NEW DELHI: सोशल मीडिया पर वाइरल एक वीडियो क्लिप में गुजरात की एक स्कूल-टीचर राहुल गांधी को लरजती आवाज में अपना दुख बता रही हैं कि चौबीस साल की नौकरी के बावजूद वे पार्ट-टाइम टीचर हैं, रिटायरमेंट के बाद भी कोई सुविधा उन्हें नहीं मिलने वाली। राहुल गांधी कहते हैं, “कुछ जबाव शब्दों में नहीं दिए जा सकते…”; मंच से उतर कर, टीचर के पास जाकर उन्हें ढाढस बंधाते हैं; वादा करते हैं कि कांग्रेस-सरकार आने पर उनके जैसे अध्यापकों की समस्याओं पर पूरा ध्यान दिया जाए। टीचर राहुल गांधी को गले लगा लेतीं हैं, और उनकी कृतज्ञता, ममता आँखो से फूट पड़ती है।

इसे उस दृश्य के बरक्स देखें जिसमें नोटबंदी के बाद, प्रधानमंत्रीजी जापान में एक सभा को संबोधित करते हुए नोटबंदी के मजे बता रहे हैं “ लड़की की शादी है, घर में पैसे नहीं हैं…” बताते हुए वे ताली ठोंक रहे हैं, हँस रहे हैं, सुनते हुए उनके श्रोता हँस रहे हैं।

नोटबंदी का सही-गलत अपनी जगह, लेकिन बेटी के ब्याह के वक्त घर में पैसे न होने की स्थिति को हँसी-मजाक का मामला बनाना हद दर्जे की संवेदनहीनता है। प्रधानमंत्रीजी के प्रति टीवी चैनलों के मालिकों, संपादकों की श्रद्धा स्वयं श्रद्धा के लायक है कि यह संवेदनहीनता जरा सी भी चर्चा के लायक नहीं मानी गयी। सोशल मीडिया में भी ‘भक्ति’ का दौर पिछले साल काफी प्रबल था, सो वहाँ भी यह संवेदनहीन हँसी चर्चा का विषय नहीं बनी।

अब स्थिति बदली हुई दिख रही है। बेटी के ब्याह के वक्त घर में पैसे न होने की हालत पर प्रधानमंत्रीजी का हँसता हुआ नूरानी चेहरा नोटबंदी की बरसी पर लोगों ने शेयर किया, राहुल गांधी का यह ताजा वीडियो तो वाइरल हो ही रहा है। कमेंटस् से जाहिर है कि कई लोग राहुल गांधी की खिल्ली भी उड़ा रहे हैं, और उनसे सत्तर साल का हिसाब भी माँग रहे हैं, लेकिन ज्यादातर कमेंट बदलाव की सूचना दे रहे हैं, “अगर यही पप्पूगीरी है, तो हमें ऐसे कई पप्पू और चाहिएँ”; “आदमी दिल का अच्छा है, लेकिन राजनीति के लिए अनफिट है…”

राहुल गांधी की बहुत बड़ी सफलता है कि पिछले कुछ महीनों में धुर विरोधियों को छोड़ कर, बाकी लोगों के मन में उनके बारे में धारणा में बहुत बदलाव आया है। उनकी सोशल मीडिया टीम का इसमें योगदान है, लेकिन असली महिमा राहुल द्वारा अपने व्यक्तित्व लाए गए बदलाव की है। वे राजनीति को हिकारत से देखते हुए “काजनीति” की बातें करने वाले मुकाम से आगे आ चुके हैं। शिष्ट तरीके से तीखे राजनीतिक हमले करके राहुल भाजपा के बड़े से बड़े नेताओं के लहजे की सीमाओं को जनता के सामने बिना कुछ कहे उजागर कर रहे हैं।

राहुल ने यह रूपांतरण तब हासिल किया है जबकि बड़ा मीडिया अघोषित सेल्फ-सेंसरशिप के दौर में गा-बजा कर प्रवेश कर चुका है। तुर्रा यह कि लगभग हर टीवी एंकर खुद को मसीहा नहीं तो देवदूत तो समझने ही लगा है। गाय ऑक्सीजन छोड़ती है से लेकर नोटों में डिजिटल चिप तक की हवाइयाँ बेधड़क उड़ाईं जा रही हैं। सवाल सरकार से करने के बजाय विपक्षी दलों से किये जा रहे हैं, और वह भी इस लहजे में जैसे कि पूछने वाला स्वयं सरकारी प्रवक्ता हो। यहाँ उस व्यापक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखें जिसमें सूचना और ज्ञान के स्रोत टीवी और वाट्सऐप हो गये हैं। पढ़ने की संस्कृति कमतर होती जा रही है, सोचने की ताकत कमजोर होती जा रही है।

