भारत में किसान आंदोलन बहुत पुराना है। आजादी के आंदोलन में किसान आंदोलन ने महती भूमिका निभाई है। आजादी के बाद भी सशक्त किसान आंदोलन हुए हैं। लेकिन इतिहास में पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर 187 किसान संगठनों ने किसानों की संपूर्ण कर्जा मुक्ति और सभी कृषि उत्पादों की लागत से डेढ़ गुना समर्थन मूल्य पर खरीद सुनिश्चित करने को लेकर राष्ट्रव्यापी आंदोलन की शुरूआत की है।

अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के नेतृत्व में चल रहे इस आंदोलन के तहत 19 राज्यों में 10 किलोमीटर की यात्रा के दौरान 500 सभाओं के माध्यम से 50 लाख किसानों से संपर्क किया गया है। यह एकजुटता विशेष महत्व रखती है क्योंकि विश्व व्यापार संगठन तथा अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के माध्यम से अमीर मुल्क भारत के किसानों की सब्सिडी समाप्त कराने, जन वितरण प्रणाली को ध्वस्त करने, समर्थन मूल्य पर खाद्यान खरीदे जाने, मंडी व्यवस्था को खत्म करने पर आमादा है।

हाल ही की विश्व व्यापार संगठन की 11वीं मंत्री स्तरीय बू्रनोज आयरस में आयोजित बैठक में दुनिया के जनसंगठनों-किसान संगठनों ने मिलकर नव-पूंजीवादी कार्पोरेट को कृषि क्षेत्र में अधिकतम मुनाफा कमाने के लिए समझौता करने के प्रयास को असफल कर दिया गया है।

आजादी के बाद भारत के इतिहास में कृषि संकट के चलते पहली बार ऐसी स्थिति बनी कि उसके चलते 1992 से अब तक 5 लाख से अधिक किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हुए हैं। आजादी के बाद भारत की केंद्र और राज्य सरकारों ने विकास का जो रास्ता अपनाया उसके चलते लगभग 10 करोड़ किसान अपनी जमीनों से उजाड़ (विस्थापित) दिए गये। सरकारों ने कहीं जोर-जबर्दस्ती से, कहीं लालच देकर और कहीं विकास का सपना दिखा कर किसानों की जमीन हड़प ली।

जहां-कहीं भी भू-अधिग्रहण हुआ या किसान संकट में आया उसने एकजुट होकर संघर्ष करने का प्रयास किया लेकिन उसे सरकारों ने लाठी-गोली, फर्जी मुकदमें और जेल भिजवा कर किसान आंदोलन को कुचल दिया। आत्महत्या करने वाले परिवारों का सरकारों ने न तो अब तक कर्जा माफ कर पुनर्वास किया है और न ही जिन किसानों का भूमि अधिग्रहण हुआ उनका संपूर्ण पुनर्वास किया गया है।

आजादी के बाद किसानों ने भरपूर उत्पादन बढ़ाया है। गत 10 वर्षों में उत्पादन दुगुना कर लिया लेकिन कर्जा भी दुगुने से अधिक हो गया है। बढ़ती महंगाई, नोटबंदी, जीएसटी, किसानी की लागत (बीज, खाद, कीटनाशक, बिजली के दामों) में वृद्धि, जमीन लगातार कम होते जाने के चलते किसानों की आमदनी लगातार घट रही है, जिसके चलते वह खेती छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात एवं अन्य जनउपयोगी सुविधाओं के निजीकरण हो जाने की वजह से किसानों का सम्मानपूर्वक जीवन जीना दूभर हो गया है जिसके चलते वह आक्रोशित है। सरकारें उसकी समस्याओं को सुनने को तैयार नहीं हैं।

इस वर्ष जब मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में 5 जुलाई को लगातार कृषि उत्पादों के घटते दामों को लेकर किसान आंदोलन के दौरान किसानों ने जब हड़ताल शुरू की तब 19 साल बाद मुलताई गोलीकांड दोहराया गया। हालांकि सरकार बदल चुकी थी। कांग्रेस की जगह भाजपा भोपाल और दिल्ली में काबिज थी। लेकिन किसान आंदोलन से निपटने का तरीका एक ही रहा। 5 आंदोलनकारी किसानों की दिन-दहाड़े हत्या कर दी गयी। पुलिस ने एक किसान को पीट-पीट कर मार डाला। देश भर के किसान संगठन और राजनैतिक दल के नेताओं को शहीद परिवारों से एक महीने तक मिलने नहीं जाने दिया गया। केवल प्रवेश को लेकर कई बार किसान संगठनों के नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं।

