सरकार द्वारा जोर-शोर से प्रचारित क्लीन एयर फॉर देलही कैम्पेन का समापन 23 फरवरी को कर दिया गया. इसके बाद पर्यावरण मंत्री डॉ हर्षवर्धन ने एक प्रेस कांफ्रेंस कर दावा किया कि इससे दिल्ली के वायु में प्रदूषण का स्तर कम हो गया है. क्लीन एयर फॉर देलही कैम्पेन पर्यावरण मंत्रालय ने दिल्ली सरकार के साथ १० से २२ फरवरी तक आयोजित किया था. इसके अंतर्गत अनेक उच्च-स्तरीय टीमों का गठन कर उन्हें दिल्ली के हरेक हिस्से में भेजा गया. साथ ही रेडिओ और सोशल मीडिया पर इसका खूब प्रचार किया गया. इन टीमों को प्रदूषण के स्त्रोतों की निगरानी के साथ प्रदूषण करने वालों को चालान काटने का अधिकार था, इसके साथ ही इस विषय में जन-जागरूकता का काम भी करना था.

इन सबके बीच यह जानना भी आवश्यक है कि डॉ हर्षवर्धन ने दिसम्बर, २०१७ के अंत में राज्य सभा को सूचित किया था, दिल्ली में कुल वायु प्रदूषण का ३५ प्रतिशत ही दिल्ली की दें है और शेष सारा प्रदूषण बाहर से आता है. इसका सीधा सा मतलब है, दिल्ली में आप कितनी भी टीमें दौड़ा लें, ६५ प्रतिशत प्रदूषण के लिए आप कुछ नहीं कर पाएंगे.

डॉ हर्षवर्धन के अनुसार कैम्पेन के दौरान वायु गुणवत्ता २०१७ के मुकाबले अच्छी रही. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़े कुछ अलग ही बताते हैं. वर्ष २०१७ में ९ फरवरी से २४ फरवरी के बीच एक दिन को छोड़कर हरेक दिन वायु गुणवत्ता सूचकांक “ख़राब” के स्तर पर था. २३ फरवरी, २०१७ को वायु गुणवत्ता सूचकांक “मध्यम” प्रदूषण पर था. इस वर्ष, जब कैम्पेन चल रहा था तब इसी दौरान ४ दिन सूचकांक “बहुत ख़राब”, ४ दिन “मध्यम” और शेष दिन “ख़राब” वायु गुणवत्ता बता रहा था. वर्ष २०१७ और २०१८ के वायु गुणवत्ता इंडेक्स के उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार इस दौरान केवल ७ दिनों तक वर्ष २०१७ में आधिक प्रदूषण था जबकि शेष ९ दिनों तक प्रदूषण अपेक्षाकृत कम था.

कैंपेन का आरंभ “बहुत ख़राब” वाले इंडेक्स से शुरू हुआ था और इसके ख़त्म होते ही अगले दिन फिर से इंडेक्स “बहुत ख़राब” हो गया. यदि यह मान भी लें कि कैंपेन के चलते वायु गुणवत्ता में बीच में सुधार हो गया तो यह भी मानना पड़ेगा कि कैंपेन ख़त्म होते ही इसका असर ख़त्म हो गया और इंडेक्स बहुत खराब श्रेणी में आ गया. अब ऐसे कैंपेन का क्या फायदा?

वायु गुणवत्ता में सुधार तो पिछले दिनों शायद ही किसी को महसूस हुआ हो. कैंपेन के दौरान डॉ हर्षवर्धन के अनुसार ७३५७ ऐसे मामलों के देखा गया जहाँ वायु प्रदूषण कानूनों का उल्लंघन किया जा रहा था, पर कुल ३११७ मामलों में ही चालान काटे गए. जितने चालान काटे गए, उनकी कुल राशि ८ करोड़ ८५ लाख रुपये है. जितने भी मामलों में चालान कटे गए, उनमें से ६६ प्रतिशत मामले निर्माण परियोजनाओं से सम्बंधित थे. कुल ३११७ मामले जहाँ चालान काटे गए हैं. उनमें से २०५१ मामले निर्माण परियोजनाओं के, ७५ मामले सड़क की धूल के, ४६ मामले ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन पर, १२३ मामले कुले में कचरा जलने पर, ६१ मामले वाहन प्रदूषण के, मात्र ४ मामले लैंडफिल के और शेष ४६१ अन्य मामले हैं. अनेक इलाकों में औद्योगिक प्रदूषण एक बड़ी समस्या है, पर शायद कैंपेन में शामिल लोगों को यह दिखा ही नहीं.

हास्यास्पद यह है कि डॉ हर्षवर्धन चालान को भी जन-जागरूकता और पर्यावरण से सम्बंधित शिक्षा का एक स्परूप मानते है. यह सभी जानते हैं कि यह एक जुरमाना होता है और जुरमाना लगा कर जागरूकता कैसे की जा सकती है, सभी न्यायालय जुर्माने को आर्थिक दंड ही मानते हैं.

कैम्पेन शुरू करने के समय भी प्रेस कांफ्रेंस की गयी थी और बताया गया था कि कुल ७० टीमें बनाई गयी हैं. हरेक टीम में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, दिल्ली के पर्यावरण विभाग, सम्बंधित एमसीडी, पुलिस और पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारी थे. कैम्पेन ख़त्म होने के बाद पीआईबी की प्रेस विज्ञप्ति में भी डॉ हर्षवर्धन के कथन में ७० टीमों का जिक्र है, पर एक अन्य जगह पर कुल ६६ टीमों के बारे में ही कहा गया है. अब ये पता नहीं कि कुल कितनी टीमें थीं – ७० या ६६?

डॉ हर्षवर्धन के अनुसार जन-जागरूकता के कार्यक्रम में बच्चे महत्वपूर्ण हिस्सा थे. प्रदूषण नियंत्रण और पर्यावरण संरक्षण में जन-जागरूकता आवश्यक है और इसे बच्चों तक पहुचना चाहिए, पर फरवरी के महीने में जब बच्चे परीक्षा की तैयारियों में जुटे हों, तब क्या ऐसे कार्यक्रम किये जाने चाहिए?

इन सबके बावजूद डॉ हर्षवर्धन इसे सफल अभियान मानते हैं और इसे दिल्ली ही नहीं बल्कि १०० ऐसे अन्य शहरों तक ले जाना चाहते हैं जहाँ वायु प्रदूषण अधिक है. इतना सबकुछ करने से अच्छा है, सभी प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को बिना रिश्वत लिए काम करने का अभियान चलायें, इससे प्रदूषण के स्तर में अपने आप बहुत सुधार हो जायेगा.