इस लिहाज से राहुल गांधी की सफलता का राजनैतिक महत्व तो स्पष्ट ही है। वे गुजरात में भाजपा को अपदस्थ करके भाजपा के छक्के छुड़ा पाएँ, न छुड़ा पाएँ, पसीने तो उन्होंने अच्छी तरह से छुटा दिए हैं। संसद-सत्र की परवाह किए बिना, सरकार गुजरात में व्यस्त है।विकास के गुजरात मॉडल का नाम तक लेने में भाजपा के नेता कतरा रहे हैं। हर तबके का असंतोष खुलकर बोल रहा है। हवा का रुख भाँप लेने वाले टिप्पणीकारों के सुर बदल रहे हैं। गुजरात के चुनाव के नतीजे जो भी हों, आगामी लोकसभा चुनाव में विपक्ष के नेता के तौर पर राहुल की स्वीकार्यता पहले से अधिक हो गयी है। नीतीशकुमार ने अपनी विश्वसनीयता में पलीता लगा लिया है। गुजरात चुनाव के नतीजे जो हों, राहुल के राजनैतिक व्यक्तित्व को अब हलके में नहीं लिया जा सकता।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है, राहुल गांधी के रूपांतरण का दूरगामी सांस्कृतिक महत्व। नॉम चॉम्स्की ने सर्वानुमति के निर्माण ( मैंन्युफैक्चरिंग कंसेंट) की बात की थी। पिछले कुछ सालो में, अपने देश में बुद्धि-विवेक और सलीके के राजनैतिक विमर्श पर टीवी का जो हमला हुआ है, उसे देखते हुए विवेक-विरोधी सर्वानुमति का निर्माण हमारे यहाँ भी सचाई बन चला है।नरेंद्र मोदी, अन्ना आंदोलन और अरविन्द केजरीवाल के निर्माण में टीवी की जो भूमिका रही है, उसे देखते हुए टीवी चैनलों को यह गुमान होना स्वाभाविक ही है कि वे ही एजेंडा तय करते हैं, वे ही नेता बनाते हैं।

कुछ अपवादों को छोड़कर टीवी चैनलों की भूमिका कंसेंट निर्माण से आगे जाकर कल्ट-निर्माण की हो चली है। कुछ ही महीने पहले बतया जा रहा था कि एक मुख्यमंत्रीजी के बाल कौन कैसे, किस औजार से बनाता है, वे नाश्ते में पपीता किस प्रकार से कटा हुआ लेते हैं और पानी किस धातु के गिलास में पीते हैं। जहाँ तक प्रधानमंत्रीजी का सवाल है, मालिकान के हितों से अनुशासित टीवी एंकर मनवाने पर तुले हुए हैं कि मई 2014 के पहले तक जो भारत देश लगभग पाषाण-युग में जी रहा था, एकाएक छलांग मार कर मंगल-यान के समय में प्रवेश कर गया है। वास्तविक मुद्दों की औकात यह है कि राफेल सौदा? वह क्या होता है जी? जस्टिस लोया? कौन थे जी?

ऐसी स्थिति में सारी उपेक्षा बल्कि आक्रामकता को झेलते हुए, राहुल गांधी अपनी छवि बदलने में कामयाब हुए हैं— इस उपलब्धि का दूरगामी महत्व यह है कि मीडिया और सारे समाज को याद आए कि अंतत: राजनीति जमीन पर होनी चाहिए, टीवी स्टूडियो में नहीं; बहस मुद्दों पर होनी चाहिए, तमाशों पर नहीं।

मीडिया के कारण नहीं, मीडिया के बावजूद राहुल गांधी ने जो रूपांतरण हासिल किया है, यदि वे स्वयं ही उसे फिर से बर्बाद न कर दें, तो यह उपलब्धि देश की राजनीति पर दूर तक असर डालेगी।

(पुरुषोत्तम अग्रवाल is a senior scholar and writer. He was Professor in the Jawaharlal Nehru University)