केन्द्रीय कानून मंत्री रवि शंकर ने अपनी सफाई में कहा है कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार विरोधी कानून वाले मामले में केन्द्र सरकार पार्टी नहीं थी। दरअसल इन दिनों राजनीति में दो तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाता है। एक भाषा राजनीतिक जिम्मेदारी के तहत बोली जाती है और दूसरी भाषा एक वकील की भाषा के रुप में बोली जाती है। हाल के वर्षों में राजनीतिक सत्ता में यह प्रवृति बढ़ रही है कि वह किसी मसले पर अपनी सफाई देने के लिए वकीलों को खड़ा करती है । वकील राजनीतिज्ञ राजनीतिक जिम्मेदारी वाली भाषा में जवाब देने के बदले वकालत वाली भाषा में सफाई देते हैं जो कि तकनीकी दृष्टि से सतही तौर पर ठीक होने का आभास दे सकती है लेकिन लोकतंत्र की प्रणाली में राजनीतिक जिम्मेदारी की दृष्टि से वह भाषा वास्ताविक स्थिति को छिपाने या उससे मुंह चुराने से बचने की कोशिश नजर आती है।

सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर 2017 के आदेश के तहत केन्द्र सरकार को नोटिस दी थी।

डा. सुभाष काशीनाथ महाजन ने हाई कोर्ट के फैसले के विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की थी और सुप्रीम कोर्ट ने असल अपील पर सुनवाई के बाद पहली बार 20 नवंबर 2017 को एक निर्देश जारी किया था। उसमें डा. महाजन के पक्ष में .स्थगन आदेश जारी किया था। और ये स्पष्ट आदेश दिया इस मामले के संबंध में केन्द्र सरकार को भी नोटिस भेजी जाए । सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के तहत ही एटॉर्नी जरनल को नोटिस भेजी गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने केन्द्र सरकार को इस मामले की एक पार्टी बनाई थी और उसकी वजहों को भी स्पष्ट किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 20 नवंबर के अपने आदेश में यह लिखा है कि केन्द्र सरकार का पक्ष इस मामले में जानना इसीलिए जरुरी है क्योंकि यह मामला संसद द्वारा बनाए गए अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार विरोधी कानून की धाराओं की व्याख्याओं से जुड़ा हुआ है। जो व्याख्या सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को किया । केन्द्र सरकार का पक्ष रखने के लिए ही सहायक एजी को लगाया गया था जिन्होने इस कानून के दुरुपयोग को कोर्ट के सामने स्वीकार किया है।

हाई कार्ट ने इस कानून की इस तरह व्याख्या की थी

पुलिस में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति अत्याचार विरोधी कानून की धाराओं के तहत शिकायत के खिलाफ मुबंई हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की। उसमें यह मांग की गई थी कि कि .अत्याचार निरोधक कानून के तहत दर्ज एफआईआर को खारिज करने का आदेश दिया जाए। लेकिन हाई कोर्ट ने 5 मई 2017 को अपने फैसले में कहा कि किसी भी सरकारी कर्मचारी व अधिकारी को किसी मनगंढ़त आरोप में दंडित होने की आशंका को जरुर दूर किया जाना चाहिए। लेकिन अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निरोधक कानून की धाराओं को महज इसीलिए गलत या दोषपूर्ण नहीं ठहराया जा सकता है कि उन धाराओं के गलत इस्तेमाल किए जाने की आशंका हो सकती है।

हाई कोर्ट ने संविधान की भावनाओं के अनुकूल जाकर ये कहा कि जो तथ्य और परिस्थतियां उसके समक्ष प्रस्तुत की गई है , उसके मद्देनजर हाई कोर्ट एफआईआर को रद्द करने का फैसला नहीं ले सकती है । कोर्ट ने ये भी कहा कि खारिज करने का फैसला करने का दूरगामी असर हो सकते हैं और समाज के वंचित समूहों के बीच एक गलत संदेश जा सकता है।

संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या

20 मार्च 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने अत्याचार निरोधक कानून के प्रावधानों की उन व्याख्याओं से उलट व्याख्या पेश की है जो व्याख्या संसद में कानून को मजबूत करने के लिए चली लंबी बहस के दौरान की गई थी।संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या ही भारतीय समाज के भीतर का मुख्य संघर्ष के रुप में दिखती है। संसद में जातीय उत्पीड़न को खत्म करने के इरादे से इस कानून की जरुरत पर बल दिया था। सुप्रीम कोर्ट की नई व्याख्या यह है कि इस कानून के प्रावधान को उलटने का उद्देश्य जातिवाद के आधार पर निर्दोष नागरिकों के उत्पीड़न को रोककर समाजिक एकता और भाईचारे के सवैंधानिक मुल्यों को बढ़ावा देना है।