इस वर्ष 11 नवम्बर को प्रथम विश्व युद्ध समाप्त होने का शताब्दी वर्ष है. इसी तारीख को 1914 से आरम्भ हुआ प्रथम विश्व युद्ध आर्मिस्तिस ट्रीटी के बाद समाप्त हो गया था. यह युद्ध मुख्य तौर पर जर्मनी और बाकी दुनिया के बीच था. इसमें अंग्रेजों की तरफ से करीब 15 लाख भारतीयों ने युद्ध लड़ा था और लगभग 74000 भारतीय युद्ध में मारे गए थे. भारतीयों की बड़ी संख्या का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि इनकी संख्या ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा और दक्षिण अफ्रीका के सैनिकों की सम्मिलित संख्या से अधिक थी. इन भारतीयों में प्रमुख तौर पर पंजाब और दूसरे उत्तर भारतीय राज्यों के अनपढ़ किसान थे. नई दिल्ली स्थित इंडिया गेट इन्ही मारे गए भारतीय सैनिकों का स्मारक है, पर शायद ही कोई इस स्थल को पिकनिक से अलग देखता है. इंडिया गेट की दीवारों पर मारे गए अनेक भारतीय सैनिकों के नाम भी वर्णित हैं.

अंग्रेज सैनिकों का साथ देने के बाद भी प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों ने इन्हें भुला दिया, जबकि इस युद्ध के ख़त्म होने के लगभग 30 वर्षों बाद तक उन्ही का राज रहा. अब, पिछले कुछ वर्षों से ब्रिटेन की सरकार वहाँ के पंजाबी समुदाय के दबाव में इनके लिए कुछ योजनायें बना रही है. पिछले सप्ताह लन्दन के पंजाबी सोसाइटी के एक समारोह में ब्रिटेन के इंटरनेशनल डेवलपमेंट सेक्रेटरी पेनी मोर्दौन्त ने कहा कि सरकार इनके मदद के लिए एक योजना पर विचार कर रही है. ब्रिटिश लाइब्रेरी में कुछ वर्ष पहले से इन सैनिकों द्वारा अपने घर भेजे गए पत्रों के अंगरेजी अनुवाद मौजूद हैं, जो ऑनलाइन भी उपलब्ध हैं. पर, इस लाइब्रेरी में पिछले कुछ दिनों में इनमें से कई भारतीय सैनिकों के इंटरव्यू भी शामिल किये गए हैं. यह कदम शताब्दी वर्ष के उपलक्ष में उठाया गया है.

सवाल यह है कि पत्रों से अधिक इंटरव्यू में क्या सामग्री होगी, जिसे इतना संजोकर ब्रिटिश लाइब्रेरी में शामिल किया गया है? दरअसल भारतीय सैनिक जो पत्र घर भेजते थे इसे सेंसर किया जाता था, इसलिए इसमें अपने मन की बात नहीं लिखते थे. दूसरी तरफ इंटरव्यू 1970 के दशक में डेविट एलिनवुड, जो अमेरिका स्थित इतिहासकार और मानव वैज्ञानिक थे, ने लिया था, जिसमें उस समय तक जिन्दा अनेक भारतीय सैनिकों को शामिल किया गया था. इंटरव्यू में विस्तार में लोगों ने अपने मन की भावनाओं को रखा था.

भारतीय सैनिक एक तरफ तो बहादुरी और बलिदान की मिसाल थे तो दूसरी तरफ अंग्रेजों की बर्बरता और नस्लभेदी मानसिकता के शिकार भी. भारतीय सैनिक यूरोप, अफ्रीका और मध्य-पूर्व के युद्धों में भारी तादात में शामिल थे, पर बाद में अंग्रेजों ने इस प्रकरण को विश्व युद्ध के इतिहास से गायब करने का पूरा प्रयास किया. अंग्रेजों ने इसे पूरी तरह से गोरों का युद्ध करार दिया था. लगभग 1000 पृष्ठों में सिमटा भारतीय सैनिकों का इंटरव्यू इन सैनिकों की पूरी कहानी बयां करता है, और शायद यह एकलौता दस्तावेज है जो इनकी युद्ध में भूमिका को पुरजोर तरीके से बताता है. निश्चित तौर पर यह प्रथम विश्व युद्ध का एक भूला-बिसरा पर जीवंत इतिहास है.

