मुंगावली और कोलारस विधानसभा उपचुनाव से पहले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अपने मंत्रिमंडल का जो विस्तार किया है, उसे दो सूत्रों के सहारे समझा जा सकता है। इसका एक सिरा तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उस राजनीति से जुड़ता है, जिसमें हिंदुत्ववाद के प्रसार के लिए अति पिछड़े वर्ग के नेताओं के चेहरों का इस्तेमाल एक रणनीति के तहत किया जाने लगा है।

इन नेताओं की सूची उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से शुरू होकर विनय कटियार, उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान से होते हुए सुशील मोदी और केशव प्रसाद मौर्य तक जा पहुंचती है। अगर कुछ तकनीकी बिंदुओं को छोड़ दें तो इस सूची में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम भी जोड़ा जा सकता है और उग्र हिंदुत्व का चेहरा रहे प्रवीण तोगडिय़ा का भी।

जबकि मध्य प्रदेश मंत्रिमंडल के विस्तार का दूसरा सिरा इस राज्य की घरेलू राजनीति से भी जुड़ता है। वैसे तो शिवराज सिंह ने अपने मंत्रिमंडल में तीन लोगों को जगह दी है, नारायण सिंह कुशवाह, जालम सिंह पटेल और बालकृष्ण पाटीदार को। लेकिन जब हम देखते हैं कि जालम सिंह पटेल और बालकृष्ण पाटीदार को राज्यमंत्री बनाया गया है, जबकि नारायण सिंह कुशवाह को कैबिनेट मंत्री तो समझ में आ जाता है कि हिंदुत्ववाद की राजनीति में जातीय गणित का तडक़ा कुशवाह जाति के नेता के सहारे लगाया गया है। जब तीनों मंत्रियों के शपथ ग्रहण के बाद प्रदेश भाजपा के एक प्रवक्ता ने सांकेतिक भाषा में यह बताने की कोशिश की कि कैबिनेट मंत्री का दर्जा जरा ऊंचा होता है, तो समझने वाले समझ गए कि यह संदेश उस जाति के पास भेजा गया है, जिससे नारायण कुशवाह आते हैं।

बहरहाल, इस विस्तार के पीछे का तात्कालिक गणित तो यही है कि मुंगावली में कुशवाह या कुशवाहा वोटरों की संख्या करीब आठ हजार है, जबकि कोलारस में करीब 16 हजार और नारायण कुशवाह के बहाने इन्हें अपने साथ लाने की ही कवायद शिवराज ने की है। इसी के आधार पर यह भी माना जा सकता है कि जालम सिंह पटेल को कोलारस के करीब 10 हजार और मुंगावली के करीब 18 हजार लोधी जाति के वोटों को लुभाने के लिए मंत्री का पद दिया गया है। फिर तो यह भी सही है कि गुजरात के पाटीदार आरक्षण आंदोलन के कारण मध्य प्रदेश के पाटीदार समुदाय में जो असंतोष है, उसे शांत करने के लिए ही बालकृष्ण पाटीदार को मंत्री बनाया गया है। यह सभी अनुमान सही हैं, लेकिन हैं तात्कालिक ही।

इस मंत्रिमंडल विस्तार के पीछे जो दीर्घकालिक गणित है, उसे समझने के लिए हमें भाजपा के डर को समझना होगा। मध्य प्रदेश में इसी साल नवंबर-दिसंबर में विधानसभा का चुनाव होना है। इस बार भाजपा कांग्रेस से डर रही है और बहुजन समाज पार्टी से भी। उसके रणनीतिकार मान बैठे हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना सकती है। अत: उन्हें उनके ही घर में घेरने की कवायद के तहत नारायण कुशवाह को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है। मध्य प्रदेश के 24 जिले ऐसे हैं, जहां का मंत्रिमंडल में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है, जबकि नारायण कुशवाह समेत अब ग्वालियर के तीन मंत्री हो चुके हैं।

