इन पंक्तियों के साथ छपे चित्र को गौर से देखिए और पहचानकर बताइए-किसका है? यह न आज की किसी नेशनल क्रश प्रिया प्रकाश वारियार का है और न ही देश के सबसे बड़े बैंक घोटाले को अंजाम देकर एक झटके में ‘इंटरनेशनल फीगर’ बन गये नीरव मोदी का। ‘पैसे से राजनीति और राजनीति से पैसा’ वाली आज की ‘सर्वस्वीकृत’ राजनीतिक परम्परा के सिद्धांत का अनुसरण कर नायकत्व या महानायकत्व को प्राप्त हुई किसी विभूति या महाविभूति का भी यह नहीं ही है।

आपकी इस शख्स को पहचानने में थोड़ी-बहुत रुचि है तो हम आपका काम थोड़ा आसान कर देते हैं। यह जिन भगौतीप्रसाद का चित्र है, उनका नाम हमारे देश की आज की उस जमात के पुरखों में शामिल है, जिसमें इतनी भी नैतिकता शेष नहीं कि कम से कम, अपनी निरंकुश सत्ता के चार साल बाद ‘प्रकाश में आये’ ग्यारह हजार करोड़ रुपयों के बैंक घोटाले की जिम्मेदारी स्वीकारने में ईमानदारी दिखा सके।

आपका यह कहने का मन हो रहा है कि इस जमात के मुंह से तो आपने कभी भगौतीप्रसाद का नाम भी सुना नहीं, तो आप दुरुस्त फरमा रहे हैं आप। यह जमात अब भगौती प्रसाद तो क्या भगौती प्रसाद जैसे अपने किसी भी पुरखे को कतई याद नहीं करती। उनमें से कई के जीने-मरने तक से कोई ताल्लुक नहीं रह गया है उसका। इसलिए न उनकी जन्मदिन की याद रह गई हैं, उसे न पुण्य तिथियां।

जहां तक भगौती प्रसाद की बात है, उनके साथ मुश्किल यह है कि काजल की कोठरी में रहकर भी वे न कभी बद हुए और न बदनाम। खुद को दलित का बेटा कहकर अपने भाई बंधुओं के साथ इमोशनल अत्याचार करके उस कोठरी में जमे रहने की कोशिश भी उन्होंने नहीं ही की। साफ कहें तो बंगारूलक्ष्मण भी नहीं बने।

जब तक उस कोठरी में रहे, पूरी ताकत से, जुबान से नहीं, बरताव से भी, कहते रहे-हमीं जब न होंगे तो क्या रंगेमहफिल, किसे देखकर आप शरमाइयेगा! क्या करते, इल्म नहीं था कि उनके जाने के कुछ ही दशकों बाद उनकी जमात का ऐसा चोलाबदल हो जायेगा कि उसे उन जैसों को याद करना भी असुविधाजनक लगने लगेगा।

उत्तर प्रदेश के बहराइच जिले की इकौना सुरक्षित विधानसभा सीट से जनसंघ के टिकट पर दो बार विधायक चुने जाने और राजनीति में ईमानदारी, उसके नैतिक स्वरूप, उसूलों व सिद्धांतों के लिए अपना समूचा जीवन व जान देने के बाद वे सामाजिक कृतघ्नता की कीमत चुकाने को भी अभिशप्त हुए। अत्यंत दारुण परिस्थितियों के बीच दुनिया से गये तो भी आधी-अधूरी खबर ही बना सके!

इकौना की जनता ने 1967 में भगौतीप्रसाद को भाजपा के पूर्वावतार जनसंघ का विधायक चुना तो वे उसके दीपक की बाती हुआ करते थे। यानी नींव की ईंट। उन्होंने 1964 में इस पार्टी के बहुचर्चित पूर्व सांसद के. के. के. नैयर के साथ अपना राजनीतिक सफर शुरू किया तो उनके पास खोने के लिए गरीबी को छोड़कर कुछ नहीं था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सादगी भरे जीवन व विचारधारा से बहुत गहरे तक प्रभावित होने के बावजूद वे खुद को उनकी वारिस कहने वाली कांग्रेस पार्टी से नहीं जुड़े क्योंकि उनको लगता था कि उसने राष्ट्रपिता का रास्ता छोड़ दिया है।

1967 में जनसंघ ने उन्हें चुनाव लड़ाना चाहा और धनाभाव रास्ता रोकने चला तो उन्होंने 1800 रुपयों में अपनी एकमात्र भैंस बेंच दी और उतने से कुछ कम में ही अपनी उम्मीदवारी का प्रचार करके जीत गये। इस जीत की इमारत की एक-एक ईंट उन्होंने खुद अपनी जनसेवा से जुटाई क्योंकि तब कोई रामलहर उनकी मदद को उपस्थित नहीं थी।

वह डॉ. राममनोहर लोहिया के गैरकांग्रेसवाद का दौर था और भगौती प्रसाद ने 1969 के विधानसभा चुनाव में भी अपनी जनता का विश्वास नहीं खोया था। जब तक विधायक रहे, वे अपने क्षेत्र की समस्याओं के समाधान की ही चिंता करते रहे। अपने या अपने परिवार के लिए भूमि, भवन, सम्पदा या वाहन के जुगाड़ में नहीं लगे। जीप या कार खरीदने की हैसियत नहीं थी, सो इकौना से राजधानी लखनऊ तक की यात्रा वे आम यात्रियों की तरह बस या रेल से ही किया करते थे।

