मुंडा आदिवासी समाज में पत्थलगड़ी की परंपरा प्राचीन काल से है. पत्थलगड़ी यानी सामुदायिक स्मृति, परंपरागत हक-हकूक की सामाजिक-राजनीतिक घोषणा या फिर सर्वसम्मति से लिये गए किसी निर्णय का सार्वजनिक उद्घोष। अर्थात् एक ऐसा शिलापट् जिस पर कोई सूचना अंकित होती है। जैसा कि जानकारी देने के लिए गैर-आदिवासी समाज में भी शिलापट्ट लगाए जाने की परंपरा अब प्रचलित है। सरकारी और सामाजिक दोनों स्तरों पर। आदिवासी समाज ने इस परंपरा की शुरुआत हजारों वर्ष पहले की थी जिसके प्रमाण दुनिया भर में मौजूद हैं। पुरातात्त्विक वैज्ञानिक शब्दावली में इसे ‘मेगालिथ’ कहा जाता है। प्रायः सभी देशों में जहां-जहां प्राचीन पत्थलगड़ी हैं उसे विश्व धरोहर घोषित कर संरक्षित किया गया है। लेकिन आदिवासी समाज, पुरातत्ववेत्ता और मेगालिथ संरक्षण में जुटे संस्थाओं व व्यक्तियों की मांग के बावजूद भारतीय मेगालिथों को अभी तक न तो धरोहर माना गया है और न ही उनके संरक्षण की कोई राजकीय पहल की गई है। ऐसे में झारखंड के मुंडा आदिवासी क्षेत्रों में 5वीं अनुसूची में प्रदत्त संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए इन दिनों की जा रही पत्थलगड़ी ने झारखंड सरकार की नींद उड़ा दी है। इसका तात्कालिक सकारात्मक पहलू यह है कि पहली बार देश का ध्यान ‘पत्थलगड़ी’ पर गया है और लोग पूछ रहे हैं कि पत्थलगड़ी क्या है?

पत्थलगड़ी (मेगालिथ) यानी हजारों वर्ष पुराने, प्रागितैहासिक काल में स्थापित किए गए पत्थर स्मारक। ये कई तरह के होते हैं। जैसे पुरखा आत्माओं की स्मृति एवं सम्मान में खड़े किए गए पत्थर (ससनदिरि), प्राचीन निवास क्षेत्रों के सीमांकन व बसाहट की सूचना देने वाले पत्थर (बुरुदिरि) और राजनीतिक अधिकार (टाइडिदिरि) एवं सामाजिक दिशा-निर्देश संबंधी घोषणाओं को सार्वजनिक तौर पर अभिव्यक्त करने वाले पत्थर (हुकुमदिरि)। पुरखा मृतकों के सम्मान में जहां पत्थर खड़े और सुलाकर रखे जाते हैं मुंडा परंपरा में उसे ‘ससनदिरि’ (श्मसान/कब्रगाह) कहा जाता है। कोई भी मुंडा व्यक्ति चाहे वह दुनिया के किसी भाग में चला गया हो और वहीं मर गया हो, तब भी दाह-संस्कार के बाद उसकी हड्डियां और मिट्टी उसके मूल पुरखा ससनदिरि में ही लाकर दफनाने की परंपरा है। इस संस्कार को मुंडा लोग ‘हड़गड़ी’ कहते हैं।

झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 70 किलोमीटर की दूरी पर रांची-टाटा मार्ग पर सोनाहातु प्रखंड में अवस्थित चोकाहातु गांव का ‘ससनदिरि’ 14 एकड़ की जमीन पर फैला है। इसमें करीब 8 हजार पुरखा स्मृति पत्थर हैं। इस विशाल प्राचीन मुंडा मेगालिथ क्षेत्र की पहली सूचना एक अंग्रेज अधिकारी टी. एफ. पेपे ने कर्नल डाल्टन को 1871 में दी थी। यह ‘ससनदिरि’ कम से कम तीन हजार सालों से मुंडा आदिवासी समाज की जीवित परंपरा का अंग है। आज भी यहां मृतक दफनाए जाते हैं और आत्माओं की स्मृति में पत्थर रखे जाते हैं।

