सार्वभौम आवधिक समीक्षा (यूनिवर्सल पीरियोडिक रिव्यू) के दौरान, भारतीय प्रतिनिधिमंडल का जोर मानवाधिकार से जुड़े कानूनों और नीतियों की खामियों और चुनौतियों का समाधान करने के बजाय उनकी अधिकता पर बात करने में ज्यादा रहता है. भारत ने 1997 में यातना के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किया, लेकिन उसने एक उपयुक्त कानून पारित करके अभी तक इसकी पुष्टि नहीं की है.

शरणार्थी - भारत में, विदेशी मामलों के विशेषज्ञ और “भारतीय संस्कृति” के स्व – घोषित अभिभावक यह रटते नहीं अघाते कि “सारी दुनिया एक परिवार है”. लेकिन आम तौर पर शरणार्थियों और खासकर रोहिंग्या लोगों के प्रति उनका रवैया कतई उदार और गर्मजोशी भरा नहीं है. भारत शरणार्थियों से संबंधित समझौते को मानने से इंकार करता है और एक घरेलू शरणार्थी संरक्षण कानून पारित करता है. लिहाज़ा, शरणार्थी अपने – आप उन कानूनों के दायरे में आ जाते हैं जो सभी विदेशी लोगों एवं गैर – भारतीय नागरिकों के भारत आगमन, यहां ठहरने और उनकी वापसी को प्रशासित करता है. ये कानून राज्य को उचित प्रक्रिया अपनाये बिना किसी विदेशी को हिरासत में लेने और उसे निर्वासित करने का व्यापक विवेकाधिकार देता है.

असम – प्रवासन के ऐतिहासिक रिकॉर्ड और अनसुलझे तनाव, जोकि अमूमन राजनीति से प्रेरित होते हैं, वाले इस पूर्वोत्तर भारतीय राज्य में दस्तावेजों में गड़बड़ियों तथा आवेदन एवं समीक्षा की प्रक्रिया से अनजान रहने की वजह से लाखों लोग ‘नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर’ (नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीज़न) में शामिल होने से वंचित हैं और अपने भविष्य को लेकर बेहद असमंजस में हैं. इस बीच, अनियमित प्रवासियों के खिलाफ सत्ताधारी दल के पदाधिकारियों समेत लोगों की बयानबाजियां तीखी होती जा रही हैं. हाल में, सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष ने उनकी तुलना “दीमक” से की. यह रवांडा की गूंज है?

मेरा आपसे आग्रह है कि सरकार के साथ अपनी बातचीत के दौरान आप इस बात पर जोर डालें कि नागरिकता का किसी तरह का निर्धारण मानवाधिकारों और मानवीय कानूनों एवं मानकों के हिसाब से हो. इस पैमाने पर राज्य के असफल रहने के परिणाम भयावह होंगे.

महासचिव महोदय, 1976 के उत्तरार्द्ध में, आपके अपने देशवासी, मारिओ सोरेस ने पुर्तगाल के प्रधानमंत्री के तौर पर भारत में आपातकाल लागू करने वाले तत्कालीन तानाशाही शासन के खिलाफ खुलकर और जोरदार ढंग से आवाज़ उठायी थी. मैं इससे कम की अपेक्षा आपसे कैसे कर सकता हूं? हमारे लिहाज से, भारत में समाजवादियों, लोकतंत्रवादियों एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का संघर्ष जारी है.

(रवि नायर, साउथ एशिया ह्यूमन राइट्स डॉक्यूमेंटेशन सेंटर के कार्यकारी निदेशक हैं)