यही वह समय था जब महाराष्ट्र में किसान आंदोलन चरम पर था। शरद जोशी जी के सशक्त आंदोलन के बाद महाराष्ट्र में उन्हीं से जुड़े रहे स्वाभिमानी शेतकारी संगठन के सांसद राजू शेट्टी तथा महाराष्ट्र के 35 किसान संगठनों ने सुकानू समिति बना कर आंदोलन चला रहे थे तथा सरकार से 35 हजार करोड़ का किसानों का कर्जा माफ कराने की घोषणा करा चुके थे, दिल्ली में तमिलनाडु के किसान अय्या कन्नू के नेतृत्व में सूखे के चलते कर्जा माफी की मांग को लेकर जंतर-मंतर पर आंदोलन कर रहे थे, तब किसान नेताओं ने दिल्ली में किसान संगठनों के नेताओं की 16 जून को दिल्ली में बैठक बुलाकर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का गठन किया। सभी संगठनों ने मिल कर कर्जा मुक्ति और डेढ़ गुना समर्थन मूल्य को लेकर मंदसौर गोली चालन के एक माह पूरे होने की तारीख 6 जुलाई से देश भर में किसान मुक्ति यात्रा निकालने का निर्णय लिया।

समिति के संचालन के लिए राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के नेता एवं एडवोकेट वी एम सिंह को संयोजन तथा जय किसान आंदोलन के एडवोकेट अविक साहा को सचिवालय चलाने की जिम्मेदारी दी गयी तथा राष्ट्रीय स्तर पर एक कार्यकारिणी गठित की गयी, जिसमें अखिल भारतीय किसान सभा, अखिल भारतीय किसान सभा (कनिंग स्ट्रीट), अखिल भारतीय किसान महासभा, अखिल भारतीय किसान-मजदूर सभा, राष्ट्रीय किसान-मजदूर संगठन, जय किसान आंदोलन, स्वाभिमानी शेतकारी संगठन, जनआंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय, लोकसंघर्ष मोर्चा, भारतीय किसान यूनियन डकौंदा, कर्नाटक राज्य रैयत संघ, किसान महापंचायत, नेशनल साउथ इंडिया रिवर इंटरलिंकिंग एग्रीकल्चरिस्ट एसोसिएशन, अलाइंस फार सस्टेनेबल एंड होलिस्टिक एग्रीकल्चर (आशा), रैयतू स्वराज वेदिका, स्वराज अभियान, किसान संघर्ष समति, कृषक मुक्ति संग्राम समिति, आल इंडिया किसान खेत-मजदूर संगठन के प्रतिनिधियों को शामिल किया गया।

किसान मुक्ति यात्रा के पहले चरण पूरा होने पर दिल्ली में किसानों की संसद का आयोजन किया गया, जिसमें डेढ़ सौ से अधिक किसान संगठनों ने भाग लिया तथा किसानों के दोनों मुद्दों को समर्थन देने 20 सांसद किसान मुक्ति संसद में पहुंचे। लगभग संपूर्ण विपक्ष किसान आंदोलन के साथ खड़ा दिखलाई दिया। 15-16 जुलाई को आयोजित किसान मुक्ति संसद ने पूरे देश का ध्यान आत्महत्या करने वाले किसानों के बच्चों की दर्दनाक स्थिति की ओर आकृष्ट किया।

चंपारण सत्याग्रह के 100 साल पूरे होने के अवसर पर 2 अक्टूबर से किसान मुक्ति यात्रा का दूसरा चरण शुरू हुआ, जिसकी समाप्ति उत्तर प्रदेश के गजरौला में हुई। तीसरा चरण हैदराबाद से बंेगलौर के बीच सम्पन्न हुआ। उत्तर-पूर्व की किसान मुक्ति यात्रा तो नहीं हो सकी; क्योंकि असम सरकार ने कृषक मुक्ति संग्राम समिति के नेता एवं अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के कार्यकारिणी सदस्य अखिल गोगई को राष्ट्रद्रोह का मुकदमा लगाकर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत डिब्रूगढ़ जेल में डाल दिया। लेकिन गुवाहाटी में किसान संगठनों द्वारा इन दोनों मुद्दों पर 10 हजार से अधिक किसानों की सभा आयोजित की गयी।

