हम सबने ‘इंसाफ में देरी, इंसाफ से इंकार करना है’ वाली कहावत सुन रखी है. लेकिन जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के छात्र नजीब अहमद के लापता होने और पत्रकार गौरी लंकेश हत्या मामले में पुलिस की उदासीनता पर यह मुहावरा बिल्कुल सटीक बैठता है. इन दोनों मामलों में दिल्ली पुलिस और कर्नाटक की पुलिस एक इंच भी आगे बढ़ते नहीं दिखती है. दक्षिणपंथी तत्वों से टकराव के मायने में ये दोनों मामले एक जैसे हैं. अपने विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के छात्रों के साथ हुई एक झड़प के बाद नजीब लापता हुआ, जबकि गौरी लंकेश कर्नाटक में दक्षिणपंथी माफिया द्वारा जान से मारने की धमकी और हमलों के बाद हत्यारों की गोली का शिकार हुई.

छात्र और सामाजिक कार्यकर्ता नजीब मामले में ठोस कार्रवाई की मांग को लेकर एक फिर सड़क पर हैं. यह समझ से परे है कि जेएनयू जैसे गहमागहमी वाले विश्वविद्यालय के छात्रावास से दिन के उजाले में कैसे कोई छात्र लापता हो सकता है और एक साल बाद भी उसका कोई सुराग न मिले. 14 अक्टूबर 2016 को नजीब के लापता होने के बाद से इस बारे में एक शब्द भी सुनने को नहीं मिला है. कुछ दबाव के बाद पुलिस ने जेएनयू में एक तलाशी अभियान तो चलाया लेकिन अभी तक इस गुमशुदगी पर कोई रोशनी डालने में सक्षम नहीं हो सकी है. नतीजतन, नजीब की दुखी मां और उसके परिजन लगभग उम्मीद छोड़ चुके हैं.ऐसा लगता है कि नजीब को पीटने वाले एबीवीपी के छात्रों से पूछताछ की मांग नक्कारखाने की आवाज बनकर रह गयी है और पुलिस यूं ही दिशाहीन भटक रही है. छात्रों का मानना है कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है.

अपनी लेखनी से लोगों का दिल जीत लेने वाली पत्रकार गौरी लंकेश को एक दहला देने वाली घटना में 5 सितम्बर 2017 को उनके घर के बाहर गोली मार दी गयी. घटनास्थल से बरामद कारतूसों के विश्लेषण को लेकर तीन प्रयोगशालाओं के बीच फोरेंसिक विवाद उभरने के बाद कर्नाटक पुलिस ने इस मामले से अपने पैर खींच लिये. कुछ दबाव पड़ने पर पुलिस ने अनमने ढंग से कथित आरोपियों के स्केच जारी किये. पुलिस ने दावा किया कि उसे इस घटना में शामिल अपराधियों का पता चल चुका है और वह बस इस बारे में सबूत इकट्ठा कर रही है. वही आखिरी मर्तबा था जब इस मामले में कुछ सुना गया. जिस तरह से कन्नड़ विद्वान एम एम कलबुर्गी (2015), बुद्धिवादी नरेन्द्र दाभोलकर (2013) और कम्युनिस्ट नेता गोविन्द पानसरे (2015) मामलों में अबतक कोई प्रगति नहीं हुई है, वही हश्र इस मामले में भी हुआ है.

‘कलबुर्गी और लंकेश की हत्या में एक ही बंदूक का इस्तेमाल हुआ हो सकता है’ आधिकारिक रूप से अपुष्ट इस अस्पष्ट रिपोर्ट के अलावा इस मामले में अभी तक और कुछ नहीं मालूम है. और ऐसा कर्नाटक में कांग्रेसी सरकार के तहत हुआ है. इस मामले में कोई प्रगति नहीं है. और जैसाकि होता आया है, किसी मामले को हल करने में जब पुलिस की रूचि नहीं होती तो वह आंकड़ों के जाल में उलझाने लगती है. मसलन वह कितने लाख कॉल की जांच में लगी है या उसने कितने हजार मोटरसाइकिलों की जांच की है. मजेदार तो यह है कि जब राज्य के गृह मंत्री ने जब यह दावा किया कि “हमें अपराधियों के बारे में मालूम है” तो विशेष जांच दल ने चुप्पी साधे रखी और उनके दावों की पुष्टि करने या नकारने से इंकार कर दिया.

नजीब अहमद की गुमशुदगी का मामला लंकेश की हत्या के मामले जितनाही महत्वपूर्ण है क्योंकि दोनों घटनाएं गंभीर सवाल खड़ी करती हैं. जब पुलिस मौन हो जाये और अपना काम न करे तो जनता को सवाल उठाने और ‘षड्यंत्रकारी सिद्धांतों’ को रेखांकित करते हुए व्यवस्था पर अविश्वास जताने के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.नजीब अहमद की गुमशुदगी का मकसद सत्तारूढ़ जमात के खिलाफ सवाल खड़े करने वाले छात्रों में भय पैदा करना था. और गौरी लंकेश की हत्या का उद्देश्य पत्रकारों को एक निर्धारित लाइन पर चलने और बाड़ तोड़कर स्वतंत्रता और असहमति का इजहार करने के बचने का संदेश देना था.

यह लोकतंत्र के बेहद दुखद है कि पुलिस अपनी निष्पक्षता और पेशेवर रवैये को सत्ता में बैठे राजनीतिज्ञों के हाथो में गिरवी रख दे और उनके लिए एक औजार के तौर पर काम करने लगे. और यह दरअसल पूरे देश में आम हो गया है. यह और भी दर्दनाक है कि सरकारें न्याय और जिम्मेवारी सुनिश्चित करने के बजाय न्याय का मखौल उड़ते देखती रहती है और इस बारे में जुमलेबाजी से ज्यादा कुछ नहीं करती.