लेकिन बाद में राजनीति में, और जनसंघ या भाजपा में भी, कुछ दूसरी ही तरह के सिक्के चलने लगे। भगौती प्रसाद ने पाया कि वे उन सिक्कों को प्रचलन से बाहर नहीं कर पा रहे, तो उनके दूषित प्रवाह में बहने की बेबसी को अंगीकार करने के बजाय किनारा कस लेना बेहतर समझा। चूंकि उन्होंने राजनीति को धनोपार्जन का साधन नहीं बनाया था इसलिए जल्दी ही उन्हें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी।

रामलहर पर सवार होकर भाजपा सत्ता की ऊंचाइयों तक पहुंची और उसके नेता लग्जरी कारों में नजर आने लगे तो भगौतीप्रसाद गुजर-बसर के लिए चाय व चने बेचने को अभिशप्त थे। अपनी खुद्दारी की रक्षा के लिए उन्होंने पूरे दस साल तक ऐसा किया। कोई उनसे उनके बाद उनकी सीट पर चुने गये विधायक के पांच-पांच पेट्रोलपम्पों का जिक्र करता तो वे मुसकराते हुए कहते-मेरे पास ईमानदारी की दौलत है जो उसके पास नहीं है। बहुत से दूसरे लोगों के पास भी नहीं है।

उत्तर प्रदेश में 1990 के बाद एक ऐसा भी दौर आया जब कई भाजपा नेता ‘हुकूमत चंद हफ्तों की महल मीनार से ऊंचा’ जैसी पंक्तियों को सार्थक करने लगे। लेकिन न भगौतीप्रसाद ने किसी से कुछ मांगा, न किसी ने उनकी सुध ली।

2006 में मुलायम सिंह यादव ने अपने मुख्यमंत्रीकाल में उन्हें एक लाख रुपयों की आर्थिक सहायता दिलाई थी, लेकिन उनकी बदहाली को देखते हुए वह ऊंट के मुंह में जीरा ही सिद्ध हुई। बाद में शरीर ने साथ नहीं दिया तो चाय व चने की दुकान भी बंद हो गई। बीमार हुए और शारीरिक अशक्तता इतनी बढ़ गई कि पूर्व विधायक के नाते मिलने वाली साढ़े दस हजार रूपया महीना की पेंशन लेने लखनऊ जाने में भी असमर्थ हो गये। 2013 में गम्भीर रूप से बीमार हुए तो साढ़े पांच हजार की घर की कुल जमापूंजी डॉक्टरों पर लुटाने के बाद 8 जुलाई को अपने जिले बहराइच के सरकारी अस्पताल पहुंचे। वहां घोर उपेक्षा के बीच उन्होंने अंतिम सांस ली तो उनके परिजनों के पास कफन तक के पैसे नहीं थे। तब गांव वालों ने चंदा करके उनका अंतिम संस्कार सम्पन्न किया।

उनके बेटे राधेश्याम के अनुसार धनाभाव के कारण उनका हार्निया का आपरेशन लम्बे अरसे से टलता आ रहा था, जो अंततः जान पर आ बना। जिला अस्पताल में भर्ती होने आये तो पहले तो उन्हें भर्ती करने में हीला हवाली की गई, फिर इलाज में भरपूर लापरवाही बरती गई। उन्हें जूनियर डॉक्टरों के भरोसे छोड़ दिया गया। यह उपेक्षा उनकी उस ईमानदारी की सजा जैसी थी जिसके लिए कुछ ही दिनों पहले प्रदेश विधानमंडल के उत्तरशती समारोह में उनको सम्मानित किया गया था। विडम्बना यह कि समारोह के बाद किसी ने भी उनका हालचाल नहीं लिया। कहते हैं कि बीमारी की हालत में ही एक दिन उन्होंने बेटे राधेश्याम से मुलायम सिंह यादव के पास ले चलने को कहा था। उन्हें उम्मीद थी कि मुलायम से उन्हें कुछ मदद जरूर मिल जायेगी, लेकिन किराये के पैसे ही नहीं जुट सके और बात आई गई हो गई।

आज की सुख व ऐश्वर्य के भोग की राजनीति में भगौतीप्रसाद हमारे सत्ताधीशों में तो क्या, विपक्ष के नेताओं में भी शायद ही किसी के रोलमाडल हों, लेकिन वे अपनी संतानों से कहा करते थे कि जीवनयापन के लिए ईमानदारी से किया गया कोई भी काम छोटा नहीं होता। वह पैसा भले ही न दे, पर थोड़ी दिक्कतों के साथ सुख जरूर देता है। शायद इसी सुख के लिए उन्होंने जीवन भर ईमानदारी का साथ नहीं छोड़ा। छोड़ते भी कैसे, उन्हें स्वतंत्र पार्टी के ईमानदारी में अपना सानी न रखने वाले मंगलप्रसाद की विरासत प्राप्त हुई थी। मंगल प्रसाद 1962 के चुनाव में इकौना के विधायक बने थे और भगौती प्रसाद से महज एक महीना पहले पांच जून को गले तक कर्ज में डूबे अपने परिवार को छोड़कर इस दुनिया से चले गये थे।

यकीनन, भगैती प्रसाद का यह किस्सा खत्म करने से पहले अपने सत्ताधीशों की जमात से यह सवाल तो बनता ही है कि अब उनमें कोई भगौतीप्रसाद क्यों नहीं है और क्यों उनके करतबों को देखकर, पराये तो पराये, यशवंत व शत्रुघ्न सिन्हा जैसे उनके अपनों को भी ऐसा लगता है कि पहले तो वे ऐसे नहीं थे। ईमानदारी की वह दौलत, जिस पर उनके भगौती प्रसाद जैसे पुरखों को नाज था, कहां गंवा आये?