‘टाइडिदिरि’ पत्थलगड़ी मुंडाओं की परंपरागत प्रशासनिक और राजनीतिक व्यवस्था का अंग है। मुंडा वाचिक इतिहास के अनुसार झारखंड क्षेत्र में सबसे पहली राजनीतिक पत्थलगड़ी हजारों साल पहले रिसा मुंडा ने की थी। रिसा मुंडा को मुंडारी समाज अपना पूर्वज मानता है जिसने झारखंड को रहने के लिए चुना और यह क्षेत्र मुंडाओं का है इसकी घोषणा उमेडंडा (आज के रांची का बूढ़मू प्रखंड का गांव) में टाइडिदिरि/पत्थलगड़ी करके की। दूसरा ऐतिहासिक टाइडिदिरि की स्थापना पहली शताब्दी से पूर्व रांची से करीब 17 किलोमीटर की दूरी पर स्थित गांव सुतियाम्बे (वर्तमान का पिठोरिया) में मदरा मुंडा ने की थी। तब से टाइडिदिरि खड़ा करने की यह परंपरा चली आ रही है जो प्रत्येक मुंडा गांव में उनके प्राचीन और परंपरागत हक-हकियत की सार्वजनिक उद्घोष है।

तीसरे प्रकार की पत्थलगड़ी ‘हुकुमदिरि’ है। पत्थलगड़ी की इस परंपरा का आरंभ संभवतः औपनिवेशिक अंग्रेजी काल में हुआ। सामान्य अथवा विशेष परिस्थितियों के दौरान जब कोई खास सामाजिक-राजनीतिक निर्णय आदिवासियों ने स्वयं लिया, या फिर युद्ध अथवा वार्ता के फलस्वरूप कोई फैसला उन्होंने स्वीकार किया, तब उसकी सार्वजनिक घोषणा के रूप में ‘हुकुमदिरि’ गाड़े गए। ताकि मुंडा समुदाय का हर सदस्य नये हुकुम और दिशानिर्देशों को माने और उसे अपनी सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवहार का अंग बनाए।

इससे स्पष्ट होता है कि पत्थलगड़ी मुख्य रूप से आदिवासियों का धार्मिक-सांस्कृतिक, सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक-प्रशासनिक इतिहास, अभिलेख, संविधान और पट्टा है जो उनके समाज को आदिवासियत के सामूहिक, सामुदायिक व सहजीवी उसूलों पर कायम रहने के लिए दिशानिर्देशित और अनुशासित करता है। पत्थलगड़ी उनके पुरखा स्मृतियों को जीवित और रहवास क्षेत्रों पर पारंपरिक अधिकारों को बहाल रखने की ऐतिहासिक सचेतनता को बनाए रखता है। वर्तमान में जो पत्थलगड़ी झारखंड के खूंटी जिला के मुंडा और सिंहभूम के ‘हो’ आदिवासी गांवों में हो रही है उसकी जड़ें पत्थलगड़ी की इसी ऐतिहासिक परंपरा से जुड़ी है। जिसे हम राजनीतिक पत्थलगड़ी की परंपरा ‘टाइडिदिरि’ अथवा ‘हुकुमदिरि’ के अंतर्गत रख सकते हैं।

क्या आज की राजनीतिक पत्थलगड़ी नई परिघटना है? क्या इससे पहले आधुनिक काल में विशेषकर स्वतंत्र भारत में कोई पत्थलगड़ी नहीं हुई? आज से मात्र 26 साल पहले गांव गणराज्य अर्थात् ‘हमारे गांव में हमारा राज’ की घोषणा के तहत पूरे झारखंड क्षेत्र में अभियान के तौर पर राजनीतिक पत्थलगड़ी हुई थी। इस अभियान को जाने-माने गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता बीऋडी. शर्मा की पहल पर 1992 में शुरू किया गया था और झारखंड के सैंकड़ों हो, मुंडा, खड़िया, उरांव, संताल गांवों में पत्थलगड़ी की गई थी। चुपचाप नहीं बल्कि सभा-समारोहों का आयोजन कर के। आज भी जो पत्थलगड़ी हो रहे हैं उसके लिए गांव-गांव प्रचार किया जाता है, समारोह होते हैं और फिर जनसमूह की उपस्थिति में अनुष्ठानपूर्वक पत्थलगड़ी की जाती है। आदिवासी समाज में पत्थलगड़ी एक सामाजिक-राजनीतिक क्रिया है जो बगैर जनभागीदारी और जनसहमति के संपन्न नहीं होती।