किसान मुक्ति यात्राओं के माध्यम से जहां एक तरफ अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के प्रमुख नेताओं को 19 राज्यों में जाकर विभिन्न क्षेत्र के किसानों की विभिन्न समस्याओं को जानने का अवसर मिला, वहां दूसरी ओर किसान मुक्ति यात्रा चलते तमाम राज्यों में अलग-अलग जिलों में कार्य करने वाले किसान संगठनों को एक मंच पर एक साथ आकर संवाद करने का मौका मिला। राष्ट्रीय स्तर पर बनी एकजुटता राज्यों के स्तर पर भी आगे बढ़ी। यह पहला अवसर था जब 1936 से विभिन्न नामों से कार्य कर रहे किसान सभाओं के नेताओं और विभिन्न नामों से काम कर रहे किसान संगठनों को एक-दूसरे को जानने-समझने, कार्यकर्ताओं, समर्थकों से मिलने और क्षेत्रीय किसानों और खेतिहर मजदूरों की समस्याओं को समझने का मौका मिला। देश में पहली बार लाल-हरे-नीले-पीले झंडे एक साथ दिखलाई पड़े।

किसान मुक्ति यात्राओं के दौरान किसान आंदोलन में महिला किसान, आदिवासी किसान, भूमिहीन किसान, बटाईदार किसान, मछुआरे, पशुपालक, बागवानी करने वाले, दूध उत्पादन, फलों का उत्पादन, वन उत्पादों का संग्रहण, मवेशी चराने वाले एक मंच पर आये। सही मायने में किसान आंदोलन का जमीनी स्तर पर विस्तार हुआ। इसी तरह किसान मुक्ति यात्राओं के कार्यक्रमों के दौरान किसानों के समर्थन में मजदूर संगठन, छोटे दुकानदारों के संगठन, वैज्ञानिक, वैकल्पिक खेती पर काम करने वाले विशेषज्ञ, बुद्धिजीवी, साहित्यकार और फिल्मकार भी किसानों के समर्थन में दिखलाई पड़े। पहली बार यह लगा कि देश का किसान अकेला नहीं है। उसके साथ समाज के तमाम तबके उसके सवालों को हल करने के लिए साथ में खड़े हुए हैं। विभिन्न संगठनों ने अपनी ताकत दिखाई। 10 हजार किलोमीटर की किसान मुक्ति यात्रा के दौरान छोटे-बड़े 5 सौ से अधिक कार्यक्रम हुए, जिनमें से 50 कार्यक्रम 5 हजार से 25 हजार किसानों के साथ संपन्न हुए। इन यात्राओं के माध्यम से अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति को 50 लाख से अधिक किसानों से संपर्क का मौका मिला।

किसान मुक्ति यात्रा के पूरा होने पर 20-21 नवंबर को संसद मार्ग, नई दिल्ली में किसान मुक्ति संसद का आयोजन किया गया, जिसमें लाखों किसानों ने भागीदारी की। मीडिया के मुताबिक दिल्ली में वोट क्लब पर आयोजित किसान रैली के बाद यह किसानों की सबसे बड़ी रैली थी। किसान मुक्ति संसद कई दृष्टि से खास रही। देश में पहली बार महिला किसानों, आत्महत्या पीड़ित परिवार की महिलाओं तथा महिला किसानों के बीच काम करने वाली महिला किसान नेताओं की महिला किसान मुक्ति संसद, संसद मार्ग, नई दिल्ली पर हुई। 20 राज्यों से आयी महिलाओं ने सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर के सभापतित्व में अपनी आप बीती किसान मुक्ति संसद के सामने रखी। सभी महिलाओं ने कहा कि देश की खाद्य सुरक्षा सुनश्चित करने वाले अन्नदाता किसान के साथ सरकारों द्वारा किये जा रहे भेदभाव किया जा रहा है और उनकी उपेक्षा की जा रही है।

आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों से आयी महिलाओं ने बताया कि किस तरह उन्हें साहूकारों तथा बैंक कर्मचारियों द्वारा ऋण वापसी के लिए परेशान और प्रताड़ित किया गया। उन्होंने घाटे की खेती का अर्थशास्त्र भी संसद के समक्ष रखा। वक्ताओं ने कहा कि खेती किसानी का 70 प्रतिशत कार्य महिलाओं द्वारा किया जाात है लेकिन उसके योगदान को कभी पहचाना नहीं गया और न ही उसे अपने योगदान का पैसा मिला। महिला किसानों ने बताया कि बीज, खाद, कीटनाशक और बिजली पर कंपनियों का कब्जा होते जाने तथा महंगाई के कारण किसानी लगातार घाटे का पेशा होती जा रही है। महिला किसानों ने 5 हजार रुपये प्रतिमाह पेंशन दिये जाने की मांग भी महिला संसद के समक्ष रखी।