जाहिर है कि यह महज संयोग नहीं है। ग्वालियर और इसके आसपास के आठ-नौ जिलों में कुशवाह मतदाताओं की तादाद भी 17 फीसदी के आसपास है। माना यह जाता है कि यह जाति किसी राजनीतिक दल की पारंपरिक वोट बैंक नहीं है। जैसे लोधी समुदाय को भाजपा या राजपूतों को कांग्रेस का पारंपरिक वोट बैंक माना जाता है, वैसा कोई तमगा कुशवाह वोटरों ने अपने गले में फिलहाल तो नहीं ही लटकाया है। लेकिन सिंधिया परिवार के प्रति इस जाति के बीच एक खास लगाव देखा जाता है। यह लगाव भाजपा का डर बढ़ा रहा है, जिसे नारायण कुशवाह को मंत्री बनाकर दूर किया गया है।

कुशवाह जाति का अच्छा खासा मत प्रतिशत विंध्य क्षेत्र में भी है, करीब साढ़े 14 प्रतिशत। लेकिन इस इलाके में यह समुदाय बीएसपी का वोट बैंक माना जाने लगा है। इस समय मध्य प्रदेश विधानसभा में बीएसपी की चार सीटें हैं, जिनमें से दो रैगांव और मनगवां विंध्य क्षेत्र की हैं, जबकि अंबाह और दिमनी गवालियर संभाग कीं। वह बीएसपी ही है, जो मेहनत करे तो मध्य प्रदेश में तीसरी बड़ी राजनीतिक ताकत बन सकती है।

2013 के विधानसभा चुनाव में ग्वालियर क्षेत्र की सात, जबकि विंध्य की 13 सीटों पर बीएसपी के उम्मीदवार दूसरे स्थान पर आए थे। भाजपा यह जानती है कि बीएसपी के पास मेहनत करने वाला कोई नहीं है। फिर भी उसे डर तो है। नारायण कुशवाह से उसे यह उम्मीद है कि वह न केवल विंध्य क्षेत्र के कुशवाह वोटरों को बीएसपी से दूर कर देंगे, बल्कि भाजपा से जोड़ भी लेंगे।

फिर शिवराज सिंह चौहान यह तो जानते ही हैं कि आगामी चुनाव में उन्हें एक-एक वोट के लिए संघर्ष करना है। मध्य प्रदेश में कांग्रेस की कमजोरी ही भाजपा की ताकत है। गुजरात में कांग्रेस ने जिस तरह जिगनेश, अल्पेश और हार्दिक को साथ में लेकर भाजपा को पसीना छुड़ा दिया था, उसके बाद शिवराज आश्वस्त नहीं हैं कि प्रदेश में कांग्रेस कमजोर बनी ही रहेगी। 2013 में भाजपा ने करीब 45 फीसद वोट हासिल करके 165 सीटें जीती थीं।

कांग्रेस को मात्र 58 सीटें मिली थीं, जबकि उसे वोट मिले थे, करीब 37 फीसद। यानी दोनों के बीच मात्र आठ फीसद वोटों का अंतर था। इस वर्ष के चुनाव में अगर चार-पांच फीसद वोट भी इधर के उधर हो गए तो कोई गारंटी नहीं कि गुजरात जैसी जीत भी भाजपा को मिल ही जाएगी। हार्दिक पटेल संकेत दे ही चुके हैं कि वह मध्य प्रदेश में कांग्रेस के लिए प्रचार करेंगे। उनकी तपिश कम करने के लिए बालकृष्ण पाटीदार को मंत्रिमंडल में ले लिया गया, जबकि असली मौके पर उमा भारती के कोपभवन में जाने और उनके खास सिपहसालार प्रहलाद पटेल के चुप हो जाने के अंदेशे के चलते लॉटरी जालम सिंह पटेल की खोल दी गई, ताकि चुनाव के समय लोधी जाति के मतदाताओं को उनका चेहरा दिखाया जा सके।