वर्ष 2012 में डेविट एलिनवुड की मृत्यु के बाद इस महत्वपूर्ण दस्तावेज को ब्रिटेन के इतिहासकार जौर्ज मोर्टन जैक ने उनके घर से खोजा और हाल में ही ब्रिटिश लाइब्रेरी के हवाले किया. इसमें हिन्दू, मुस्लिम और सिख सैनिकों के साक्षात्कार शामिल हैं. जौर्ज मोर्टन जैक, प्रसिद्ध पुस्तक, द इंडियन एम्पायर एट वार, के लेखक हैं. साक्षात्कार में जहाँ सैनिकों ने नस्लभेद, अमानवीय व्यवहार और प्रतारणा का मुद्दा उठाया वहीँ यह भी स्पष्ट किया कि देश के स्वतंत्र होने का मतलब भी उन्हें इसी युद्ध के दौरान ही समझ में आया था.

1970 के दशक में 80 वर्ष पार कर चुके सुजान सिंह के अनुसार उन लोगों से ब्रिटिश अधिकारी गुलामों से भी बदतर व्यवहार करते थे. नन्द सिंह के अनुसार उन्हें अमानवीय वातावरण में डर के साए में रहना पड़ता था, अंग्रेजों की तुलना में कम वेतन मिलता था और प्रमोशन का कोई सवाल ही नहीं उठता था. इनलोगों को कैम्प, ट्रेन या जलपोतों में अंग्रेजों से बिलकुल अगल बैठाया जाता था, घर जाने का अवकाश कभी नहीं मिलता था और वरिष्ठ पदों पर कभी नहीं रखा जाता था. नारायण सिंह के अनुसार प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों की फ़ौज का हिस्सा होने के बाद ही उन्हें एहसास हुआ कि भारतीयों को भी दूसरे देशों की तरह स्वतंत्र होना चाहिए. उस समय 85 वर्ष पार कर चुके मठ सिंह ने बताया, फ्रांस में लड़ाई के समय वहाँ की स्वतंत्रता से वे प्रभावित हुए और अपने देश को आजाद कराने का सपना देखने लगे.

जौर्ज मोर्टन जैक के अनुसार इस साक्षात्कार से प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों के पोसिटिव और निगेटिव दोनों पहलू स्पष्ट होते हैं. निगेटिव पहलू उनसे भेदभाव और अंग्रेजों का नस्लवादी रवैया था. पोसिटिव पहलू था, अधिकतर भारतीय सैनिकों द्वारा आजादी का मतलब समझाना. गुलाम देश से गुलामी वाली मानसिकता लिए भारतीय सैनिक जब स्वतंत्र देशों में युद्ध के लिए तैनात किये जाते थे तब अधिकतर सैनिकों को आजादी का सही मतलब समझ में आता था. यह भी स्पष्ट होता था कि अंग्रेज उनके सामाजिक और राजनैतिक अधिकारों का दमन कर रहे हैं.

पिछले चार वर्षों से अधिकतर ब्रिटिश एशियाई नागरिक प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों के योगदान को उजागर करने में लगे हैं, अब यह मुहिम अपना असर दिखाने लगी है और अनेक इतिहासकार अब भारतीयों के योगदान के बारे में तथ्य जुटा रहे हैं. पर, जौर्ज मोर्टन जैक ने तो इतिहास के पन्नों से गायब घटना को ब्रिटिश लाइब्रेरी का महत्वपूर्ण हिस्सा बना डाला.