किसान मुक्ति संसद में स्वयं किसानों द्वारा तैयार किये गये किसान मुक्ति लेख (2017) तथा किसान (कृषि उत्पाद लाभकारी मूल्य गारंटी) अधिकार विधेयक (2017) पेश किये गये। 2 दिन की किसान मुक्ति संसद में आये सुझावों के आधार पर यह निर्णय लिया गया कि दोनों विधेयकों की जानकारी देश के किसान तक पहुंचाने के लिए 500 से अधिक किसान मुक्ति सम्मेलन, किसान मुक्ति गोष्ठियां आयोजित की जायें। पहले सभी राज्यों की राजधानियों में किसान मुक्ति सम्मेलन करने तथा वकीलों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों के साथ मिलकर विधेयक पर बहस करने तथा सुझाव मांगने का निर्णय लिया गया। दूसरे चरण में देश भर से आये सुझावों के आधार पर दोनों विधयेकों का अंतिम प्रारूप तैयार कर उन्हें अपने समर्थक संासदों के माध्यम से प्राईवेट मेंबर बिल के तौर पर संसद में पेश करने का निर्णय लिया गया।

अखिल भारतीय किसान संघर्ष सम्न्वय समिति का लक्ष्य अगले 1 वर्ष में देशभर के किसानों, खेतिहर मजदूरों के संगठनों को गोलबन्द कर सशक्त किसान आंदोलन खड़ा करना है ताकि सरकार से किसानों की संपूर्ण कर्जा मुक्ति करायी जा सके तथा सरकार को 2014 के चुनाव में घोषणापत्र के माध्यम से देश के किसानों से किये गये वायदे को पूरा करने के लिए बाध्य किया जा सके। किसानों की आत्महत्या मुक्त भारत का निर्माण, जिसमें खेती-किसानी की ओर नयी पीढ़ी भी आकर्षित हो, देश की खाद्य संप्रभ्ुाता बनी रहे, का निर्माण करना, पार्टियों के किसान-किसानी, गांव को नष्ट करने वाली नीतियों में बदलाव करना तथा देश पर मोदानी मॉडल थोपने वाली सरकार से मुकाबला करना अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति का मुख्य लक्ष्य है।

अ. भा. कि. सं. स. स. मानती है कि यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है कि दोनों विधेयकों को संसद में पेश कर पारित कराये। समिति की यह भी मान्यता है कि दोनों में से केवल एक बिल पारित होने से किसानों को वर्तमान गहरे संकट से नहीं उबारा जा सकता। ऋण मुक्ति के साथ साथ डेढ़ गुना समर्थन मूल्य पर खरीद सुनिश्चित करने की गारंटी आवश्यक है। समिति यह मानती है कि यदि सरकार गत साढ़े तीन वर्षों में कार्पोरेट का, वह भी गिने-चुने सौ अमीर घरानों का 14 लाख करोड़ रुपये माफ कर सकती है, तब वह देश की 130 करोड़ आबादी में 65 प्रतिशत खेती-किसानी पर निर्भर आबादी की कर्जा मुक्ति के लिए संसाधनों का इंतजाम भी कर सकती है।

अ.भा.कि.सं.स.स. ने किसानों व खेतिहर मजदूरों के बीच नई आशा का संचार किया है तथा सामूहिक नेतृत्व द्वारा संचालित न्यूनतम कार्यक्रम पर आधारित राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा करने की नयी संभावनाओं को जन्म दिया है। विभिन्न राज्यों में किसान आंदोलनों में तेजी आयी है और एकजुटता बढ़ी है। समिति यह आंदोलन किसान संगठनों के संसाधनों की दम पर ही देश में खड़ा करना चाहती है। इस आंदोलन का असर राज्य सरकारों पर दिखलाई देखा शुरू हो गया है। दोनों ही मुद्दे धीरे-धीरे राजनैतिक पटल पर अहम स्थान लेते जा रहे हैं। आने वाले लोकसभा चुनाव में यह किसान आंदोलन देश की राजनीति को किसानमुखी दिशा में ले जाने में कामयाब होगा, यह अपेक्षा अब की जाने लगी है।

(डा सुनीलम,संयोजक: किसान संघर्ष समिति - जनआंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय)