नेशनल अलायन्स ऑफ़ पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) ने सरकार की अघोषित ‘मुठभेड़ नीति’ की घनघोर आलोचना की है. भारत के विभिन्न हिस्सों में चलने वाले जनांदोलनों के इस समन्वयक संगठन ने ‘मुठभेड़’ में होने वाली ‘हत्याओं’ की जांच सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा – निर्देशों के अनुरूप कराने की मांग की है. संगठन में जानना चाहा है कि आखिर क्यों संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत संरक्षित क्षेत्रों को सबसे ज्यादा राजकीय हिंसा और संसाधनों की लूट का सामना करना पड़ रहा है.

संगठन ने महाराष्ट्र के गढ़चिरौली और छत्तीसगढ़ के बीजापुर में ‘मुठभेड़’ के नाम पर सीआरपीएफ और सी – 60, भारतीय राज्य के नक्सल विरोधी सुरक्षा बल, द्वारा आदिवासियों की लगातार हत्या की पुरजोर निंदा की है.संगठन के अनुसार विभिन्न ख़बरों के माध्यम से यह खुलासा हुआ है कि 22 – 23 अप्रैल को गढ़चिरौली में 19 महिलाओं समेत तकरीबन 39 लोग और 27 अप्रैल को बीजापुर में 6 महिलाओं समेत 8 लोग मारे गये. मारे गये अथवा लापता हुए लोगों में से कई कथित रूप से नाबालिग थे.

संगठन ने आगे कहा कि मात्र एक महीना पहले तेलंगाना के नक्सल विरोधी सुरक्षा बल, ग्रेहाउंड, ने 6 महिलाओं समेत 10 संदिग्ध माओवादियों को मार गिराया था. एक आकलन के मुताबिक पिछले चार महीनों में मारे गये कथित माओवादियों की संख्या 108 तक जा पहुंची है. इतने बड़े पैमाने पर लोगों का मारा जाना देश के सामूहिक विवेक को झकझोरने के लिए काफी होना चाहिए था, लेकिन अफ़सोस कि इस मसले पर जरुरी आक्रोश सामने नहीं आया.राज्य ने हमेशा की तरह इन मौतों को ‘राष्ट्रीय हितों’ की सुरक्षा के लिहाज से जरुरी और अपरिहार्य करार दिया है !

इन ‘मुठभेड़ों’ पर विभिन्न मानवाधिकार संगठनों द्वारा उठाये गये गंभीर सवालों का हवाला देते हुए एनएपीएम ने इन हमलों के एकतरफा स्वरूपों और मौतों की तादाद पर सवालिया निशान लगाया है. संगठन ने ‘मुठभेड़’ के बाद कतिपय जवानों द्वारा ‘जश्न’ मनाने पर एतराज जताया. संगठन ने यह आशंका भी जतायी कि ‘माओवाद प्रभावित’ इलाकों के अलावा देश के अन्य राज्यों में ‘मुठभेड़’को अघोषित तौर पर राजकीय नीति बना लिया गया है और इसका इस्तेमाल विरोध के स्वरों को खामोश करने के लिए निर्ममतापूर्वक किया जा रहा है. संगठन ने अपने बयान में हैरानी जताते हुए कहा कि उत्तर प्रदेश में पिछले एक साल में बड़ी संख्या में लोगों के मुठभेड़ में मारे जाने की ख़बर है !

संगठन ने कहा कि यो तो मध्य और पूर्वी भारत के आदिवासी – बहुल इलाकों में मुठभेड़ में की जाने वाली हत्याओं का एक अलग और बड़ा संदर्भ है, लेकिन इस तथ्य पर जरुर गौर किया जाना चाहिए कि 2014 से इस किस्म की गैरजिम्मेदार घटनाओं की बढ्ती संख्या से चिंतित होकर सर्वोच्च न्यायालय ने मुठभेड़ में होने वाली मौतों की जांच के लिए एक विस्तृत दिशा – निर्देश जारी किया है और आदेश दिया है कि ये दिशा – निर्देश संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत एक कानून के तौर पर काम करेंगे. लेकिन अफ़सोस कि इन दिशा – निर्देशों को न्यूनतम रूप से भी अमल में नहीं लाया जा रहा है.

एनएपीएम के अपने एक विस्तृत बयान, जिसमें मेधा पटकर, अरुणा रॉय, लिंगराज आज़ाद, डॉ विनायक सेन, कविता श्रीवास्तव और संदीप पाण्डेय समेत कई सामाजिक कार्यकर्ताओं के हस्ताक्षर हैं, में कहा है कि संविधान की पांचवीं अनुसूची के तहत संरक्षित आदिवासी – बहुल क्षेत्रों का प्रशासनिक संचालन अमूमन राज्यपाल द्वारा जनजातीय सलाहकार समिति के साथ मशविरा करके किया जाता है. इस क्षेत्रों की राजनीतिक स्थिति के मामले में राज्यपाल सीधे राष्ट्रपति के प्रति जवाबदेह होता है. लेकिन इन इलाकों में ‘नक्सलवादियों के उन्मूलन’ के नाम पर इन दिनों पूरी तरह से ‘पुलिस – राज’ और ‘ अर्द्ध –सैनिक बलों का राज’ चल रहा है, जो कि राज्य के समर्थन से बड़े व्यापारिक घरानों के हितों के संरक्षण में मुब्तिला है.

एनएपीएम ने राज्य – पुलिस - व्यापारिक घरानों के गठजोड़ द्वारा आदिवासियों के सभी प्रतिरोधों को ‘वामपंथी उग्रवादियों’ के तौर पर चिन्हित करने और ताकत के बल पर उन्हें निर्ममतापूर्वक दबाने की आलोचना करते हुए ‘मुठभेड़’ में होने वाली ‘हत्याओं’ की जांच ‘पीयूसीएल बनाम महाराष्ट्र राज्य’ मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी दिशा – निर्देशों के अनुरूप कराने की मांग और मानवाधिकार संगठनों से राज्य द्वारा आदिवासियों के निरंतर दमन का संज्ञान लेने की अपील की है.