वर्तमान में जो ‘टाइडिदिरि’ (राजनीतिक पत्थलगढ़ी) की जा रही है वह मुख्य रूप से पिछले सात दशकों से हो रही राजनीतिक भेदभाव, संसाधनों की लूट और आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों का अपहरण व उसकी सरेआम की जा रही राजकीय हत्या के खिलाफ है। आदिवासी विकास की उपेक्षा, बहु राष्ट्रीय कंपनियों द्वारा जारी विस्थापन का आतंक और राजनीतिक भ्रष्टाचार के खिलाफ यह आदिवासी प्रतिरोध का पारंपरिक तरीका है। वे हथियार नहीं उठा रहे हैं। जुलूस, प्रदर्शन और सरकारी कामकाज में बाधा नहीं डाल रहे हैं। पत्थलगड़ी कर के सरकार व प्रशासन को अपना संदेश दे रहे हैं कि संविधान की 5वीं अनुसूची में जो प्रावधान किए गए हैं, उनका उल्लंघन बंद हो। कोई भी योजना अथवा कार्य उनके क्षेत्र में लागू करने से पहले ग्राम सभा से सहमति ली जाए। सूचना देने के बाद ही आदिवासी गांवों में पुलिस और सैन्य कार्रवाइयों को अंजाम दिया जाए ताकि क्षेत्र की जनता मदद कर सके। निरपराध और निर्दोषों के साथ अन्याय न हो। उन संवैधानिक प्रावधानों को सख्ती से लागू किया जाए जो आदिवासी क्षेत्रों को बाहरी सामाजिक-राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक और भाषाई-सांस्कृतिक अतिक्रमण से संरक्षण प्रदान करते हैं। पंचायती राज के मूल ध्येय ‘हमारे गांव में हमारा राज’ को व्यवहार में अमल लाने के लिए पत्थलगड़ी कर रहे हैं झारखंड के आदिवासी समुदाय।

हम जानते हैं कि सरकारों का रूख आज तक जनोन्मुख नहीं हो सका है। वैश्वीकरण के बाद राज्य की बची-खुची कल्याणकारी अवधारणा भी कब का दम तोड़ चुकी है। वास्तविक लोकतंत्र की बहाली और संवैधानिक दायित्वों को अमल में लाने के लिए संघर्षरत जनता हमेशा से सरकारों का अपराधी रही है। छोटानागपुर और संताल परगना काश्तकारी अधिनियमों (सीएनटी एवं एसपीटी एक्ट) में झारखंड सरकार द्वारा किए गए संशोधनों ने आदिवासियों को मजबूर कर दिया है वे लड़ाई के पुरखा तरीकों को अपनाएं। क्योंकि आधुनिक संघर्ष के रूपों के कारण उन्हें ‘माओवादी’ ‘आतंकवादी’ आदि घोषित कर देना सत्ता के लिए आसान होता है। हालांकि पत्थलगड़ी को भी ‘देशद्रोही’ ‘गैर-संवैधानिक’ बताने का प्रयास शुरू हो चुका है। पर सरकार भूल रही है कि 1880-90 के आसपास मुंडा आदिवासियों ने कोलकाता के बड़ा लाट साहब के बंगले में पत्थलगड़ी कर उन्हें समझाने का आखिरी प्रयास किया था कि उनके जमीनों की लूट और शोषण को तुरंत रोका जाए। तब ब्रिटिश वायसराय और उनके अमलों को पुरखा पत्थरों की भाषा समझ में नहीं आई। नतीजतन उसके 10-20 साल बाद 1900 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आदिवासियों ने उलगुलान (ब्रिटिश शासन के खिलाफ युद्ध) किया। अतः जरूरत इस बात की है कि सरकारें आदिवासियों की ‘पत्थलगड़ी’ यानी कभी न झुकने वाली संघर्षशील भाषा को समझे। 5वीं और 6ठी अनुसूची में प्रदत्त संवैधानिक प्रावधानों को लागू करने की उनकी सामुदायिक अपील (टाइडिदिरि/पत्थलगड़ी) का सम्मान करे। 70 सालों से अपदस्थ पंचायती राज के संवैधानिक संकल्पों को व्यावहारिक अर्थ प्रदान करे।